बिहार में विकास के तमाम दावों के बीच कुछ लोगों की जिंदगी आज भी बदतर ही है. तमाम ऐसे गांव हैं जहां के सैकड़ों-हजारों परिवार हर साल खानाबदोश जिंदगी जीने को मजबूर हैं. अपना घर छोड़ एक नया आशियाना बनाते हैं. चार से छह महीने तक वहीं जिंदगी गुजराते हैं. इसमें भी ऐसी-ऐसी दुश्वारियां झेलते हैं जिसके बारे में एक आम इंसान सोच भी नहीं सकता. आइए मिलते हैं ऐसे कुछ परिवारों से...
बाढ़ हर साल कर देती है बेघर
दी लल्लनटॉप की चुनाव यात्रा जब दरभंगा के कुशेश्वर स्थान पहुंची तो यहां के सुगराइन गांव के सैकड़ों विस्थापितों से मुलाकात हुई. ये सभी कमला बलान के पश्चिम तटबंध की सड़क पर महीनों से झुग्गी डाल कर किसी तरह वक्त गुजार रहे हैं. ये वो परिवार हैं जिनके घर बाढ़ में डूबे हैं. तारा देवी ने बताया कि ऐसा हर साल होता है. बाढ़ आते ही सभी जरूरी सामान के साथ यहां तटबंध पर आ जाते हैं क्योंकि यही एक जगह हैं जो डूबती नहीं. फिर चार से छह महीने और किसी-किसी साल 7 महीने तक यहीं रहना पड़ता है.
प्रधान भी नहीं आए झांकने
विस्थापितों में से एक बड़कू सदा ने बताया कि प्रधान भी कभी झांकने नहीं आया. उसने अपना घर समस्तीपुर में बनवा लिया है तो बाढ़ के टाइम वहीं चला जाता है. मदद के नाम पर बीडीओ और सीओ शुरूआत में खाने की कुछ मदद करते हैं लेकिन एक दो सप्ताह के बाद हमें खुद से गुजारा करना पड़ता है. जलावन की लकड़ी बेचकर या फिर कहीं दूर मजदूरी कर पेट पालना होता है. अब दीपावली तक बाढ़ का पानी उतरने की उम्मीद है, उसके बाद ही घर जा पाएंगे, पांच महीने से झुग्गीनुमा ठिकाना बना कर परिवार और मवेशियों के साथ रह रहे हैं.
एंबुलेंस के नाम पर एक नाव
बाढ़ विस्थापित इन लोगों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है बीमार पड़ना. एंबुलेंस तो आने से रही. एक नाव है जिससे समस्तीपुर या दरभंगा शहर की ओर जाना पड़ता है. नाव वाला एक व्यक्ति का एक तरफ का किराया 20 रुपये लेता है. ऐसे में आना-जाना 40 रुपये होता है जो यहां के लोगों के लिए बड़ी रकम है. यहां के ज्यादातर बच्चे स्कूल से दूर हैं. स्कूल जाते भी हैं तो चार से छह महीने बाढ़ में स्कूल जाना संभव नहीं होता और वो पिछली पढ़ाई भी भूल जाते हैं. नाव से जाना पड़ा तो किराया कौन देगा?
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