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बिहार में इस साल का चुनाव बहुत दिलचस्प होने वाला है. छोटे दलों का सीटों और पदों पर अतार्किक मांगों को लेकर प्रमुख गठबंधनों से बाहर निकलना, और फिर आपस में गठजोड़ करना या अकेले ही चुनाव लड़ने के लिए जाना, ऐसा बहुत कुछ है जो बिहार के संग्राम को रोचक बना रहा है.
चिराग पासवान ने फैसला किया है कि उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारेगी. चिराग ने ये फैसला तब लिया जब महीनों तक बीजेपी को नीतीश के बिना चुनाव में उतरने के लिए समझाने की कोशिश नाकाम रही. चिराग का इस बात पर भी जोर था कि बीजेपी अपना खुद का मुख्यमंत्री का कोई चेहरा घोषित करे. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी अपने छोटे सहयोगी दलों की कीमत पर पहले 2019 लोकसभा चुनावों और अब बिहार चुनावों में नीतीश के साथ क्यों चिपकी हुई है?
पिछले तीन चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख पार्टी और बिहार में लीडिंग वोट शेयर हासिल करने के बावजूद बीजेपी को बिहार में अकेले चुनाव लड़ने से क्या रोक रहा है? बीजेपी का आंतरिक सर्वेक्षण कह रहा है कि नीतीश की लोकप्रियता गिर रही है, इसके बावजूद उन्हें ही मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर प्रोजेक्ट क्यों कर रही है. ये समझने के लिए गहराई में जाना होगा.
चुनावी इतिहास
जब हिन्दुत्व की राजनीति चरम पर थी तब बीजेपी ने 1980 और 1995 के बीच बिहार चुनाव अपने दम पर लड़े. संयोग से, पूरी हिंदी हार्टलैंड में बीजेपी के वोट प्रतिशत में वृद्धि के बावजूद बिहार एकमात्र ऐसा राज्य था, जहां 1990 और 1995 के बीच पार्टी के वोट शेयर में गिरावट आई थी.
चूंकि बीजेपी ने 1995 में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा था, तो 1990 की तुलना में इसके वोट शेयर में एक प्रतिशत की वृद्धि हुई. इस विश्लेषण में केवल वर्तमान बिहार के वोट शेयर डेटा को शामिल किया गया है; झारखंड को बाहर रखा गया है.
अन्य हिंदी भाषी राज्यों के विपरीत, बीजेपी के वोट शेयर में गिरावट बिहार में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) राजनीति के चढ़ाव की वजह से हो सकती है, जो पिछले तीन दशकों से राज्य में हावी है. मंडल की राजनीति ने बिहार में नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व वाली समता पार्टी के साथ गठबंधन करने के लिए बीजेपी को मजबूर किया. समता पार्टी, जो बाद में विलय के बाद 2003 में जेडीयू बन गई, शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना के बाद एनडीए में बीजेपी की तीसरी सहयोगी थी. बिहार में कांग्रेस के प्रदर्शन में लगातार गिरावट और दो नए गठबंधन (समता पार्टी और जेडीयू, तब शरद यादव और रामविलास पासवान के नेतृत्व में) ने 2000 बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ा फायदा दिया. इसका वोट शेयर 1995 में 11 फीसदी से दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 2000 में 28 फीसदी हो गया. बीजेपी की सीटों की हिस्सेदारी भी 20 से बढ़कर 35 हो गई. साथ ही वो आरजेडी के बाद विधानसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई.
इस दौरान, बिहार में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक रुझान उभरे. पहला, लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी हर चुनाव में अपना वोट शेयर खो रही थी और दूसरा, मौजूदा दक्षिण बिहार में महत्वपूर्ण उपस्थिति वाली समता पार्टी का जेडीयू के साथ विलय हो गया था, जिसकी उत्तर बिहार में मजबूत उपस्थिति थी.
जेडीयू अब विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल बन गया क्योंकि बीजेपी के मुकाबले इसके विधायकों की संयुक्त संख्या 47 थी. चूंकि 2005 में बीजेपी और जेडीयू दोनों गठबंधन सहयोगी थे, इसलिए आरजेडी का विरोध उससे कहीं ज्यादा मजबूत हो गया, जो 1990 के बाद से राज्य में देखा जा रहा था.
वोट बैंक की राजनीति
लगभग हर राजनीतिक विश्लेषक इस बात से सहमत होंगे कि बिहार में हाल के चुनावी रुझानों के मुताबिक कोई भी दल अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकता है. यह राज्य में 1995 के बाद से देखा गया है, इसका प्रमुख कारण पार्टियों को जाति-आधारित समर्थन है.
हाल के एक लेख में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार ने दिखाया कि किस तरह एक जाति विशेष के अधिकतर मतदाता एक ही पार्टी को कई चुनावों से वोट देते रहे हैं. उदाहरण के लिए, अधिकतर यादव आरजेडी के लिए, कोइरी और कुर्मी जेडीयू के लिए और सवर्ण बीजेपी के लिए वोट करते रहे हैं. राज्य में पहले सवर्णों के वोट कांग्रेस को मिला करते थे. हालांकि अधिकतर समुदाय बिहार में समान रूप से फैले हुए नहीं हैं, इसलिए पार्टियों के हाथ मिलाने का यह एक और कारण है. राजपूतों, यादवों को छोड़कर, कुछ हद तक निम्न ओबीसी भी, अन्य सभी जातियां राज्य भर में बिखरी हुई हैं.
उदाहरण के लिए, ब्राह्मण बिहार की आबादी का लगभग 5 प्रतिशत है, लेकिन उनकी बसावट उत्तर बिहार में अधिक है, विशेष रूप से मिथलांचल क्षेत्र में. भूमिहारों की आबादी ब्राह्मणों के समान है, लेकिन उनकी बसावट दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम बिहार में अधिक है. कोइरी और कुर्मियों के लिए दक्षिण बिहार को लेकर यह बात कही जा सकती है. 2015 में पिछले विधानसभा चुनाव में, जब बीजेपी और जेडी (यू) ने अलग-अलग गठबंधन सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ा, तो एनडीए को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा. उससे ठीक एक साल पहले, 2014 के लोकसभा चुनाव में, जेडीयू के साथ एनडीए ने बिहार में शानदार प्रदर्शन दर्ज किया था.
2015 में एनडीए की हार का एक बड़ा कारण यह था कि बीजेपी के सहयोगी दलों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. जहां बीजेपी का वोट शेयर 37 फीसदी से थोड़ा ज्यादा था, वहीं उसके दूसरे सबसे बड़े पार्टनर एलजेपी का वोट प्रतिशत 29 फीसदी था.
दूसरा बड़ा कारण उत्तर और दक्षिण बिहार में बीजेपी के प्रदर्शन में अंतर था. पार्टी ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा, वहां दक्षिण बिहार में करीब 39 फीसदी वोट मिले. यह उस वोट शेयर के करीब ही था जो उसने जेडीयू के साथ गठबंधन में 2010 में चुनाव लड़ कर पाया था.. उत्तर बिहार में बीजेपी का वोट शेयर 2010 में 40 फीसदी से घटकर 2015 में 37 फीसदी हो गया.
यह संख्या दो कारणों से महत्वपूर्ण है. पहले, उत्तर बिहार में दक्षिण बिहार (97) से अधिक यानि 146 सीटें हैं. दूसरा, बीजेपी और आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस के गठबंधन के बीच वोट शेयर का अंतर दक्षिण बिहार में महज 2.5 फीसदी और उत्तर बिहार में लगभग दोगुना 4.8 फीसदी रहा. इसने 2010 में बीजेपी की सीटों को 61 से घटाकर 2015 में 33 कर दिया; दक्षिण बिहार में उसे सिर्फ 10 सीटों का नुकसान हुआ.
चुनावी मजबूरियां
वोट बैंक की राजनीति और जातियों का क्षेत्रगत जमावड़ा लंबे समय तक बिहार के चुनावी नतीजों को सीधे प्रभावित करते रहे हैं. उत्तर और दक्षिण बिहार में जेडीयू और बीजेपी के गढ़ एक गठबंधन की जरूरत पर जोर देते है, अगर उन्हें एक बार फिर राज्य की सत्ता में आना है तो.
बीजेपी से नाता रखने वाले बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने एक न्यूज एजेंसी को हालिया इंटरव्यू में कहा, “बिहार में गठबंधन एक वास्तविकता है. इस संबंध में कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए, बिहार में आज कोई भी राजनीतिक दल अपने दम पर सरकार नहीं बना सकता है.”
बीजेपी को दक्षिण बिहार में अच्छा समर्थन प्राप्त है और वह जेडीयू के साथ इस क्षेत्र में बहुत मजबूत स्थिति में लगती है. इसे उत्तर बिहार में अगड़ी जातियों का समर्थन है, लेकिन आर्थिक तौर पर पिछड़ी जातियों (EBC) के समर्थन के बिना, यह विक्टरी लाइन तक नहीं पहुंच सकती है. उसके लिए बीजेपी को नीतीश की जरूरत है, जिन्हें इन समुदायों के बीच अहम समर्थन हासिल है. इसी तरह, अगर जेडीयू को अकेले जाना है, तो वह सवर्णों (जो कि बीजेपी से पीछे है) या यादव-मुस्लिम कॉम्बिनेशन (वर्तमान में जिनका समर्थन RJD को है) के समर्थन के बिना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता है. ऐसे में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन से दोनों पार्टियों को लाभ होता दिख रहा है.