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गुजरात के मुसलमान: लगातार कम होता प्रतिनिधित्व, सियासत में कितना असरदार ये वोटबैंक?

गुजरात चुनाव में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कहने को कम हुआ है, लेकिन राजनीति में इसकी अहमियत आज भी कायम है. समय के साथ कांग्रेस ने कम मुस्लिमों को टिकट देना जरूर शुरू किया है, लेकिन 10 प्रतिशत के करीब इस समुदाय को लुभाने का एक भी अवसर छोड़ा नहीं जाता है. बड़ी बात ये है कि बीजेपी भी मुस्लिमों के एक वर्ग को अपने पाले में करना चाहती है.

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गुजरात की राजनीति में मुस्लिमों का कम होता प्रतिनिधित्व (फाइल)
गुजरात की राजनीति में मुस्लिमों का कम होता प्रतिनिधित्व (फाइल)

गुजरात चुनाव में कहने को सभी पार्टियां विकास के मुद्दे पर लड़ना चाहती हैं, लेकिन जब तक धर्म और जातियों को साध जमीन पर समीकरण ना बैठा लिए जाएं, जीत की राह आसान नहीं रहती. गुजरात की सियासत में मुसलमान वोटबैंक की भी ऐसी ही अहमियत है, जो कभी किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता. वो वक्त और बदलती राजनीति के साथ अप्रसंसगिक हो गया है. गुजरात के चुनावी रण में मुसलमानों के टिकट ही कम नहीं देती बल्कि उनके मुद्दों पर भी बात करने से सियासी पार्टियां गुरेज करती है.

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गुजरात में 10 प्रतिशत के करीब मुसलमान मतदाता हैं, जो लंबे समय तक कांग्रेस को वोट देती रही हैं. कांग्रेस अपने कोर वोटबैंक का ख्याल रखा और लगातार गुजरात विधानसभा में मुस्लिम विधायकों को पहुंचाया है. इस बार कांग्रेस ने 6 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. तीसरे विकल्प के रूप में सामने आने की कोशिश कर रही आम आदमी पार्टी ने भी 2 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं. वहीं असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने अभी तक 14 सीटों में से 12 पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं.  

हालांकि, बदलती राजनीति और समय के साथ इस ट्रेंड में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है. बीजेपी के लिए जो गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला बन चुका है, वहां पर हर बीतते चुनाव के साथ कांग्रेस द्वारा चुनावी मैदान में कम मुस्लिम उम्मीदवार उतारे जा रहे हैं. सवाल उठता है कि आखिर समय के साथ गुजरात में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम क्यों हुआ? कांग्रेस द्वारा चुनावी मैदान में कम मुस्लिम उम्मीदवार क्यों उतारे जाने लगे? क्या वर्तमान में भी गुजरात की राजनीति में मुस्लिम फैक्टर असरदार है?

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गुजरात में मुस्लिम सियासत

साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में 9.67 फीसदी (58 लाख से ज्यादा) मुस्लिम आबादी है. यहां शहरों में मुस्लिमों की संख्या 14.75 फीसदी रही है तो ग्रामीण क्षेत्रों में 5.9 फीसदी है. राज्य की 20 विधानसभा सीट ऐसी जहां पर मुसलमान वोट ही हार-जीत तय कर जाता है. यहां भी 34 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 15 प्रतिशत से ज्यादा है. ऐसे में कम प्रतिनिधित्व के बावजूद भी इस वोटबैंक के सियासी मायने कम नहीं हुए हैं. 
जमालपुर खाड़िया सीट पर सबसे अधिक 61 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं तो दाणीलीमडा सीट पर 48 फीसदी, वागरा सीट पर 44 फीसदी और वेजलपुर सीट पर 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है. परंपरागत रूप से गुजरात के मुसलमानों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट किया है, ये राज्य के वोटिंग पैटर्न में भी झलकता है. लेकिन वक्त के साथ मुस्लिमों को एक तबका बीजेपी को भी वोटिंग करता रहा है. 

मुस्लिमों का वोटिंग पैटर्न क्या रहा है?

लोकनीति-CSDS पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक गुजरात में कांग्रेस को साल 2002 में मुस्लिमों का 77 प्रतिशत वोट मिला था, 2007 में 76 फीसदी, 2012 में 65 फीसदी और 2017 में 62 प्रतिशत. वहीं बीजेपी की बात करें तो उसे 2002 में मुस्लिमों का सिर्फ 12 फीसदी वोट प्राप्त हुआ था, 2007 में ये बढ़कर 17 फीसदी हुआ, 2012 में 22 प्रतिशत और पिछले विधानसभा चुनाव में 27 प्रतिशत. 
अब ये आंकड़े दो बातें स्पष्टता से दिखाते हैं, पहली ये कि कांग्रेस को लगातार अच्छी संख्या में मुस्लिम वोट प्राप्त हुआ है, दूसरी बात ये कि समय के साथ बीजेपी ने भी इस समुदाय के बीच में अपनी एक जगह बनाई है. अब इस वोटिंग पैटर्न से दो सवाल भी उठते हैं- पहला ये कि कांग्रेस को हर विधानसभा चुनाव में अच्छा मुस्लिम वोट प्राप्त हुआ तो फिर उसने उनकी उम्मीदवारी कम क्यों की? दूसरा ये कि जिस बीजेपी को लेकर धारणा रहती है कि उसकी नीतिया मुस्सिम विरोधी हैं, फिर भी उसे इस समुदाय का गुजरात में वोट कैसे मिल रहा है?

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मुस्लिम उम्मीदवारी और कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड

आंकड़ों में समझे तो कांग्रेस ने सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार साल 1980 में उतारे थे. तब पार्टी की तरफ से 17 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए गए थे और 12 ने जीत भी दर्ज की थी. ये वो समय था जब कांग्रेस ने गुजरात की धरती पर KHAM राजनीति की शुरुआत की थी. उसके तहत क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिमों को साधने का एक ऐसा खाका तैयार किया गया कि पार्टी ने लगातार दो विधानसभा चुनावों में प्रचंड जीत दर्ज की.

साल 1980 के बाद 1985 के गुजरात चुनाव में भी कांग्रेस ने KHAM रणनीति को आगे बढ़ाया, लेकिन मुस्लिम उम्मीदवारी कम कर दी गई. उस चुनाव में 11 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे गए और उनमें से आठ ने जीत दर्ज की. फिर 1990 के दौर में जब राम जन्मभूमि को लेकर आंदोलन तेज हुआ, इसका असर जमीन पर भी दिखने लगा. उस साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी और उसकी सहयोगी जनता दल ने तो एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया, लेकिन कांग्रेस ने 11 उम्मीदवारों को मौका दिया और सभी की हार हो गई. 

1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 10 मुस्लिम प्रत्याशियों पर दांव चला, लेकिन फिर वो रणनीति फेल हुई और सभी उम्मीदवार हार गए. इसके बाद 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ से 5 मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा गया था. 2007 और उसके बाद वाले चुनावों में कांग्रेस द्वारा कभी भी 6 से ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारे गए. पिछले विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस के तीन मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे. इस बार पार्टी ने 6 मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव चला है. 

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बीजेपी के साथ 'मुस्लिम वोटर'

बीजेपी को मिल रहे मुस्लिम समर्थन को डीकोड करे तो समझ आता है कि पूरा मुस्लिम समाज पार्टी के साथ नहीं खड़ा है. पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को 27 प्रतिशत वोट जरूर मिले, लेकिन इसका बड़ा कारण ये रहा कि मुकाबला सिर्फ बीजेपी बनाम कांग्रेस का था. इस ट्रेंड के बारे में 'लोकनीति' के सह-निर्देशक संजय कुमार ने आजतक से बात करते हुए कहा था कि जिन भी राज्यों में बाइपोलर लड़ाई रहती है, फिर चाहे वो गुजरात हो, छत्तीसगढ़ हो, राजस्थान हो या मध्य प्रदेश. इन राज्यों में ज्यादातर मुस्लिम वोट जरूर कांग्रेस को मिलता है लेकिन 20-25 प्रतिशत के करीब बीजेपी के खाते में भी जाता है. वहीं जिन भी राज्यों में कोई तीसरा विकल्प या पार्टी खड़ी होती है, तब मुस्लिम वोटों का विभाजन होता है और कुछ वोट उन पार्टियों को भी मिलता है.

गुजरात में बीजेपी के लिए दूसरा बड़ा पहलू है मुस्लिमों का बोहरा समुदाय जो शुरुआत से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा हुआ है. कहने को गुजरात में बोहरा समुदाय सिर्फ एक फीसदी माना जाता है, लेकिन गुजरात के दाहोद, राजकोट और जामनगर में इनकी निर्णायक भूमिका रहती है. बड़ी बात ये भी है कि बोहरा एक कारोबारी समुदाय है जो पहले सीएम रहते हुए नरेंद्र मोदी की नीतियों से प्रभावित था और फिर जब वे पीएम बन गए, तब भी उनके साथ मजबूती से खड़ा रहा. 

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ओवैसी फैक्टर- वोट कटवा या नया विकल्प?

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार गुजरात चुनाव में क्योंकि आम आदमी पार्टी और AIMIM भी खड़ी है, ऐसे में मुस्लिम मतदाता के पास एक तीसरा विकल्प भी खुल रहा है. वहीं क्योंकि कांग्रेस मुस्लिम उम्मीदवारों को आगे करने में इतना सक्रिय नहीं है, ओवैसी इसे अपने लिए एक अवसर मान रहे हैं. इसी वजह से उन्होंने 12 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दे दिया गया है. 
AIMIM एक ऐसी पार्टी है जो खुलकर मुस्लिमों की राजनीति करती है, उसे तुष्टीकरण वाले फेर में फंसाना भी मुश्किल रहता है. ये बात ओवैसी भी समझते हैं, इसी वजह से इस चुनाव में उनकी तरफ से अहमदाबाद की मुस्लिम बहुल पांच सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए गए हैं. इसी तरह कच्छ जिले की अबडासा, मांडवी, बनासकांठा की वडगाम और पाटण जिले के सिद्धपुर सीट पर उम्मीदवार उतारा गया है. 

ओवैसी का गुजरात में अच्छे प्रदर्शन को लेकर जो भी भरोसा है वो इस दम पर टिका है कि पिछले साल स्थानीय निकाय चुनाव में AIMIM को 26 सीटों पर जीत मिली थी. ऐसे में पार्टी मानकर चल रही है कि मुस्लिम समुदाय के बीच में वो भी एक विकल्प के तौर पर पेश आ सकती है.

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कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी दुविधा ये है कि वो खुद को मुस्लिमों की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं बता सकती है. 2002 के गोधरा दंगों के बाद से ध्रुवीकरण की ऐसी पिच तैयार हुई है, जहां पर उसे मुस्लिमों को ज्यादा प्रतिनिधित्व देना मुस्लिम परस्त राजनीति का हिस्सा माना जाने लगा है. ऐसे में कांग्रेस द्वारा मुस्लिमों की दावेदारी मजबूत करने की जब-जब कोशिश हुई है, बीजेपी ने तुष्टीकरण का दांव चल उसकी हवा निकालने की कोशिश की है. जानकार मानते हैं कि इस वजह से भी गुजरात की राजनीति में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम प्रत्याशियों की नुमाइंदगी को कम कर दिया गया है. ऐसे में देखना है कि गुजरात चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद कौन बनता है?

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