बिहार में नब्बे के दशक के अंत तक वामपंथी दलों की दमदार मौजूदगी सड़क से लेकर सदन तक दिखाई देती थी. वामपंथी दल भले ही बिहार में किंग नहीं बन सके हों, लेकिन किंग मेकर की भूमिका जरूर अदा करने की हैसियत रखते थे. वक्त बदला और सियासत ने करवट ऐसी ली कि सामाजिक न्याय को बुलंद होते नारे से वामपंथी दलों की राजनीति पिटने लगी और चुनाव दर-चुनाव जनाधार खिसकने लगा. मौजूदा दौर में सूबे में महज तीन सीपीआई (माले) के विधायक हैं. हालत यह हो गई है कि वामपंथी दल मंडलवाद की राजनीति से बिहार में उभरी सियासी पार्टियों के पिछलग्गू के तौर पर नजर आ रहा है.
महागठबंधन के साथ वामपंथी दल
बिहार में प्रमुख रूप से तीन वामपंथी दल हैं. जिनमें सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (माले) शामिल हैं. ये तीन प्रमुख पार्टियां महागठबंधन के सहयोगी के तौर पर चुनावी मैदान में उतरने की कवायद में हैं. इन वामपंथी दलों के नेताओं ने आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह से बुधवार को मुलाकात की थी. ऐसे में वामपंथी दलों के महागठबंधन में शामिल होने की सहमति बन चुकी है. हालांकि, बिहार में सीपीआई और सीपीएम पहले भी आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन सीपीआई (माले) पहली बार गठबंधन का हिस्सा बनने जा रही है. वामपंथी दल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे यह तस्वीर साफ नहीं है.
किंगमेकर की भूमिका में था वामदल
बिहार की सियासत में एक वह भी दौर था, जब वामपंथी दल की तूती बोला करती थी. बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलों से हुआ करते थे. 1972 के विधानसभा में सीपीआई मुख्य विपक्षी दल थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता हुआ करते थे. मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी (सीपीएम) और भाकपा माले के भी कई विधायक हुआ करते थे. 1991 में सीपीआई के आठ सांसद थे.
बना-गिरा सकते थे सरकार
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि साल 1969 में बिहार मध्यावधि चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. दो विपरीत राजनीतिक धुरी वाले दल जनसंघ और सीपीआई के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे. तब सीपीआई ने बीच का रास्ता अपनाया और समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. यह घटना बिहार की वामपंथी राजनीति के लिए एक नया मोड़ था. इसके बाद तो सीपीआई ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया और उस पर कांग्रेस का पिछलग्गू होने का आरोप भी लगा था.
बिहार में वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी. उस पर मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर फसल बोया और जमकर काटने का काम किया है. कर्पुरी ठाकुर, लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान जैसे नेताओं ने बिहार में दलित और ओबीसी को लिए सामाजिक नारा बुलंद किया था.
बिहार में वामपंथी दलों का चुनाव में प्रदर्शन
साल | सीपीआई | सीपीएम | सीपीआई(माले) |
1990 | 23 | 6 | 7 |
1995 | 26 | 6 | 6 |
2000 | 2 | 2 | 5 |
2005 | 3 | 1 | 7 |
2005 | 3 | 1 | 5 |
2010 | 1 | 0 | 0 |
2015 | 0 | 0 | 3 |
वामपंथ की जमीन पर लालू-नीतीश की फसल
बिहार में 80 के दशक में मध्य और दक्षिण बिहार में वामपंथी राजनीति नक्सलवाद के रूप में एक नई करवट ली. शुरुआती दौर में पार्टी यूनिटी, एमसीसी, सीपीई माले (लिबरेशन) जैसे कई नक्सली संगठन चुनाव बहिष्कार और गैर संसदीय संघर्ष के नारे के साथ अलग-अलग इलाकों में सक्रिय थे. उनके साथ गरीबों, पिछड़ों व दलितों का बड़ा तबका था. इन्हीं सामाजिक आधारों को जातिगत आधार पर लालू प्रसाद ने अपने पक्ष में गोलबंद किया, लगभग वही तबका वामपंथी दलों का जनाधार था.
लालू यादव ने 90 के दशक में मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने वामपंथी दलों की राजनीतिक आधार के बड़े तबके को अपने पक्ष में कर लिया. इसके बाद नीतीश और पासवान ने भी दलित और ओबीसी की तमाम जातियों की गोलबंदी कर वामपंथी दल की बची कुची जमीन अपने नाम कर ली. इसके बाद वामपंथी दल मंडलवादी राजनीति से उभरे दलों के पिछलग्गू बनते चले गए. इस तरह से वामपंथी राजनीति बिहार में सिमटती चली गई.