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गुजरात: 40 हत्याएं... 40 अपहरण और दाऊद को मारने की कोशिश, कहानी अब्दुल लतीफ की

गुजरात में 1980 का दशक अब्दुल लतीफ का था. गरीब परिवार में पला-बढ़ा था, पैसों की कमी थी. कम उम्र में ही उसने अपराध की दुनिया में कदम रख दिया. पहले शराब कारोबारी, फिर हथियारों की तस्करी और आखिर में आतंकवाद की दुनिया में दस्तक. लतीफ का गुजरात में ऐसा खौफ था कि उसे राज्य का 'दाऊद इब्राहिम' कहा जाता था.

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गैंगस्टर अब्दुल लतीफ की कहानी
गैंगस्टर अब्दुल लतीफ की कहानी

गरीब परिवार में बड़ा हुआ, पैसों की तंगी ने संघर्ष कराया और फिर बड़े सपनों ने अंडरवर्ल्ड का किंग बना दिया. इसे गुजरात का दाऊद कहा जाता था. 40 हत्याओं में शामिल...40 अपहरण में आरोपी, हर कोई इसके नाम से भी खौफ खाता था. हम बात कर रहे हैं अब्दुल लतीफ की. वो अब्दुल लतीफ जिसने शराब के अवैध कारोबार से अपना सिक्का जमाया और फिर आतंकवाद की दुनिया तक में कदम रख दिया.

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अब्दुल लतीफ का शुरुआती जीवन

अब्दुल लतीफ का जन्म साल 1951 में गुजरात के दरियापुर इलाके में हुआ था. वो मुस्लिम बहुल इलाका था और ज्यादा विकसित भी नहीं था. अब्दुल के पिता वहाब शेख तंबाकू बेचने का काम करते थे. उसी धंधे के दम पर उन्हें सात बच्चों का पेट पालना था. पैसों की घर में भारी कमी थी, इस वजह से अब्दुल लतीफ स्कूल के बाद अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सका. उसने अपनी 12वीं तो पूरी की, लेकिन फिर पढ़ाई से नाता टूट गया. सबसे पहले अब्दुल ने अपने परिवार की मदद के लिए पिता के साथ ही बिजनेस करने का फैसला किया. तब उसके पिता उसे रोज के 2 रुपये दिया करते थे. लेकिन जब भी अब्दुल और पैसे मांगता, घर में झगड़े होते और तनाव का माहौल बना रहता. ऐसे में बढ़ते क्लेश को देखते हुए अब्दुल ने अपनी जिंदगी का पहला बड़ा फैसला किया. 80 के दशक में उसने कालूपुर ओवरब्रिज के पास देशी शराब बेचने का काम शुरू कर दिया. कुछ समय तक तो अब्दुल, अल्ला रक्खा नाम के एक अपराधी के साथ शराब बेचने का काम करता रहा, लेकिन फिर समय के साथ उसने खुद का ही धंधा शुरू कर दिया.

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अपराध की दुनिया में कैसे कदम रखा?

बड़ी बात ये थी कि उस समय भी गुजरात में शराब पर बैन था, ऐसे में दूसरे राज्यों से शराब का जुगाड़ किया जाता था. अब जो भी गैंग शराब लाने का काम करती थी, उसे बढ़िया मुनाफा मिलता. अब्दुल लतीफ को इस धंधे की पूरी समझ लग गई थी, उसे पता था कि यहां अगर लंबे समय तक टिक गया तो उसके पास पूरी जिंदगी पैसों की कोई कमी नहीं होगी. अब अब्दुल लतीफ को पैसों का तो शौक था ही, हिंसा के प्रति भी उसका अलग ही रुझान रहता. उसकी आदतें, उसका गुस्सा उसे हिंसा की ओर धकेल रही थीं. बस इसी वजह से कुछ समय बाद ही लतीफ ने अपने कारोबार का विस्तार किया और हथियारों की तस्करी भी करने लगा. उसने इस काम के लिए हथियार सप्लाई करने वाले शरीफ खान से हाथ मिलाया. इसके साथ-साथ फिरौती के लिए अपहरण, वसूली जैसे कामों में भी लतीफ सक्रिय हो गया. वो समय के साथ खुद एक मंजा हुआ अपराधी बन गया.

दाऊद इब्राहिम से कैसे हुई लतीफ की दुश्मनी?

अब्दुल लतीफ की एक बड़ी खासियत थी. वो कभी भी सामने से आकर हमला करने में विश्वास नहीं रखता था. गुजरात में कहने को उस जमाने में कई गैंगवार हुईं, लेकिन लतीफ खुद कभी सामने नहीं आया. वो छोटे-मोटे गैंग में फूट डालता था, फिर उनके साथियों को अपने साथ मिला लेता. उसने ऐसा कर अहमदाबाद से बाहर निकल पूरे गुजरात में अपना नेटवर्क मजबूत कर लिया था. 80 के दशक में लतीफ की ताकत इतनी गुना बढ़ चुकी थी, उसकी दुश्मनों की लिस्ट में दाऊद इब्राहिम का नाम भी शामिल हो गया था. 

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अब दाऊद के साथ भी लतीफ ने अलग ही पंगा लिया था. असल में एक दिन अहमदाबाद में लतीफ पठान गिरोह के दो बदमाशों से मिला था. उनका नाम था अमीन खान और आलम खान. इन दोनों का ही दाऊद से झगड़ा चल रहा था. एक सोने की खेप को लेकर दोनों के बीच तकरार थी. उसी तकरार में पठान गिरोह ने दाऊद के बड़े भाई सबीर इब्राहिम को मार दिया था. अब हुआ ये कि सोची समझी रणनीति के तहत लतीफ ने पठान गिरोह के उन दोनों साथियों को पनाह दी और खुद अंडरवर्ल्ड का हिस्सा बन गया. इस तरह उसकी दाऊद इब्राहिम से दुश्मनी का सिलसिला शुरू हो गया.

इस दुश्मनी का सबसे बड़ा रूप तब देखने को मिला जब लतीफ के गुंडों ने दाऊद इब्राहिम को मारने की कोशिश कर दी. असल में कोफे पोसा (तस्करी विरोधी कानून) के तहत दाऊद को साबरमती सेंट्रल जेल में बंद रखा गया था. एक दिन उसकी पेशी होनी थी, उसे बड़ौदा की अदालत लेकर जाना था. अब्दुल लतीफ को इस बात की भनक लग गई थी, तो उसने अपने गुंडों को पहले ही तैयार कर दिया और बीच रास्ते में ही पुलिस की गाड़ी को रोका गया और ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी गई. उस फायरिंग में दाऊद खुद तो बच गया, लेकिन उसके दो गुर्गे बुरी तरह घायल हो गए. बस यहीं से दाऊद बनाम लतीफ की जंग तेज हो गई. 

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दाऊद से रिश्ते सुधरने की कहानी

अब एक तरफ उसकी ये जंग चलती रही तो दूसरी तरफ वो मुस्लिम इलाकों में गरीबों के बीच में मसीहा बनने का काम भी करता रहा. वो बेरोजगार युवाओं को अपनी गैंग में शामिल कर लिया करता था. उनको पैसे मिलते...उससे घर चलता तो लोकप्रियता लतीफ की बढ़ने लग जाती थी. इस वजह से लतीफ का राजनीतिक समर्थन भी बढ़ गया था. ये बात कम ही लोग जानते हैं कि अब्दुल लतीफ ने जेल में बंद रहते हुए 1985 का निकाय चुनाव लड़ा था. उसने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा और वो सभी सीटें जीतने में कामयाब हो गया. अब चुनावी जीत से राजनीतिक रुतबा तो बढ़ गया लेकिन दाऊद के साथ खूनी दुश्मनी ने कारोबार पर असर डालना शुरू कर दिया था.

इस बात का अहसास दाऊद को भी था, ऐसे में कहा जाता है कि सबसे पहले उसकी तरफ से शांति का एक प्रयास किया गया था. दाऊद ने 1989 में लतीफ को उसके गुर्गों के साथ दुबई आने का न्योता दिया था. जब दुबई पहुंचे तो वहां पर दोस्ती की बिसात बिछाई गई, एक दूसरे का साथ देने की कसमें खाई गईं. बस यहीं से दुश्मनी का दौर खत्म हुआ और अब्दुल लतीफ भी दाऊद का करीबी बन गया.

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अब दाऊद से दुश्मनी खत्म हुई तो मुंबई में एक दूसरे गुंडे शहजादा से लतीफ के रिश्ते बिगड़ गए. हालात ऐसे बन गए कि लतीफ ने शहजादा को जान से मारने की पूरी प्लानिंग कर डाली. एक दिन लतीफ को पता चला कि शराब कारोबारी हंसराज त्रिवेदी ने शहजादा को अपने यहां पनाह दी हुई है. बस अब लतीफ को उस दिन का इंतजार था जब वो शहजादा को मौत के घाट उतार सके. उसे ऐसा करने का मौका मिला भी जब राधिका जिमखाना में शहजादा और हंसराज अपने दोस्तों के साथ ताश खेल रहे थे. वहां पर लतीफ ने अपने गुंडे पहले ही भेज दिए थे. लेकिन गुंडों को पहचान ही नहीं हुई कि शहजादा कौन और हंसराज कौन. फिर जो हुआ उसने बर्बरता की सारी हदें पार कर दीं.

वो कांड जिसने लतीफ की जिंदगी बदल दी

अब्दुल लतीफ ने अपने गुंडों को सभी को गोली मारने का फरमान सुना दिया और देखते ही देखते AK-47 से गोलियों की ताबड़तोड़ फायरिंग हुई और राधिका जिमखाना में 9 लोगों की मौत हो गई. इसके बाद तो अब्दुल लतीफ के बुरे दिन शुरू हो गए. पहले जिसका गुजरात में खौफ था, अब वो पुलिस और एजेंसियों से बचने के लिए इधर-उधर शरण के लिए भागता रहा. लेकिन उसको किसी की मदद मिल पाती, ये मुश्किल था. तब लतीफ के लिए सबसे बड़ी अड़चन बन गए थे कांग्रेस नेता रऊफ वलीउल्लाह. रऊफ किसी भी कीमत पर लतीफ को पकड़वाना चाहते थे.  लेकिन लतीफ को ये मंजूर नहीं था. तब उसकी मदद फिर दाऊद ने की और उसे दुबई बुला लिया. 

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कांग्रेस नेता की करवाई थी दिन दहाड़े हत्या

दुबई में बैठकर ही लतीफ ने रऊफ वलीउल्लाह की हत्या करने की पूरी प्लानिंग बना डाली, उसने अपने भरोसेमंद रसूल पट्टी को सुपारी दी, फरमान था- किसी भी कीमत पर रऊफ वलीउल्लाह को खत्म करना था. अब फिर 9 अक्टूबर, 1992 को ऐसा हुआ भी. जब रऊफ अहमदाबाद की एक फोटोकॉपी की दुकान पर मौजूद थे, रसूल के दो शूटरों ने दिन दहाड़े कांग्रेस नेता को गोलियों से भून दिया. रऊफ वलीउल्लाह की मौके पर ही मौत हो गई और अब्दुल लतीफ ने अपनी सबसे बड़ी अड़चन को खत्म कर दिया. 

तब उसकी मदद फिर दाऊद ने की और उसे दुबई बुला लिया. उसके बाद वो कुछ समय के लिए कराची भी गया. कहा जाता है कि वहां पर उसने टाइगर और दाऊद के साथ मिलकर मुंबई बम धमाकों की योजना बनाई.

ऐसे में अब्दुल लतीफ सिर्फ गुजरात में नहीं भारत में मोस्ट वांटेड बन गया था. हर तरफ उसकी तलाश की जा रही थी. फिर 1995 में अहमदाबाद के दो व्यापारियों ने गुजरात एटीएस को बताया कि लतीफ उन्हें धमकी दे रहा है, जान से मारने की बात कर रहा है. लतीफ की ये गलती ही उसे भारी पड़ी. अब तक एजेंसियां सोच रही थीं कि लतीफ अभी भी पाकिस्तान में छिपा हुआ है, लेकिन उसकी फोनबूथ से की गई उस एक कॉल ने बता दिया कि वो कराची में नहीं बल्कि दिल्ली में है. लतीफ का एक तकिया-कलाम भी था- 'अईसा क्या'. वो अक्सर ये बोला करता था. इस वजह से भी पुलिस को उसे पकड़ने में आसानी हुई और आखिरकार दिल्ली से ही उसकी गिरफ्तारी हो गई. मुंबई का दाऊद, सबसे बड़ा शराब कारोबारी पुलिस के हत्थे चढ़ चुका था. 

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लतीफ का एनकाउंटर और कांग्रेस का पतन

दो साल तक लतीफ जेल में बंद रहा. फिर 29 नवंबर 1997 को उसने भागने की कोशिश की, उसे पूरी उम्मीद थी कि वो पुलिस की आंखों में धूल झोक देगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और पुलिस एनकाउंटर में अब्दुल लतीफ मारा गया. अब्दुल लतीफ का चैप्टर हमेशा के लिए खत्म हो गया और गुजरात कई सालों की दहशत के बाद उसके आतंक से मुक्त हुआ.

 

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