बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के पूरे नतीजे आ गये हैं और राज्य में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने जा रही है. हालांकि, युवा नेता तेजस्वी के नेतृत्व में महागठबंधन के प्रदर्शन को बहुत खराब नहीं कहा जा सकता. इस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने सबसे ज्यादा 75 सीटें हासिल की हैं, तो वामदलों को गठबंधन का सबसे ज्यादा फायदा हुआ है. उन्होंने कई नए इलाकों में भी पैठ बनायी है.
महागठबंधन में शामिल राष्ट्रीय जनता दल 75 सीटें हासिल कर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनी है. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले उसे पांच सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है. इसी तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पिछले चुनाव में 27 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस बार उसे 19 सीटों पर ही संतोष करना पड़ रहा है.
लेफ्ट पार्टियों को मिला फायदा
राज्य में तीन प्रमुख वामदल सक्रिय हैं- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले-लिबरेशन). महागठबंधन की ओर से इस चुनाव में लेफ्ट पार्टियों को 29 सीटें दी गई थीं, जिनमें से 16 सीटों पर उन्हें विजय मिली है. पिछले चुनाव में इन्हें सिर्फ 3 सीटों पर संतोष करना पड़ा था. पिछली बार सीपीआई माले-लिबरेशन को ये तीनों सीटें मिली थीं, जबकि सीपीआई और सीपीआई (एम) को एक भी सीट नहीं मिली थी.
किस वामदल को कितनी सीटें
इस बार विधानसभा चुनाव में वामदलों को कुल 16 सीटें मिली हैं. सीपीआई को 2 सीट, सीपीएम को 2 सीट और कम्युनिस्ट पार्टी (माले-लिबरेशन) को 12 सीटें मिली हैं. बिहार में वामदलों के प्रदर्शन में काफी उतार-चढ़ा देखा गया है. कभी राज्य की कई विधानसभा सीटों पर उनका असर रहा, तो कभी ऐसा भी वक्त आया, जब उनकी बोहनी तक नहीं हुई. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन 1972 के चुनाव में रहा, जब उसे कुल 35 सीटें मिली थीं. इसी तरह माकपा का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन साल 2000 के चुनाव में रहा, जब उसे कुल 14 सीटें मिली थीं.
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इन नए इलाकों में वामदलों की पैठ
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार कम्युनिस्ट पार्टियों ने कई नए इलाकों में पैठ बनाई हैं. कई सीटों पर उन्हें पहली बार विजय मिली है तो कई ऐसी सीटें हैं जहां उन्होंने दशकों बाद वापसी की है. इनमें अगिआंव, अरवल, डुमरावं, घोसी, मांझी, फुलवारी और सिकटा शामिल हैं.
भोजपुर जिले की अगिआंव सीट पहली बार वामदलों के कब्जे में आयी है. सारण जिले के तहत आने वाली मांझी विधानसभा सीट परिसीमन के बाद साल 2010 में अस्तित्व में आयी थी. यहां भी पहली बार किसी लेफ्ट पार्टी को विजय मिली है. पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाले फुलवारी विधानसभा सीट पर भी पहली बार किसी वामदल को जगह मिली है.
बिहार में पश्चिमी चंपारण जिले की सिकटा विधानसभा सीट पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) को जीत मिली है. इस सीट पर वाम दलों ने 1967 के बाद वापसी की है. इसी तरह अरवल सीट पर वामदलों ने 1969 के बाद वापसी की है. बक्सर लोकसभा के तहत आने वाले डुमरांव सीट पर वामदलों ने 1977 के बाद वापसी की है. बिहार के जहानाबाद जिले में आने वाली घोसी विधानसभा सीट पर वामदलों ने 1974 के बाद वापसी की है.
जिसने कमजोर किया था वजूद वही बना खेवनहार
यहां यह बात गौर करने लायक है कि कभी लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राजद ने ही बिहार में वाम दलों के वजूद को खतरे में डाल दिया था. असल में दोनों की जमीन एक ही है. दोनों सामाजिक न्याय की बात करते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां भी पिछड़े, दलितों, मुसलमानों के वोट पर आधारित थीं. वे वर्ग की बात करती हैं. तो राष्ट्रीय जनता दल का आधार भी यही वर्ग है और इस पार्टी के लिए यह वर्ग जाति में बदल गया है.
राजद के उदय से पहले नब्बे के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथी दलों की मौजूदगी सड़क से लेकर सदन तक दिखाई देती थी और वे किंग मेकर की भूमिका अदा करने की हैसियत रखते थे. एक समय तो लालू प्रसाद ने कई वामपंथी विधायकों को राजद में शामिल कर वामदलों को तगड़ी चोट भी दी और उनके अस्तित्व पर खतरा आ गया. लेकिन आज उसी राजद के सहारे बिहार में फिर से कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी जमीन मजबूत कर ली है.
सीपीआई -माले का अब तक सबसे अच्छा प्रदर्शन
भाकपा (माले-लिबरेशन) 1990 से बिहार विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतारती आ रही है. इस बार 12 सीट हासिल कर सीपीआई माले ने अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है. इस पार्टी का इससे पहले तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2015 के चुनाव में था, जब कुल 7 प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई.