समय के साथ सबकुछ बदल गया है. आज सोशल मीडिया से 'नेताजी' अपनी आवाज जनता के बीच पहुंचा रहे हैं, लेकिन हम चुनाव के उस दौर की बात कर रहे हैं, जब गवइयों की सुरीली आवाज वोट मांगती थी. प्रत्याशियों के साथ चुनाव प्रचार में गवइयों की टोली साथ चलती थी. ढोलक की थाप पर जनता रुकती तो 'नेताजी' भी अपनी बात जनता के बीच पहुंचाते और अपने पक्ष में वोट करने की अपील करते थे.
इस तरह होता था चुनाव प्रचार
डेढ़ दशक पहले चुनाव प्रचार का तरीका कुछ और ही हुआ करता था. भटौली के गवइये ब्रह्मदयाल सिंह कहते हैं कि पहले पारंपरिक गीतों की ऐसी महफिल जमती थी कि राह चलने वाले भी कुछ पल ठहर कर उम्मीदवार के पक्ष में कसीदे पढ़ने लगते थे.
जितवाड़ी के गवइये व्यास ने बताया कि गवइयों के साथ शहनाई बजाने वालों को भी बैलगाड़ी में बिठाया जाता था. पीछे 'नेताजी' और आगे बैलगाड़ी में बैठे गवइये पारंपरिक गीतों से एक अलग ही समा बांध देते थे. इतना ही नहीं यदि किसी दल के नेता की बड़ी सभा हुआ करती थी, तो उसमें भी भीड़ रोकने के लिए गवइयों को पहले ही भेजा जाता था. 'नेताजी' के आने तक गवइये भीड़ को अपने गीतों से मनोरंजन करते हुए रोकने का काम करते थे.
बच्चों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था चुनाव
उस समय का चुनाव बच्चों के लिए भी किसी उत्सव से कम नहीं हुआ करता था. किसी भी नेता के चुनाव प्रचार के काफिले के पीछे बच्चों की टोलियां नजर आती थीं. इन बच्चों में क्रेज रहता था, 'नेताजी' के नाम के बिल्ले और पर्चों को लूटने का. एक एक बच्चा काफी संख्या में बिल्ले इकट्ठे कर लेता था. इन बिल्लों को अपने कपड़ों पर लगाकर बड़ी ही शान के साथ बच्चे चला करते थे. वहीं 'नेताजी' के पर्चे किसी काम आते या नहीं, लेकिन बारिश के समय में नाव इन्हीं पर्चों की बनाकर बच्चे खूब आनंद लेते थे.
अब हुआ सब खत्म
कभी चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाने वाले इन गवइयों का कहना है कि समय के साथ सब खत्म हो गया. चुनाव आता था, तो कमाई का इंतजार रहता था. प्रचार के दौरान गवइयों को इनाम के रूप में कपड़े और पैसे भी मिल जाते थे, लेकिन आज इनके लिए भी चुनाव सोशल मीडिया तक ही सिमट कर रह गया है.
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