गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस लगातार बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में जुटी हुई है. इसी रणनीति के तहत कांग्रेस पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को एकसाथ अपने पाले में लाना चाहती है, लेकिन इन नेताओं के आपसी टकराव ने पार्टी के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं.
इसके चलते कांग्रेस पाटीदार, ओबीसी और दलित वोटों को भुनाने की अपनी रणनीति में सफल होती नजर नहीं आ रही है. कांग्रेस एक नेता को साधती है, तो दूसरा गच्चा देने लगता है. तीनों नेता एक साथ कांग्रेस के पक्ष में पूरी तरह आते नहीं दिख रहे हैं यानी इन नेताओं के बीच दरार के चलते नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है.
अल्पेश ठाकोर ने दूसरी बार कांग्रेस ज्वाइन किया है, तो हार्दिक पटेल अब भी छिटकर रहे हैं. इसके अलावा जिग्नेश मेवाणी ने मुख्य विपक्षी पार्टी को समर्थन देने की बात कही है यानी उनका अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि वो किसको समर्थन देंगे.
दिलचस्प बात यह है कि गुजरात चुनाव में काफी अरसे के बाद जातिवाद फैक्टर देखने को मिल रहा है. अगर इतिहास पर निगाह डालें, तो 1980 के दशक के बाद से गुजरात चुनाव में जातिवाद कभी देखने को नहीं मिला था. इस बार गुजरात चुनाव में जातिवाद कुछ ज्यादा ही हावी है. लिहाजा राजनीतिक दल भी इसमें अपनी निगाह गड़ाए हुए हैं.
गुजरात में पाटीदार समुदाय की आबादी 12 फीसदी से ज्यादा है, जिसके चलते चुनाव में इनकी अहम भूमिका रहती है. हालांकि इस बार न सिर्फ पाटीदार नहीं, बल्कि ओबीसी और दलित समुदाय भी एकजुट हो गए हैं. ऐसे में इनमें से किसी एक के छिटकने से वोटों का बंटना तय माना जा रहा है.
हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश के हितों में टकराव
हार्दिक पटेल की मांग है कि पाटीदार समुदाय को ओबीसी कटेगरी में शामिल किया जाए, जबकि अल्पेश ठाकोर का का कहना है कि मौजूदा ओबीसी कोटे में पाटीदार समुदाय को जगह नहीं दी जा सकती है. मतलब साफ है कि एक साथ दोनों नेताओं की विरोधाभाषी मांगों को पूरा नहीं किया जा सकता है. इसकी वजह यह भी है कि अदालतें पहले ही आरक्षण कोटा बढ़ाने के खिलाफ फैसले सुना चुकी हैं. अगर जातिगत समीकरणों को देखा जाए, तो पाटीदार समुदाय और ओबीसी समुदाय पर दलित समुदाय का उत्पीड़न करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में दलित समुदाय के पाटीदार और ओबीसी समुदाय के साथ आने की संभावना कम हो जाती है.
कांग्रेस पाटीदार और ओबीसी को साधने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन ये बीजेपी के पाले में फिर जा सकते हैं. इससे पहले 1985 में कांग्रेस ने इसी तरह क्षत्रिय, हरिजन (दलित), आदिवासी और मुस्लिमों को एक साथ लाने के लिए KHAM फॉर्मूला अपनाया था. इसमें पाटीदार समुदाय को दरकिनार कर दिया गया था, जो उनको नाराज कर दिया था. हालांकि 1985 के चुनाव में कांग्रेस ने 182 में से 149 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इसके बाद पाटीदार वोट बीजेपी के पाले में चला गया था, तब से कांग्रेस इनका समर्थन नहीं मिला.