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बीपी मंडलः बिहार का वो सीएम जिसकी सिफारिश ने बदल दी देश की राजनीति

बीपी मंडल विधायक, सांसद, मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे. लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग के दूसरे अध्यक्ष के रूप में की गई सिफारिशों के कारण ही उन्हें इतिहास में नायक, खासकर पिछड़ा वर्ग के एक बड़े आइकन के रूप में याद किया जाता है. बिहार की राजनीति में दोनों छत्रपों के सितारे बीपी मंडल कमीशन के लागू होने के बाद बुलंद हुए हैं. मंडल की सिफारिश बिहार ही नहीं बल्कि देश की सियासत को भी पूरी तरह से से बदल गई.

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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल
स्टोरी हाइलाइट्स
  • बीपी मंडल 1968 में बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं
  • मंडल पहली बार कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे थे
  • 1990 में मंडल कमीशन देश में लागू किया गया

बीजेपी और कांग्रेस भले ही देश की सबसे बड़ी पार्टी हों, लेकिन बिहार में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन से साथ कांग्रेस खड़ी है तो दूसरी तरफ जेडीयू के अगुवाई वाले एनडीए के साथ बीजेपी है. बिहार की राजनीति में दोनों छत्रपों के सितारे बीपी मंडल कमीशन के लागू होने के बाद बुलंद हुए हैं. मंडल की सिफारिश से बिहार ही नहीं बल्कि देश की सियासत भी पूरी तरह से से बदल गई है, वो बीपी मंडल यादव बिहार के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और सूबे में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी काचेहरा भी थे. 

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बता दें कि बीपी मंडल यादव का ताल्लुक बिहार के मधेपुरा ज़िले के मुरहो गांव के एक जमींदार परिवार से था. मधेपुरा से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर बसा है मुरहो. इसी गांव के किराई मुसहर साल 1952 में मुसहर जाति से चुने जाने वाले पहले सांसद थे. माना जाता है कि उन्हें सांसद बनवाने में बीपी मंडल की अहम भूमिका रही है. बीपी मंडल की शुरुआती पढ़ाई मुरहो और मधेपुरा में हुई. हाई स्कूल की पढ़ाई दरभंगा स्थित राज हाई स्कूल से की. स्कूल से ही उन्होंने पिछड़ों के हक में आवाज उठाना शुरू कर दिया था.

स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने बिहार की राजधानी के पटना कॉलेज से की. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक भागलपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में भी सेवाएं दीं और साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में वे मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बने. बीपी मंडल को राजनीति विरासत में भी मिली थी. बीपी मंडल के पिता कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. हालांकि,बाद में वो अलग होकर समाजवादी विचाराधारा से जुड़ गए.  

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आजादी के बाद से करीब डेढ़ दशक तक बिहार में कांग्रेस का स्वर्णिम काल काल रहा, लेकिन इसी के बाद से राजनीतिक ग्राफ डाउन होना हुआ और 1967 में गैर-कांग्रेसी दल की सरकार बनी. महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार में बीपी मंडल स्वास्थ्य मंत्री बने. यह गठबंधन सरकार अपने अंतर्विरोध के चलते 11 महीने ही टिक पाई. इस बीच बीपी मंडल के भी अपने दल से गंभीर मतभेद हो गए. उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर शोषित दल बनाया. इस तरह से बीपी मंडल यादव 1968 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन महज एक महीने ही वो अपने पद पर रह सके थे. 

बीपी मंडल विधायक, सांसद, मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे. लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग के दूसरे अध्यक्ष के रूप में की गई सिफारिशों के कारण ही उन्हें इतिहास में नायक, खासकर पिछड़ा वर्ग के एक बड़े आइकन के रूप में याद किया जाता है. आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में 1977 में सरकार बनने के बाद जनवरी 1989 में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया. बीपी मंडल को पिछड़ा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 31 दिसंबर 1980 को रिपोर्ट सौंपी. हालांकि, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा ने उनकी सिफारिशों को लागू नहीं किया. कांग्रेस दस साल तक सत्ता में रही, लेकिन इस पर किसी तरह का कोई एक्शन नहीं हो सका. 

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देश की सियासत ने 90 के दशक में ऐसी करवट ली कि जनता दल की सरकार बनी, जिनमें ओबीसी समुदाय के तमाम नेताओं की भूमिका अहम रही. वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री थे और देवीलाल से उनके रिश्तों में खटास आ गई. ऐसे में साल 1990 में तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफारिश को लागू कर दिया. मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदलकर रख दिया. 

मंडल कमीशन से देश में ओबीसी समुदाय के बीच एक नई राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ है. बिहार में लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने मंडल की राजनीति से अपनी जगह बनाई तो यूपी में मुलायम सिंह यादव को भी अहम पहचान मिली. इसके जरिए ओबीसी समुदाय को राजनीतिक को बुलंदी मिली और उन्होंने इसे  सामाजिक न्याय का नाम दिया. जिसमें शिक्षा-सुधार, भूमि-सुधार, पेशागत जातियों को सरकारी स्तर पर नई तकनीक और व्यापार के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराने जैसी सिफारिशें थीं. बिहार में ओबीसी का एक बड़ा तबका है जो सत्ता की किस्मत का फैसला करता है. 

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