
बिहार में आखिरी चरण का मतदान शनिवार को निपट जाने के बाद अब सबको इंतजार रहेगा नतीजों का. इस चुनाव में बिहार के प्रवासियों का मुद्दा भी सुर्खियों में रहा. दूसरे राज्यों में काम करने वाले बिहार के 30 लाख कामगारों को महामारी, लॉकडाउन, अभाव, बेबसी ने तोड़ कर रख दिया. उनमें से अधिकतर को सैकड़ों-हजार किलोमीटर सफर कर उन्हीं मूल स्थानों को लौटना पड़ा. यहां भी उन्हें नाकाफी सरकारी मदद, बेरोजगारी और बाढ़ का विनाश झेलना पड़ा. 7 महीने के अंतराल में ही अब उनके लिए दोबारा पलायन जैसे हालात हैं.
बिहार के इन प्रवासियों का हर तरफ से उदासीनता से सामना है. सरकारों से तो ये नाराज है हीं भगवान से भी सवाल करते हैं, कब खत्म होंगे उनके कष्ट? बिहार में सत्ता के कैम्पेन में उतने मायने नहीं रखते जितने कि और फैक्टर. राज्य में मतदान के लिए कतारों में खड़े हुए लाखों बेरोजगार इसकी एक बानगी है.
क्या इन प्रवासियों की नाराजगी का नीतीश कुमार को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है. इंडिया टुडे- एक्सिस माय इंडिया एग्जिट पोल का अनुमान है कि 44 प्रतिशत प्रवासियों ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन को वोट देना पसंद किया है. नीतीश को इस वर्ग से सिर्फ 37 फीसदी वोटरों के ही वोट मिलने का अनुमान है.
लेकिन बिहार के इन कामगारों की भारत के विकसित राज्यों को सख्त जरूरत है. कई राज्यों और औद्योगिक क्षेत्रों में अनलॉक के बाद बिहार के प्रवासी कामगारों की गैर मौजूदगी की वजह विकास के फिर रफ्तार न पकड़ने की शिकायतें सामने आ रही हैं.
महामारी और रोजगार छिनने की वजह से ये प्रवासी कामगार घरों को लौटे थे. लेकिन यहां भी परेशानियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. महीनों तक गुजर बसर का कोई जरिया न मिल पाने की वजह से ये एक बार फिर अपने काम वाले राज्यों में लौटना चाहते हैं. जैसे ही फ्लाइट, ट्रेन और यातायात के दूसरे साधन दोबारा शुरू हुए, कुछ ने फिर बिहार छोड़ दिया. कुछ छोड़ रहे हैं.
महामारी की दस्तक से पहले मोतिहारी के मूल निवासी मोहम्मद हाशिम शिफ्ट सुपरवाइजर के रूप में मुंबई में एक फैक्ट्री में काम करते थे. वह इस साल मार्च में घर लौट आए. उसके बाद लॉकडाउन शुरू हो गया. मुंबई में फैक्ट्री बंद हो गई और हाशिम बिहार में घर आकर अटक गए. बिना सैलरी हाशिम लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार करते रहे. हाशिम ने कहा, “एक बार अनलॉक होना शुरू हुआ तो मैंने एक ई-कॉमर्स कंपनी के लिए डिलीवरी मैन के रूप में दिहाड़ी पर काम शुरू किया. मुझे तीन महीने लगे इतने पैसे जोड़ने में कि बुधवार को फ्लाइट से लौटने के लिए मैं टिकट खरीद सका.”
पटना हवाई अड्डे पर एयरलाइंस अच्छा कारोबार कर रही हैं, क्योंकि प्रवासी वापस अपने पुराने काम वाले शहरों का रुख कर रहे हैं. मांग अधिक है, इसलिए टिकट के दाम भी ऊंचे हैं.
बेगूसराय के सुनील कुमार ने बहरीन के लिए रात की उड़ान पकड़नी थी. वह सुबह-सुबह पटना पहुंचे. सुनील ने बताया, “हम कई महीने पहले लौटने के लिए तैयार थे. लेकिन शुरू में फ्लाइट नहीं थी. जब फ्लाइट शुरू हुई तो टिकट की कीमत डेढ़ से दो लाख रुपए के बीच थी. अब भी एक तरफ की ही टिकट 50,000 रुपए की है. मैंने कुछ पैसे बचाए और उधार लिए. क्योंकि अगर मैं बाहर जाकर काम नहीं करता तो मेरे बच्चों के भूखे रहने की नौबत आ जाती.
बिहार सरकार का कहना है कि उसने प्रवासी कामगारों के संकट को कम करने के लिए विशेष उपाय शुरू किए. राज्य सरकार के दावे के मुताबिक 29 लाख प्रवासियों के खाते में एक-एक हजार रुपए नकद ट्रांसफर किए गए. यह दावा भी किया कि राशन कार्ड या बिना कार्ड वाले सभी प्रवासियों को मुफ्त में अनाज मुहैया कराया गया.
अप्रैल में सरकार ने मनरेगा योजना को आगे बढ़ाने का फैसला किया. पूरे बिहार में मनरेगा रोजगार ने राहत दी है. पटना से 40 किलोमीटर दूर फरीदपुर गांव में आलू के खेत में काम करने वाले परशुराम को इसका लाभ मिला. कोरोना काल से पहले परशुराम दिल्ली में निर्माण स्थलों पर मजदूरी करते थे. उन्होंने दिल्ली वापस नहीं जाने का फैसला किया है. वो कहते हैं, “नरेगा (मनरेगा) में काम मिल गया. काम न मिलता तो भूखे रहते, घर पर बैठ कर क्या करते.”
लेकिन मनरेगा के रोजगार कम थे. इस योजना से कमाई अपर्याप्त थी. यही कारण है कि प्रवासी कामगारों ने मुंबई और अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में वापस लौटने की जगह बिहार के शहरी इलाकों का रुख करना शुरू किया. इन्हें अब भी शिकायत है कि दूसरे राज्यों के बड़े शहरों ने लॉकडाउन के दौरान उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया था, जबकि वो बरसों से वहां काम कर रहे थे.
पटना और गया जैसे शहरों में निर्माण गतिविधियों में हजारों को रोजगार मिल गया. कासिम अंसारी कटिहार से पटना आए थे. राजमिस्त्री का काम करने वाले अंसारी सितंबर के आखिर में पटना आए. एक समय में सूरत में वो हर दिन 800 रुपए कमा लेते थे. अब वह एक निर्माणाधीन कार्यालय परिसर में दिहाड़ी पर एक दिन में 230 रुपए पाते हैं. उन्होंने दावा किया, “मनरेगा घरों को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं था, इसलिए मेरे परिवार के 8 लोग पटना शिफ्ट हो गए.”
इन सबको सुनकर संकेत मिलते है कि अपनी मूल जगहों पर प्रवासियों के लिए कमाई के इतने साधन नहीं हैं जो उन्हें रोके रख सकें. वो बस देश के बड़े शहरों को अपनी वापसी को बस कुछ टाल ही सकते हैं.
बड़े शहरों में नियोक्ताओं की ओर से बेसहारा छोड़ दिए गए प्रवासियों की राज्य वापसी को लेकर नीतीश कुमार सरकार शुरू में कुछ हिचक में थी. फिर उसने प्रवासियों की कठिनाइयों को कम करने पर ध्यान देना शुरू किया. योजनाओं को जोरशोर से शुरू का गया लेकिन क्या वे पर्याप्त और आकर्षक थीं?
मनरेगा योजना पर बल
29 लाख प्रवासियों को 6 महीने के राशन और एक हजार रुपए नकद के अलावा मनरेगा योजना पर विशेष बल दिया गया. राज्य सरकार का दावा है कि इसने अप्रैल से अक्टूबर के दौरान 13 करोड़ रोजगार दिनों पर 4,740 करोड़ रुपए खर्च किए. बिहार ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़ों में कहा गया है कि 38.5 लाख परिवारों को मनरेगा रोजगार मिला.
लेकिन यहां झोल है. सरकार ने आदेश दिया था कि प्रवासी मजदूरों को प्राथमिकता के आधार पर नौकरी दी जाए. इसके लिए 13 लाख नए मनरेगा कार्ड बनाए गए और मनरेगा योजना स्थानीय लोगों और प्रवासी मजदूरों के लिए खुली थी. अब अगर कोई मनरेगा योजना के तहत उपलब्ध रोजगार दिवसों और हर घर के लाभार्थियों (इसमें स्थानीय और प्रवासी दोनों शामिल हैं) की तुलना करे तो 180 दिनों में से औसतन 34 दिन नौकरी मिलती है. इसका मतलब है कि सभी प्रवासियों को नौकरी नहीं मिली और एक रोजगार दिवस की तुलना में 5 दिन ऐसे थे जब काम नहीं था.
बिहार में मनरेगा की प्रतिदिन की मजदूरी 190 रुपये है. इसकी तुलना में हरियाणा में कुशल मजदूरों की दैनिक मजदूरी 350 रुपये है. यहां तक कि पटना जैसे शहर में भी दैनिक मजदूरी 237 रुपये है. कम मजदूरी की वजह से मनरेगा राज्य में बहुत आकर्षक योजना नहीं है.
इसके अलावा और भी वजहें हैं जिसकी वजह से मनरेगा योजना अपर्याप्त साबित हो रही है. बिहार सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि मई से अक्टूबर की अवधि के बीच मनरेगा के तहत रोजगार सृजन बढ़ा और फिर नीचे आ गया.
लॉकडाउन के कारण अप्रैल में मनरेगा रोजगार सृजन काफी निराशाजनक था. अप्रैल 2019 में इसके तहत 1.5 करोड़ रोजगार दिवस का सृजन हुआ था, इसकी तुलना में अप्रैल 2020 में सिर्फ 1.2 करोड़ रोजगार दिवस पैदा हुए. लेकिन मई 2020 के दौरान ये बढ़कर 3.3 करोड़ हो गया, जो कि मई 2019 की तुलना में 77% ज्यादा है. जून में ये संख्या 3.7 करोड़ हो गई जो जून 2019 की तुलना में 111% ज्यादा है. लेकिन जुलाई में संख्या गिरने लगी. जुलाई में 1.7 करोड़ रोजगार दिवस का सृजन हुआ, लेकिन जुलाई 2019 की तुलना में ये 112% की वृद्धि थी. अक्टूबर में सिर्फ 69.8 लाख रोजगार दिवस पैदा हुए.
दिलचस्प है कि अगर दो-दो महीने की अवधि की तुलना करें तो मई-जून के दो महीनों में 7.04 करोड़ रोजगार दिवस पैदा हुए जबकि जुलाई-अगस्त के दौरान सिर्फ 2.8 रोजगार दिवस पैदा हुए. सितंबर-अक्टूबर में ये संख्या गिरकर 2 करोड़ रह गई.
जुलाई का महीना लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए संकट का एक और कारण लेकर आया. मनरेगा की नौकरियां राहत दे रही थीं, लेकिन अगस्त तक नौकरी की उपलब्धता कम होने लगी, क्योंकि बिहार के 38 जिलों में से 16 जिलों में बाढ़ की वजह से मनरेगा के काम बंद हो गए.
एक बंद हो चुके मनरेगा कार्यस्थल के पास खड़े फरीदपुर गांव मुखिया नीरज ने इंडिया टुडे को बताया कि बारिश ने खेल बिगाड़ दिया. उन्होंने कहा, "हमने प्रवासियों को 1000 नकदी के साथ-साथ मुफ्त राशन वितरित किया. मनरेगा का काम जोरों पर था. हमने दो चरणों में 18-20 लाख का भुगतान किया. लेकिन फिर बाढ़ की वजह से मनरेगा का काम रुक गया. हम 40-50 लाख खर्च करने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन नहीं कर सके. आखिरकार हमारे गांव में मनरेगा का भुगतान पिछले साल की तुलना में कम रहा."
इसके अलावा देर से भुगतान होने की वजह से भी मनरेगा योजना उतनी आकर्षक नहीं है. ज्यादातर जिलों में भुगतान में देरी के कारण मजदूरों के मनरेगा छोड़ने की शिकायतें हैं. पकौली गांव की मुखिया सुनीता देवी ने स्वीकार किया कि मनरेगा के भुगतान में देरी एक ब्रेकर साबित हुई है. उन्होंने कहा, "मई में दो मनरेगा कार्यस्थलों पर काम शुरू हुआ था. लेकिन भुगतान में देरी हुई. कुछ मामलों में तो भुगतान दिवाली के बाद होगा."
सरकार की योजनाएं लोगों के सामने आए संकट को कम करने में विफल रहीं. बिहार के गांवों ने प्रवासियों की मदद के लिए अनोखा समाधान निकाला. बहुत से गांवों में पढ़े-लिखे युवा जो घर लौट आए थे, वे छात्रों को ट्यूशन पढ़ाने लगे क्योंकि स्कूल बंद थे. बहुत से स्थानीय लोगों ने कुशल श्रमिकों को नौकरी और नकदी के मामले में मदद की.
सुधीर कुमार जुलाई में मुंबई से लौटे थे. उन्होंने एक रिश्तेदार से आर्थिक मदद लेकर पॉपकॉर्न बेचने वाली गाड़ी खरीदी और अब घूम-घूमकर बेचते हैं. ये एक उदाहरण है कि ग्रामीण बिहार ने संकट से लड़ने के लिए कैसे अपने स्तर पर उपाय खोजे.
बिहार में रोजगार का परिदृश्य ये है कि सरकार प्रवासी मजदूरों को विकल्प दे पाने में विफल रही. पलायन सबसे गरीब लोगों को प्रभावित करता है या कम से कम गरीबी और पूर्ण निर्भरता के दलदल को और खतरनाक बना देता है. मार्च में लॉकडाउन के बाद से ये दूसरा मौका है जब बिहार बड़े पैमाने पर पलायन का सामना कर रहा है. सात महीनों के बाद लोग बिहार से फिर एक अनिश्चितता की ओर बढ़ रहे हैं.