दिल्ली विधानसभा चुनाव का औपचारिक ऐलान हो गया है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी वापसी का दावा ठोक रही है. बीजेपी केंद्र सरकार के विकास कार्यों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को सबसे बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सत्ता के वनवास को खत्म करना चाहती है. इस तरह से दिल्ली के चुनावी दंगल से कांग्रेस को गेम से बाहर समझा जा रहा है. हालांकि कांग्रेस ऐसा फैक्टर है जो दिल्ली में किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती है. ऐसे में कांग्रेस को कमजोर समझना बीजेपी और आप दोनों के लिए महंगा साबित पड़ सकता है.
दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का भले ही एक भी विधायक और सांसद न हो, लेकिन उसकी राजनीतिक अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है. कांग्रेस महाराष्ट्र में चुनाव के बाद शिवसेना और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही है तो झारखंड और हरियाणा में बेहतर नतीजे ने पार्टी के हौसले को मजबूत किया है. कांग्रेस इसका पूरा फायदा दिल्ली के चुनाव में उठाना चाहती है. कांग्रेस की ओर से दिल्ली में पंजाबी वोटर को साधने की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाल रहे सुभाष चौपड़ा के कंधों पर है तो पूर्वांचली मतों के कांग्रेस से जोड़े रहने का भार पार्टी चुनाव समिति के अध्यक्ष कीर्ति आजाद के पास है.
2015 के चुनाव में कांग्रेस का नहीं खुला था खाता
दिल्ली में केजरीवाल की दस्तक देने के बाद से कांग्रेस की लोकप्रियता में गिरावट आनी शुरू हुई है. 2013 विधानसभा चुनाव से कांग्रेस को सिर्फ सत्ता ही नहीं गवांनी पड़ी बल्कि पार्टी खिसकर तीसरे स्थान पर पहुंच गई थी. इसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट खिसक कर 9.65 फीसदी पर आ गया था और पार्टी दिल्ली में खाता भी नहीं खोल सकी थी.
कांग्रेस ने दिल्ली में कमबैक करना 2017 के दिल्ली नगर निगम चुनाव से शुरू किया. कांग्रेस दिल्ली के एमसीडी चुनाव में भले ही 30 सीटें जीतने में कामयाब रही हो, लेकिन उसका वोट फीसदी में जबरदस्त इजाफा हुआ. इसके बाद कांग्रेस की कमान शीला दीक्षित ने संभाला और पार्टी में नई जान फूंक दी. कांग्रेस के प्रदर्शन में लोकसभा चुनावों में सुधार हुआ है और पार्टी को 22.83 फीसदी वोट मिले. इस तरह से कांग्रेस दूसरे नंबर पर आ गई, इससे पार्टी को ऊर्जा मिली है. इसका नतीजा था कि अरविंदर सिंह लवली, कृष्णा तीरथ और अलका लांबा जैसे नेताओं ने पार्टी में वापसी की.
दिल्ली में कांग्रेस के पास मुख्य ताकत शीला दीक्षित का 15 सालों का कामकाज है. शीला दीक्षित के कार्यकाल में कॉमनवेल्थ गेम्स के कारण दिल्ली में कई स्तरों पर काम हुआ, जिसमें सड़क का जाल, फ्लाईओवरों का निर्माण, परिवहन में सीएनजी का प्रयोग, लोअर फ्लोर बसों का परिचालन और कच्ची कॉलोनियों को बजट आवंटन शुरू हुआ. इस तरह का निर्माण बाद में दिल्ली में नहीं हो सका. इसी का नतीजा था कि कांग्रेस की कमान शीला दीक्षित ने संभाला तो पार्टी के ग्राफ में बढ़ोत्तरी हुई.
2013 के चुनाव में बीजेपी को मिली थी 31 सीटें
दिल्ली में बीजेपी को तभी फायदा मिलता है जब दिल्ली में कांग्रेस का ग्राफ बढ़ता है. 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 33 फीसदी वोटों के साथ 31 सीटें जीतकर नंबर एक पर रही. इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को 29.5 फीसदी वोट और 28 सीटें मिली थी, जबकि कांग्रेस को 24.6 फीसदी वोटों से साथ महज 8 सीटें ही मिलीं. इसके बाद 2015 में कांग्रेस का वोट 10 फीसदी से नीचे आया और पार्टी से छिटकने वाला वोट आम आदमी पार्टी को मिला. इसी का नतीजा था कि आम आदमी का वोट बढ़कर 54 फीसदी पहुंच गया. ऐसे ही 2017 के एमसीडी और 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है. कांग्रेस का वोट फीसदी बढ़ा तो बीजेपी को सियासी फायदा मिला और आम आदमी पार्टी का नुकसान उठाना पड़ा.
ऐसे में अगर कांग्रेस का प्रदर्शन इस विधानसभा चुनाव में खराब रहा तो यह चुनाव द्विपक्षीय हो जाएगा और इससे बीजेपी को नुकसान हो सकता है. ऐसे में बीजेपी को लोकसभा चुनावों में मिले 56 फीसदी वोट शेयर बरकरार रखने की चुनौती होगी. वहीं, कांग्रेस सत्तारूढ़ आप के वोटों में कमी का फायदा उठा सकती है और उन वोटरों को अपने पाले में कर सकती है. इसके अलावा खतरे भी कम नहीं, अगर दिल्ली विधानसभा चुनावों में ध्रुवीकरण हुआ तो कांग्रेस को नुकसान झेलना पड़ सकता है. ध्रुवीकरण होने की स्थिति में मतदाता आप और और बीजेपी में बंट सकते हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली के रण में कांग्रेस किसका खेल बनाती है और किसका खेल बिगाड़ती है?