बेतहाशा धुआं उगलते एक के एक बाद कई कारख़ानों और खटर-खटर की आवाज़ करते कपड़ा मीलों के बीच एक सड़क निकलती है. यह सड़क आपको लेकर जाती है-बडोद गाम. सूरत के इस इलाक़े में ऐसी 20 बस्तियां हैं, जिनमें बसते हैं वो लोग जिनकी मेहनत से चलती हैं यहां की कपड़ा मीलें और सूरत को मिलती है उसकी पहचान.
यहां आपको यह बताते चलें कि गुजरात का यह व्यावसायिक शहर हीरे की कटिंग, पॉलिशिंग के अलावे अपने कपड़ा उद्योग के लिए भी देश-दुनिया में जाना जाता है. पूरे देश में करीब 21 लाख पावरलूम्स हैं. वहीं कपड़ों की राजधानी सूरत शहर में ही अकेले 8 लाख पावरलूम्स हैं और इनमें काम करते हैं क़रीब दस लाख मज़दूर.
दस लाख में से ज़्यादातर मज़दूर बडोद गाम के भगवती नगर जैसी 19 अन्य बस्तियों में बसते हैं. जहां न तो सूरज की रौशनी क़ायदे से पहुंचती है और न ही सरकारी नलके का पानी. इन मजदूरों में ज्यादातर मजदूर यूपी, बिहार और झारखंड से है. यहां से दाल-रोटी कमाने आए मज़दूरों का हाल जानने के लिए हम भगवती नगर बस्ती में पहुंचे.
दोपहर बाद का समय है. इधर मौसम, दिल्ली की तुलना में गरम है. धूल-धूसित सड़क पर बच्चे खेलने में मग्न हैं. कोई साइकल का टायर घुमा रहा है तो कोई बाहर लगे नलके में मुंह लगाकर बिना प्यास के पानी पी रहा है. बस्ती में कोई आदमी नहीं हैं. पूछने पर मालूम चला कि सबके सब मील में हैं. महिलाएं हैं. कुछ महिलाएं ठेले पर साग-सब्ज़ी बेचने आई महिला से मोल-भाव कर रही हैं, तो ज़्यादातर अपने-अपने कमरे के बाहर बैठकर लहंगा-दुपट्टा में जरी चिपका रही हैं.
भगवती देवी भी अपने एक कमरे वाले घर के मुहाने पर बैठे-बैठे यही काम कर रही हैं. यह पूछने पर की उन्हें यहां क्या परेशानी है वो लगभग फूट पड़ती हैं. कहती हैं, ‘एक कमरे का किराया चौदह-पंद्रह सौ है. बारह-बारह घंटे काम करते हैं, तब भी पैसे पूरे नहीं पड़ते हैं. नरेंदर मोदी (नरेंद्र मोदी ) उसके लिए कुछ नहीं करता है जो परदेस से हियाँ (यहाँ) रोज़ी-रोटी कमाने आया है.’
एक लहंगा-दुपट्टा पर स्टोन (जरी) चिपकाने के बदले इन्हें सौ रुपया मिलता है और इसमें इन्हें दो से तीन दिन का समय लगता है. महिलाओं के साथ-साथ छोटे लड़कें और लड़कियां भी यह काम कर रही हैं. यहां पास में कोई सरकारी स्कूल नहीं है, इसलिए ज़्यादातर बच्चे-बच्चियां पढ़ने नहीं जाते हैं.
बस्ती के मर्द आसपास के मीलों में काम करते हैं. कोई वहां गार्ड है. कोई कपड़ा रंगने वाला है तो कोई कपड़ा बनाने वाला. बस्ती के राजनंदन राम भी ऐसे ही एक मील में माल ढुलाई का काम करते हैं और उन्हें रोज़ के हिसाब से तीन सौ रूपए मिलते हैं. पूछने पर वो बतलाते हैं. ‘दस से बारह घंटे की ड्यूटी होती है. एक तरह से दिहाड़ी मज़दूरी समझिए. काम बहुत होता है. रहने का आप देख ही रहे हैं लेकिन यही अच्छी बात है कि रोज़ काम मिल जाता है. अगर किसी दिन बीमार पड़े तभी नहीं जाते हैं।’
बस्ती बड़ी है. आगे बढ़ने पर हमें एक अंधेरे कमरे में लड़के-लड़कियां पढ़ते हुए दिखे. क़रीब जाने पर पता चला कि बस्ती में ही रहने वाले बिपिन सिंह की ट्यूशन क्लास चल रही है. छोटे से कमरे में पैंतीस बच्चे बैठे हैं. हर बच्चे से उन्हें डेढ़ सौ रुपया फ़ीस मिलता है, यहां जो स्कूल सबसे पास में है वो है सिद्धार्थ नगर में स्थित सरकारी स्कूल और उसकी दूरी है तीन किलोमीटर जो ये बच्चे पैदल तय करते हैं. बस्ती के दूसरे छोर पर एक सिनेमा हॉल भी है. सिंगल स्क्रीन वाला. हॉल में भोजपुरी की 'मुक़द्दर' फ़िल्म लगी है.