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ये हैं वो 10 बड़े कारण जिनसे गुजरात में फिर डूब गई कांग्रेस की लुटिया

सवाल उठता है कि 22 साल की एंटी इनकम्बेंसी और जीएसटी-नोटबंदी से व्यापारियों की कथित नाराजगी के बाद भी आखिर कांग्रेस क्यों नहीं गुजरात का भरोसा जीत पाई? राज्य में क्यों उसे मिली हार? इन सवालों के जवाब में 10 कारण सामने आते हैं.

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राहुल गांधी
राहुल गांधी

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गुजरात में एक बार फिर बीजेपी की सरकार बनने जा रही है. राहुल गांधी के साथ हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकुर की तिकड़ी की अथक मेहनत के बाद भी बीजेपी राज्य में लगातार छठी बार सत्ता में आ रही है. सवाल उठता है कि 22 साल की एंटी इनकम्बेंसी और जीएसटी-नोटबंदी से व्यापारियों की कथित नाराजगी के बाद भी आखिर कांग्रेस क्यों नहीं गुजरात का भरोसा जीत पाई? राज्य में क्यों उसे मिली हार? इन सवालों के जवाब में 10 कारण सामने आते हैं.

1. गुजराती अस्मिता

पीएम मोदी गुजराती अस्मिता के प्रतीक बन गए हैं. राज्य के लोग इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि उनके बीच का एक गुजराती देश का प्रधानमंत्री है. इसलिए पीएम मोदी ने जब गुजरातियों से अपने बेटे को जिताने की भावुक अपील की, तो राज्य के लोगों को इससे प्रभावित होना ही था. चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में की गई मोदी की अपील से गुजराती अस्मिता को लेकर संवदेनशील गुजरातियों ने बीजेपी का साथ देना उचित समझा.

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2. हिंदी बनाम गुजराती

राहुल गांधी ने मेहनत तो बहुत की, लेकिन वे बाहरी होने और हिंदी भाषी होने की वजह से गुजरातियों से उस तरह से कनेक्ट नहीं हो पाए, जैसे कि पीएम मोदी. मोदी ने अपने सभी भाषण गुजराती में दिए जिससे स्वाभाविक रूप से ज्यादा से ज्यादा गुजरातियों तक वो अपनी बात पहुंचा पाए. दूसरी तरफ, राहुल गांधी हिंदी में भाषण दे रहे थे, जिसकी वजह से उनके भाषणों का मोदी के तुलना में ज्यादा असर नहीं रहा.

3. कांग्रेस का जाति कार्ड फेल

राज्य में कांग्रेस ने पाटीदार आंदोलन का समर्थन कर जाति कार्ड खेलने की पूरी कोशिश की. ऐसा लगता था कि अब तक जो गुजरात विकास और धार्मिक विभाजन के लिए जाना जाता था, अब वहां जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति चलेगी. लेकिन नतीजों से ऐसा लगता है कि कांग्रेस की यह रणनीति कारगर नहीं हो पाई. खासकर अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवाणी अपनी सीट तो किसी तरह जीत गए लेकिन वो कांग्रेस के समर्थन में कोई बड़ा जातीय ध्रुवीकरण करने में नाकाम रहे.

4. मणिशंकर अय्यर एवं कपिल सिब्बल

मणिशंकर अय्यर द्वारा ऐन चुनाव अभियान के बीच पीएम मोदी को 'नीच' कहना और कपिल सिब्बल द्वारा राम मंदिर मामले की पैरवी में मामले को आगे टालने की अपील करना भी कांग्रेस के लिए भारी पड़ गया. पीएम मोदी ने अय्यर के इस बयान को लपक लिया और गुजरात के चुनाव अभियान में इस मसले को जमकर उठाया और इसे अपनी गरीबी और जाति से जोड़ दिया. राज्य की जनता मोदी का अपमान बर्दाश्त नहीं करती ये सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले बयान से 2007 में ही साफ हो गया था. 10 साल बाद फिर वही कहानी दोहराई गई. 

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5. सीएम नेता का अभाव

कांग्रेस कोई दमदार सीएम चेहरा नहीं पेश कर पाई. राज्य के दिग्गज नेता शंकर सिंह वाघेला पार्टी से बाहर हैं. कांग्रेस में शक्ति सिंह गोहिल, अुर्जन मोढवाडिया  जैसे नेता थे, लेकिन वो खुद ही चुनाव नहीं जीत पा रहे. भरत सिंह सोलंकी ने तो चुनाव भी नहीं लड़ा. जाहिर है विजय रूपाणी के सामने कांग्रेस की ओर से कोई नहीं था. ऐसे में मुकाबला सीधे मोदी बनाम राहुल हो गया जिसमें राहुल कहीं नहीं टिक पाए.

6. राहुल गांधी पर भरोसा कम

राज्य की जनता में बीजेपी से भले ही कुछ नाराजगी थी, लेकिन वह पीएम मोदी के मुकाबले राहुल गांधी पर भरोसा कम कर पाई. राहुल गांधी को अब तक अनिच्छुक राजनीतिज्ञ माना जाता रहा है और उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है. इन चुनावों में राहुल ने अपनी छवि सुधारी लेकिन वो मोदी के मुकाबले ज्यादा भरोसेमंद नहीं बन पाए इसलिए लोगों ने कांग्रेस की बजाय बीजेपी को ही चुना.

7. धार्मिक धु्वीकरण और राष्ट्रवाद

कांग्रेस के जातीय ध्रुवीकरण की तुलना में बीजेपी ने धार्मिक ध्रुवीकरण की अपनी पुरानी परिपाटी को इस बार भी आजमाया. गुजरात में कोई भी चुनाव हो यहां मसला हिंदू-मुसलमान का हो जाता है. राम मंदिर मुकदमे को टालने की कपिल सिब्बल की कोशिश से जहां हिंदू एकजुटता को बढ़ावा मिला, वहीं मणिशंकर अय्यर के घर हुई मीटिंग के खुलासे के बाद नरेंद्र मोदी ने बड़ी चालाकी से यह प्रचारित करना शुरू किया कि पाकिस्तान भी गुजरात में बीजेपी को हराना चाहता है. यही नहीं, जम्मू-कश्मीर के नेता सलमान निजामी के तमाम पुराने ट्वीट को प्रचारित कर बीजेपी ने यह साबित करने की कोशि‍श की कि कांग्रेस के नेता देश विरोधी तत्वों का समर्थन करते हैं. इससे देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना ने जोर पकड़ा और वोटर कांग्रेस से नहीं जुड़ पाए.  

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8. शुरुआती प्रचार के बाद पिछड़ी कांग्रेस

कांग्रेस का प्रचार अभियान शुरू में तो काफी जोरदार रहा, लेकिन बाद में जब पीएम मोदी ने अपना प्रचार अभियान तेज किया तो, राहुल गांधी इस रेस में पिछड़ गए. लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार हुआ है कि बीजेपी ने किसी राज्य के लिए इतनी मेहनत की है. गुजरात की सभी 182 सीटों को मोदी ने छूने की कोशिश की और 34 रैलियां कीं. कांग्रेस के 'विकास पागल है' अभियान को भी शायद इसलिए ज्यादा स्वीकार्यता नहीं मिल पाई, क्योंकि गुजरातियों का तो विकास पर भरोसा है ही.

9. जीएसटी-नोटबंदी का असर नहीं

ऐसा लगता है कि गुजरात का व्यापारी जीएसटी एवं नोटबंदी से परेशान और नाराज जरूर था, लेकिन जब वोट देने की बात आई तो वह बीजेपी को छोड़ नहीं पाया. असल में व्यापारी समुदाय परंपरागत रूप से बीजेपी का वोटर रहा है. सूरत में तमाम व्यापारी मीडिया से बातचीत में ऐसे संकेत भी दे रहे थे कि वे जीएसटी और नोटबंदी पर भले मोदी सरकार से नाराज हों, लेकिन वोट के दिन उनका मन बदल सकता है और शायद ही वे कांग्रेस को वोट दे पाएं.

10. कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व

चुनाव के मौके पर राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर घूमना और पार्टी द्वारा उन्हें 'जनेऊधारी ब्राह्मण' बताना जनता को रास नहीं आया. ऐसा माना जा रहा है कि इस बार कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड खेलने की कोशिश की और इसीलिए उसने अपने कोर वोटर मुसलमानों की कोई चर्चा भी नहीं की. लेकिन इन सबको कांग्रेस की चालबाजी ही समझा गया और जनता इसको मन से स्वीकार नहीं कर पाई.

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