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गोवा...इस नाम का महज जिक्र ही चेहरे पर रोमांच का झोंका ले आता है. बोरियत फुर्र हो जाती है. आप मुस्कुरा उठते हैं और अगले ही पल खुद को एक सपने की गिरफ्त में पाते हैं. ढलती हुई शाम...सामने अथाह समंदर... इस समंदर में धीरे-धीरे डूबता सूरज और समुद्र के किनारे सूर्य की किरणों से सुनहरे हुए रेत के विशाल मैदान पर पसरे आप. कभी फेनी की बोतल के साथ. तो कभी किसी अपने के साथ. बस लगता है सपनों के इस सिलसिले पर ब्रेक न लगे.
ताजगी से भरा सूर्योदय और मद से भरी गोवा की रातें
गोवा के इसी मिजाज को समझते हुए घूमने-फिरने के शौकीनों ने अंग्रेजी में एक बात कही है. वो कहते हैं, When life hits you with boredom, Escape to Goa! यानी कि जब जिंदगी में उबने लगिए तो तुरंत गोवा की ओर भागिए. कोरोना की बार-बार की पाबंदी और नाइट कर्फ्यू से परेशान सैलानी तबियत के लोगों के लिए ये कहावत और भी सटीक हो गई है.
बनारस की सुबह और अवध की शाम की चर्चा आपने सुनी है तो मद से भरे गोवा की नाइट लाइफ और ताजगी से भरे सूर्योदय का भी एहसास आपको करना चाहिए. इस वक्त गोवा में चुनाव हैं और यहां कोरोना से ठहरी जिंदगी में पर्यटन के व्यवसाय के रफ्तार पकड़ने की उम्मीदों के साथ-साथ सियासत के किस्से भी सुनाई देते हैं. गोवा की मस्ती, एग्जॉटिक नाइट लाइफ और पॉलिटिक्स इस वक्त यहां की जिंदगी का कॉकटेल बनी हुई है.
गोवा का इतिहास सदियों पुराना है
गोवा की कहानी का ये इंट्रो महज तफरीह के अंदाज से है. भारत का ये सबसे छोटा राज्य (क्षेत्रफल- 3702 वर्ग किलोमीटर) सदियों का धार्मिक, सांस्कृतिक और सैन्य इतिहास समेटे हुए है. दक्षिण मुंबई से मात्र 400 किलोमीटर दूर गोवा पर कब्जे के लिए 14वीं सदी से ही जंगें लड़ी जा रही है, जब 1312 में मुस्लिम दक्कन साम्राज्य ने इस प्रदेश पर कब्जा किया. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार इससे पहले इस राज्य पर दूसरी शताब्दी से लेकर 1312 ईस्वी तक कदम्ब वंश ने लगभग ग्यारह सौ साल तक शासन किया. 1367 ईस्वी में दक्षिण भारत के साम्राज्य विजयनगर ने इस राज्य पर कब्जा किया. 1440 ईस्वी में इस प्रदेश में फिर दक्षिण भारत के बहमनी वंश के मुस्लिम राजाओं ने हमला किया और इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया.
गोवा से 8300 किलोमीटर दूर इतिहास का एक अध्याय शुरू हुआ
1482 के बाद बहमनी साम्राज्य के विभाजन के साथ ही गोवा बीजापुर के मुस्लिम शासक यूसुफ आदिल खान की सत्ता में चला गया. यूसुफ आदिल खान गोवा में अपनी सत्ता चला रहा था. लेकिन लगभग इसी समय गोवा से लगभग 8300 किलोमीटर दूर यूरोप के एक छोटे से देश पुर्तगाल में इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हो चुका था.
15वीं सदी के आखिरी कुछ साल वो वक्त था जब समंदर की लहरों को साहसी और दिलेर यूरोपियन नाविक अपने जहाजों से रौंद रहे थे. इस्लामिक आक्रमण से जर्जर हुए यूरोप के देश ब्रिटेन, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, हॉलैंड अपने लिए दुनिया में शिद्दत से नए बाजार तलाश रहे थे. उस समय भारत की समृद्धि मसालों की खुशबू की तरह ही अरब और यूरोप तक फैली हुई थी.
गोवा विलय: जब भारत के हमले से हैरान रह गया था पुर्तगाल, करना पड़ा था सरेंडर
यूरोप के लोगों को भारत के मसालों और कपड़ों की बड़ी ललक थी. यूरोपियन अरबों से काली मिर्च और दूसरे मसाले खरीदते, लेकिन बिजनेस का ट्रेड सीक्रेट समझते हुए अरब व्यापारी यूरोपियनों को ये नहीं बताते थे कि उन्होंने ये मसाले कहां से खरीदे हैं. यूरोपियन समझ चुके थे कि इस व्यापार में उनसे बहुत कुछ छिपाया जा रहा है. बता दें कि उस समय अरबों का हिंद महासागर पर दबदबा था. वे भारतीयों से माल खरीदकर ऊंचे मुनाफे पर इसे यूरोप में बेचते थे. धीरे-धीरे यूरोप को भारत की जानकारी तो हुई लेकिन उन्हें भारत आने का समुद्री मार्ग पता नहीं था. हिन्दुस्तान के लिए इसी समुद्री रास्ते की खोज में निकले इटली निवासी क्रिस्टोफर कोलंबस दरिया में भटकते-भटकते अमेरिका पहुंच गए. कोलंबस को लगा यही भारत है.
37 की उम्र में सोने की चिड़िया खोजने निकला वास्को डी गामा
कोलंबस की गलतियों से सबक लेकर पुर्तगाल का एक नाविक वास्को डी गामा 8 जुलाई 1497 को उस हिन्दुस्तान का समुद्री रास्ता खोजने निकला जिसे तब की दुनिया सोने की चिड़िया कहा करती थी. 1460 ईस्वी में पैदा हुआ वास्को डी गामा मात्र 37 साल की उम्र में 170 नाविकों के दल के साथ और चार जहाज लेकर लिस्बन से रवाना हुआ. लगभग 10 महीने बाद वह हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा करते हुए 20 मई 1498 को वह दक्षिण भारत के कालीकट के तट पर पहुंचा. केरल में मौजूद कालीकट को आजकल कोझिकोड़ कहा जाता है.
काली मिर्च ले गए और हरी मिर्च दे गए
यूरोपियन शुरू से ही धंधे में चालाक रहे हैं. वास्को डी गामा नाविक के अलावा व्यापारी भी था. उसे भारत से कुछ खरीदना था तो अपना माल भी उसे यहां खपाना था. इसलिए वो यहां हरी मिर्च लेकर आया. जबकि काली मिर्च लेकर गया. मिर्च मुख्य रूप से दक्षिण अमेरिका की फसल है. पुर्तगालियों की कॉलोनियां वहां भी थीं. वहीं से पुर्तगाली इसे अपने देश में लाए. वास्को डी गामा पुर्तगाल से मिर्च लेकर भारत आया और यहां से काली मिर्च लेकर गया.
एक 'गलती' जरूर दुरुस्त कर लें
यहां एक एतिहासिक गलती को दुरुस्त करना जरूरी है. हमें अक्सर बताया जाता है कि वास्को डी गामा ने भारत की खोज की. ये हास्यास्पद है. वास्को डी गामा ने यूरोप से भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज की, न की भारत की खोज की. केप ऑफ गुड होप के जरिए वास्को डी गामा की ये यात्रा इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण है. इसी रूट की वजह से एशिया पर यूरोपियन साम्राज्यवाद का रास्ता खुल गया. वास्को डी गामा की ये खोज के भारत में मुस्लिम और क्रिश्चयन संघर्ष की शुरुआत और हिन्दुस्तान के समुद्री व्यापार पर मुस्लिमों के एकाधिकार के अंत का सूचक थी.
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वास्को डी गामा 29 अगस्त 1498 को वापसी की यात्रा पर निकला. वह कालीकट से पुर्तगाल के लिए रवाना हो गया. लेकिन वो भारत की समृद्धि देख चुका था. 1499 तक यूरोप में भारत की जानकारी लोगों को होने लगी. इस तरह से वास्को डी गामा भारत की जमीन पर कदम रखने वाला पहला पुर्तगाली था.
वास्को डी गामा की समुद्री यात्रा का रोमांच पीछे छोड़ एक बार फिर गोवा चलते हैं. साल 1510. गोवा पर आदिल शाही सत्ता कायम थी. Alfonso de Albuquerque 1509 ईस्वी में भारत का दूसरा वायसराय बनकर आया. इससे पहले 1505 में ही गोवा के दक्षिण में स्थित कोचीन में पुर्तगाल ने सत्ता स्थापित कर ली थी. पुर्तगाली भाषा में भारत पर इस देश की सत्ता को Estado da India यानी कि Portuguese State of India कहा जाता था.
जोशीले पुर्तगाली वायसराय की नजरें गोवा पर थी
लेकिन कोचीन में अपने बेस से पुर्तगाली संतुष्ट नहीं थे. जोशीले पुर्तगाली वायसराय अल्फोंसो डी अल्बुकर्क की नजरें गोवा पर थीं जो यह समझ चुका था कि अगर इस बंदरगाह शहर पर पुर्तगाल का कब्जा हो गया तो हिंद महासागर में पुर्तगाल की नौसेना और व्यापार के लिए उन्हें एक आदर्श स्थायी आधार मिल जाएगा. 1509 में पुर्तगाल दीव पर कब्जा कर चुका था. अल्फोंसो डी अल्बुकर्क के पास 23 जंगी जहाज और लगभग 1000 सैनिक थे. जनवरी 1510 में एक हिन्दू योद्धा ने अल्बुकर्क को समझाया कि वो गोवा पर आक्रमण करे. उस वक्त गोवा की सत्ता इस्माइल आदिल शाह के हाथों में थी जो कि अपने राज्य में ही विद्रोह को कुचलने में व्यस्त था. मौके का फायदा उठाकर अल्फोंसो डी अल्बुकर्क ने गोवा पर कब्जा कर लिया.
वास्को डी गामा: जिस शख्स ने भारत को पूरी दुनिया से मिलाया...
लेकिन 3 महीने बाद आदिल शाह 60 हजार सैनिकों के साथ फिर लौटा. इतनी बड़ी ताकत को देखते हुए अल्बुकर्क को पीछे हटना पड़ा. आदिल सेनाओं ने मई से अगस्त को अल्बुकर्क के जंगी जहाजों को समुद्र में ही घेरे रखा. लेकिन तब तक अल्बुकर्क को किस्मत एक बार फिर साथ दे गई. इसी समय पुर्तगाल के राजा की सेना मलक्का पर कब्जे के लिए जा रही था. बता दें कि यूरोपीय देशों के सारे समुद्री अभियान राजा के आदेश पर ही चलते थे. अल्बुकर्क ने इस सेना को गोवा की ओर मोड़ लिया और नवंबर में आदिल सेना पर जोरदार हमला किया. एक ही दिन में गोवा की सुरक्षा में लगी सेना ने सरेंडर कर दिया. आदिल शाह के सैकड़ों सैनिक मारे गए तो कुछ समंदर में बह गए.
गोवा के पतन के साथ भारत का औपनिवेशिक दुर्भाग्य शुरू हुआ
इस तरह से गोवा का पतन भारत को यूरोपियन ताकतों का उपनिवेश बनने में दूसरी महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुई. पहली कड़ी तो तब थी जब वास्को डी गामा ने पुर्तगाल से कालीकट तक का समुद्री रास्ता खोजा था. गोवा एशिया में पूरे पुर्तगाली साम्राज्य की राजधानी बन गया. साल 1510 में शुरू हुई गोवा की ये गुलामी 451 सालों के बाद 1961 में खत्म हुई. गोवा एशिया में यूरोपियनों का पहला और आखिरी किला बना. कुछ लड़ाइयां इतिहास के पन्नों में जाकर कितनी अहम हो जाती हैं, गोवा की लड़ाई इसका उदाहरण है.
तिजारत के लिफाफे में गुलामी का वारंट लेकर आए
आज इतिहासकारों की नजरों में गोवा पर कब्जे की लड़ाई इसके कुछ ही दिन बाद उत्तर भारत में हुई पानीपत की पहली लड़ाई (1526) से कम महत्वपूर्ण नहीं है. गोवा में जब पुर्तगालियों को पांव जमाने का मौका मिला तो फिर यूरोप और भारत के बीच तिजारत का लंबा सिलसिला शुरु हो गया. फिर ब्रिटिश आए, फ्रांसीसी आए, इन्होंने मुगलों से देश में तिजारत करने का हुकुनामा पाया और इसी तिजारत के लिफाफे में देश की गुलामी का वारंट लेकर आए.
...और ऐसे मिली गोवा को गुलामी से मुक्ति
15 अगस्त 1947 को जब इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के जरिए अंग्रेजों ने अपने कब्जे की जमीन भारत को सौंपने की घोषणा की तो देश आजाद हो गया. लेकिन तब भी गोवा को गुलामी से मुक्ति नहीं मिली. भारत का ये छोटा सा सुंदर राज्य पुर्तगाल के कब्जे में था. 1947 में भारत को स्वाधीनता मिलने के बाद पुर्तगाली सरकार ने अपने इलाकों को भारत को सौंपने से इनकार कर दिया. कूटनीतिक स्तर पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बार-बार पुर्तगाल से इन इलाकों को सौंपने का अनुरोध किया. लेकिन पुर्तगाली सरकार राजी नहीं हुई. पुर्तगालियों ने तर्क दिया कि जब उन्होंने गोवा पर कब्जा किया था तो भारत गणराज्य अस्तित्व में ही नहीं था.
पुर्तगाल नहीं माना तो भारत के सामने सैन्य कार्रवाई ही एक मात्र विकल्प था. उस वक्त दमन दीव भी गोवा का हिस्सा था. 2 अगस्त 1954 में गोवा की राष्ट्रवादी ताकतों ने दादर और नागर हवेली की बस्तियों पर कब्जा कर लिया और भारत समर्थित स्थानीय सरकार की स्थापना की. 1954 से 1961 तक दादर और नागर हवेली का प्रशासन नागरिकों की संस्था वरिष्ठ पंचायत ने संभाला. 1961 में दादर और नागर हवेली को केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया.
इसके बाद पुर्तगाल शासित बाकी प्रदेशों के लिए आर्थिक प्रतिबंध शुरू कर दिए गए. दादर और नागर हवेली छिनने के बाद पुर्तगाली बौखला गए. पुर्तगालियों ने बाकी इलाकों में सुरक्षा बढ़ा दी. पुर्तगाल ने अफ्रीकी देश अंगोला और मोजाम्बिक से और सेना बुलवाई. गोवा दमन और दीव में 8000 यूरोपियन, अफ्रीकन और भारतीय सैनिक तैनात कर दिए गए. दिसंबर 1961 में भारत के सामने गोवा को हासिल करने के लिए सैन्य कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया. इसी के साथ भारत ने ऑपरेशन विजय लॉन्च किया.
'शांतिप्रिय' भारत के हमले से पुर्तगाली घबराए
गोवा अभियान में एयर एक्शन की जिम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के जिम्मे थी. देखते ही देखते अरब सागर में भारतीय बमबर्षक विमान मंडराने लगे. भारतीय सेना ने 2 दिसंबर 1961 को 'गोवा मुक्ति' अभियान शुरू कर दिया. वायुसेना ने सटीक हमले किए और पुर्तगाली ठिकानों को नष्ट कर दिया. इधर दमन में पुर्तगालियों के खिलाफ मराठा लाइट इंफैंट्री ने मोर्चा संभाला.
वायुसेना के बमबर्षक विमानों ने पुर्तगालियों के ठिकाने मोती दमन किले पर हमला कर पुर्तगालियों के होश उड़ा दिए. दीव में राजपूत और मद्रास रेजिमेंट ने पुर्तगालियों पर हमला बोला. नौसेना के युद्धपोत आईएनएस दिल्ली ने पुर्तगाल के समुद्री किनारों पर हमला किया. पुर्तगाल को शांतिप्रिय भारत से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी,
19 दिसंबर, 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने सरेंडर कर दिया. इस तरह परतंत्रता के लंबे कालखंड के बाद गोवा और दमन दीव ने आजाद हवा में सांस ली और इस क्षेत्र से 451 साल पुराने औपनिवेशिक शासन का अंत हुआ. ऑपरेशन विजय में 30 पुर्तगाली सैनिक मारे गए थे, जबकि 22 भारतीय जवानों ने गोवा को शहीद कराने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए. रिपोर्ट के मुताबिक इस ऑपरेशन में 57 पुर्तगाली सैनिक जख्मी हुए थे, जबकि जख्मी भारतीय सैनिकों की संख्या 54 थी.