बिहार की सियासत में नीतीश कुमार भले ही अकेले दम पर कोई करिश्मा न दिखा सकें, लेकिन बैसाखी के सहारे किंगमेकर नहीं बल्कि 15 सालों के किंग बनते आ रहे हैं. बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ऐसी राजनीतिक धुरी हैं, जो पिछले ढेड़ दशक से सत्ता के केंद्र में बने हुए हैं. नीतीश जिस भी दल के साथ मिलाकर चुनावी मैदान में उतरते हैं सत्ता उसी गठबंधन के नाम रहती है. जीतनराम मांझी के नौ महीने का कार्यकाल छोड़कर 15 साल तक बिना किसी रुकावट के वे बिहार की सत्ता के शीर्ष पर काबिज हैं.
बता दें कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू महज एक बार विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला दल बनी है. 2010 में जेडीयू का प्रदर्शन पहले कार्यकाल की उपलब्धियों के तौर पर आया था. 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू को 22.58 फीसदी वोट मिले थे जबकि 2005 के चुनावों में उसे 20.46 प्रतिशत वोट मिले थे.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो बीजेपी के साथ नीतीश कुमार के गठबंधन के चलते जेडीयू को 3-4 फीसदी अतिरिक्त वोट मिलते हैं. बीजेपी-आरएसएस का कैडर जेडीयू को कुछ सीटों पर अतिरिक्त वोट हासिल करने में मदद करता है. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में इसकी साफ झलक दिखी थी. 2015 में नीतीश कुमार ने बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए से अलग होकर आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के पीएम उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध करते हुए अलग रास्त चुन लिया था.
चुनाव | जेडीयू | आरजेडी | बीजेपी |
2005 | 20.46 | 23.45 | 15.65 |
2010 | 22.61 | 17.96 | 16.46 |
2015 | 16.8 | 18.8 | 24.4 |
इसी तरह बीजेपी ने 2010 में 16.5 प्रतिशत मतों के साथ 91 सीटें जीती थीं, उस समय नीतीश कुमार एनडीए के पाले में थे. लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए से नीतीश कुमार अलग हुए तो बीजेपी की 38 सीटें घट गईं जबकि बीजेपी के वोट शेयर में 8 फीसदी का इजाफा हुआ था.
बीजेपी 24.5 फीसदी मतों के साथ 53 सीटों पर जीत दर्ज कर तीसरे स्थान पर रही थी. आरजेडी 18.4 फीसदी मतों के साथ 80 सीटें जीती जबकि नीतीश कुमार की जेडीयू 16.8 फीसदी वोटों के साथ 71 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. 2010 में आरजेडी और जेडीयू एक दूसरे के विरोध में थे, तो उस समय पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पार्टी को 18.8 प्रतिशत मतों के साथ केवल 22 सीटें मिलीं. 2015 में आरजेडी के वोट शेयर में मामूली इजाफा हुआ था और 18.4 प्रतिशत के साथ 58 सीटों की बढ़ोतरी हुई थी.
बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान का यह खंडित जनादेश नीतीश कुमार को राजनीतिक तौर पर ताकतवर बनाता है. 2005 में, उन्होंने गठबंधन के लिए 35 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ बहुमत हासिल करने के लिए बीजेपी को अपने साथ मिला लिया था. 2010 में बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए को सत्ता बनाए रखने के लिए 40 प्रतिशत के करीब वोट मिले थे. वहीं, पांच साल बाद 2015 में बीजेपी ने सबसे अधिक वोट शेयर हासिल किया, लेकिन सत्ता में नहीं आ सकी थी, क्योंकि नीतीश कुमार आरजेडी और कांग्रेस के साथ थे.
नीतीश कुमार की जेडीयू को अपने वोट शेयर में लगभग छह फीसदी अंकों की गिरावट 2015 में देखनी पड़ी है. जेडीयू को 2010 में 22.5 फीसदी मिला था जो 2015 में घटकर 16.8 फीसदी पर आ गया था. वहीं, बीजेपी का वोट शेयर 2010 में करीब 16.5 फीसदी था जो 2015 में बढ़कर करीब 24.5 फीसदी हो गया था. इस तरह से जेडीयू के वोट शेयर में 6 फीसदी की कमी आई थी तो बीजेपी के वोट शेयर में 8 फीसदी का इजाफा हुआ था. वहीं, दूसरी ओर आरजेडी के वोट शेयर को देखें तो 2010 में आरजेडी करीब 18 फीसदी वोट मिला था, जो 2015 में बढ़कर 18.44 फीसदी हो गया था. हालांकि, 2005 में आरजेडी को 23.5 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन उससे बाद से लगातार उसके वोट फीसदी में कमी आई है.
इससे यह बात साफ होती है कि भाजपा अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को उतारने के बजाय नीतीश कुमार के चेहरे के सहारे क्यों चुनावी मैदान में उतरती है, क्योंकि सत्ता की गारंटी है. बिहार में महागठबंध के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में आरजेडी के तेजस्वी यादव सामने हैं. आरजेडी प्रमुख और तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव 1990 के चारा घोटाला मामले में जेल की सजा काट रहे हैं. तेजस्वी यादव अपने पिता की दागी छवि से जूझते हैं और अनुभवहीन होने का टैग भी उनके ऊपर है. ऐसे में बिहार में 'मिस्टर क्लीन' नीतीश कुमार के खिलाफ धारणा की लड़ाई हारते दिख रहे हैं, जो अगले दो महीने में होनी है.