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गुजरात में कौन पड़ेगा भारी? BJP का ‘विकास मंत्र’ या कांग्रेस का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’

18 दिसंबर को गुजरात में सियासी ऊंट किस करवट बैठता है ये तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता लेकिन ये साफ है कि नतीजा जो भी आएगा वो 2019 के लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा जरूर कुछ हद तक तय करेगा. 

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गुजरात चुनाव
गुजरात चुनाव

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नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे तो बीजेपी देश भर में गुजरात के विकास मॉडल की दुहाई देते नहीं थकती थी. इसी गुजरात विकास मॉडल के रथ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी ने 2014 में दिल्ली की गद्दी को फतह कर लिया. साथ ही मोदी का कद इतना बड़ा हो गया कि उसकी छाया के नीचे पूरी बीजेपी ही दब कर रह गई. इसे राजनीतिक विडंबना ही कहा जाएगा कि चुनावी राजपथ पर जो विकास का घोड़ा 2014 में मोदी के लिए सरपट दौड़ा था, अब उसी के लिए गुजरात में ही कहा जा रहा है- ‘विकास गांडो थायो छे’ यानी ‘विकास पागल हो गया है’. गुजरात में विधानसभा चुनाव से पहले ‘विकास गांडो थायो छे’ की गूंज इतनी जोर से सुनाई देने लगी कि मोदी को खुद ही गुजरात में आकर कहना पड़ा- 'हूं विकास छुं, हूं गुजरात छुं' यानी ‘मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं.’

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मोदी की गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी को पांच महीने भी पूरे नहीं हुए थे कि 2002 में गोधरा की घटना के बाद राज्य ने हिंसा का भीषण दौर देखा. यहीं से ‘हिन्दुत्व’ का ऐसा ज्वार उठा कि ‘मोदी युग’ ने मजबूती से गुजरात में पैठ बना ली. लेकिन शीघ्र ही मोदी का ‘वाइब्रेंट गुजरात’ जैसे रणनीतिक दांवों से ‘विकास पुरुष’ के तौर पर ऐसा मेकओवर हुआ कि उन्हें ‘विकास के सबसे बड़े चेहरे’ के तौर पर पेश किया जाने लगा.

मोदी ने करीब साढ़े 12 साल गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के बाद 2014 में केंद्र का रुख किया. गुजरात विधानसभा का जो आखिरी चुनाव 2012 में हुआ था वो मोदी की अगुआई में लड़ा गया. ऐसे में 2017 में गुजरात विधानसभा का चुनाव जो लड़ा जा रहा है, वो 2002 के बाद पहला मौका है, जब राज्य में मोदी के बिना बीजेपी नेतृत्व की परीक्षा है. ये बात मोदी भी अच्छी तरह जानते हैं. इसीलिए ये चुनाव उनके लिए खुद भी साख का सवाल बन गया है. इसलिए मोदी और उनके मास्टर रणनीतिकार अमित शाह गुजरात में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. यही वजह है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के प्रचार के लिए मोदी ताबड़तोड़ रैलियां करेंगे.

जहां तक मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की बात है तो वो पिछले 22 साल से गुजरात में सत्ता से बाहर है. मोदी के केंद्र की सत्ता में होने के साथ कांग्रेस ने गुजरात बीजेपी के नेताओं के अंतर्विरोधों, सत्ता विरोधी लहर, हार्दिक पटेल-अल्पेश ठाकोर-जिग्नेश मेवाणी की युवा तिकड़ी के आंदोलनों से उपजे जनाक्रोश के दम पर गुजरात की सत्ता में वापस आने की जो उम्मीदें पाली हैं, पार्टी जानती है कि मोदी-शाह की जोड़ी उन्हें आसानी से परवान नहीं चढ़ने देगी. कांग्रेस भी सारे राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन करने के बाद ही चुनावी चौसर पर पूरी सावधानी से अपने दांव खेल रही है.

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करीब ढाई दशक से गुजरात में हाशिए पर खड़ी कांग्रेस के लिए ये चुनाव ‘करो या मरो’ की स्थिति वाला है. कांग्रेस जानती है कि इस चुनाव के भी वैसे ही नतीजे आए जैसे कि 1995 के बाद से गुजरात विधानसभा के हर चुनाव के आते रहे हैं तो कांग्रेस के राज्य में वजूद पर ही सवालिया निशान लग जाएगा.

कांग्रेस गुजरात में कैसे फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है, इसका सबूत इसी से मिलता है कि वो ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती जिससे कि बीजेपी को उस पर ‘हिन्दुत्व’ का जाना-परखा ‘चुनावी रामबाण’ दागने का मौका मिल जाए. खुद को ‘सेक्युलरिज्म’ का सबसे बड़ा अलंबरदार बताती आई कांग्रेस मुंह से बेशक ना कहे लेकिन गुजरात में इस बार रणनीतिक तौर पर ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की लाइन पकड़े दिखाई दे रही है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनावी बिगुल बजाने के लिए सौराष्ट्र में रोड शो शुरू किया तो पहले द्वारिकाधीश के सामने शीश नवाया. फिर चोटीला में मां चामुंडा के दर्शन किए. मध्य गुजरात के दूसरे दौरे में संतराम मंदिर, भाथीजी मंदिर जाकर माथा टेका.

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस सोची-समझी रणनीति के तहत अपने वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद अहमद पटेल को भी गुजरात के इस चुनाव से दूर दिखाने की कोशिश कर रही है. सब जानते हैं कि हाल में हुए राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल ने किस तरह अमित शाह की तमाम किलेबंदी को ध्वस्त करते हुए जीत हासिल की थी. कांग्रेस बेशक अहमद पटेल को गुजरात विधानसभा चुनाव से दूर रख रही है, लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने सूरत में गिरफ्तार हुए दो कथित आतंकियों को लेकर 27 अक्टूबर को जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की, उसमें अहमद पटेल का नाम लेकर जरूर कांग्रेस को बैकफुट पर ले जाने की कोशिश की. रूपाणी ने आरोप लगाया कि गिरफ्तार किए गए दो कथित आतंकियों में से एक अंकलेश्वर के सरदार पटेल अस्पताल का कर्मचारी था, जिससे अहमद पटेल जुड़े रहे हैं. रूपाणी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी से अहमद पटेल का इस्तीफा लेने की मांग भी की.

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रूपाणी के इस बाउंसर का जवाब देने के लिए अहमद पटेल के साथ कांग्रेस को भी सामने आना पड़ा. अहमद पटेल ने ट्वीट में कहा कि बीजेपी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर राजनीति नहीं करे. साथ ही कहा कि आतंकवाद से लड़ते हुए बीजेपी गुजरात के शांतिप्रिय लोगों को ना बांटे. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने भी अहमद पटेल का जोरदार बचाव करते हुए कहा कि जिस अस्पताल की बात बीजेपी कर रही है, उससे अहमद पटेल ने 2014 में ही इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद उनका इस अस्पताल से कोई जुड़ाव नहीं रहा. ऐसे में अगर कोई किसी आरोप में पकड़ा जाता है तो उसके लिए साल 2014 के अस्पताल के ट्रस्टी को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

ये राजनीति का कंट्रास्ट ही है कि बीजेपी ने 2007 और 2012 में गुजरात का विधानसभा चुनाव जिस विकास की कश्ती पर सवार होकर जीता, उसी ‘विकास’ को लेकर सोशल मीडिया में बीजेपी पर सबसे ज्यादा तंज कसे जा रहे हैं. इस स्थिति को भुनाने के लिए कांग्रेस ने भी पूरे घोड़े खोल रखे हैं. कांग्रेस पाटीदार, ओबीसी और दलित कार्ड के साथ सॉफ्ट हिंदुत्व का दांव भी बड़े सधे अंदाज में खेल रही है.

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक 2002 के बाद बीजेपी की गुजरात में कोशिश यही जताने की रही कि कांग्रेस तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए सिर्फ अल्पसंख्यकों, खास तौर पर मुस्लिमों के बारे में ही सोचती है और हिन्दुओं की बेहतरी के बारे में सोचना उसके एजेंडे में नहीं है. राजनीतिक जानकार कहते हैं कि ये संदेश देकर एक तरह से बहुसंख्यकों को ये डर दिखाया जाता रहा, वो तय कर लें कि कांग्रेस गुजरात की सत्ता में वापस आ गई तो किसके हित के लिए काम करेगी.

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कांग्रेस भी इस राजनीतिक गुणाभाग को समझते हुए अपनी ओर से ऐसा कोई कदम नहीं उठा रही, जिससे कि बीजेपी को उस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगा कर प्रहार करने का मौका मिले. राहुल गांधी के गुजरात जाकर मंदिरों में माथा टेकने के निहितार्थ समझे जा सकते हैं. राहुल और कांग्रेस की गुजरात में कोशिश सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन पर चलकर उस छवि को तोड़ने की है जिसे बीजेपी ने उसके लिए गढ़ा. राहुल की सारी मशक्कत का युवा वर्ग में पार्टी की छवि बदलने के लिए कुछ फायदा होता भी दिख रहा है.

गुजरात के कुल वोटरों में से 60 फीसदी 40 की उम्र के नीचे हैं. कांग्रेस गुजरात के युवा वोटरों में पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी की कितनी अहमियत है, इसे भी बखूबी समझती है. इसलिए वो बीजेपी के खिलाफ आक्रोश को भुनाने के लिए इस तिकड़ी को हर हाल में अपने साथ जोड़े रखना चाहती है. अल्पेश तो कांग्रेस में ही शामिल हो गए हैं, वहीं जिग्नेश दलित समुदाय की ओर से कांग्रेस समर्थन की खुले तौर पर बात कह चुके हैं. हालांकि पाटीदार नेता हार्दिक पटेल को साधना कांग्रेस के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो रही है. हार्दिक ने दो टूक कहा है कि कांग्रेस 7 नवंबर तक साफ कर दे कि वो कैसे पाटीदारों को आरक्षण देगी. अगर ऐसा नहीं किया तो उसका भी हाल वही होगा जैसे कि सूरत में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ हुआ था.

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यहां ये बताना भी जरूरी है कि गुजरात में युवा वोटरों में बड़ा तबका भी ऐसे युवाओं का है जिन्होंने बीते 22 साल में बीजेपी को ही गुजरात में राज करते देखा है. जिस विकास की बात हमेशा नरेंद्र मोदी और बीजेपी की ओर से की जाती रही है, उसी की काट में बेरोजगारी, शिक्षा के निजीकरण, शराबबंदी के बावजूद शराब की अवैध बिक्री, कर्ज के बोझ की वजह से किसानों की बदहाली, फसल के सही दाम ना मिलने जैसे मुद्दे जाति की राजनीति करने वाले युवा नेताओं की ओर से उठाए जा रहे हैं. और काफी हद तक इन युवा नेताओं की बातों का उनके समर्थकों पर असर भी हो रहा है.

देखना होगा कि बीजेपी के लिए गुजरात में उसका जाना-परखा विकास का मंत्र इस विधानसभा चुनाव में भी कारगर रहता है या नहीं, जिसके लिए मोदी को खुद ही आगे बढ़ कर कहना पड़ रहा है, ‘मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं.’ या फिर कांग्रेस युवा तिकड़ी को अपनी नाव पर साथ लेकर सॉफ्ट हिंदुत्व की पतवार से गुजरात की चुनावी धारा का रुख 22 साल बाद अपनी ओर मोड़ने में कामयाब रहती है.

18 दिसंबर को गुजरात में सियासी ऊंट किस करवट बैठता है ये तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता लेकिन ये साफ है कि नतीजा जो भी आएगा वो 2019 के लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा जरूर कुछ हद तक तय करेगा.

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