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रोकड़े वाला गुजरात, हाई सोशल कैपिटल के दम पर इतराने वाला गुजरात, वेस्टर्न ड्रीम के पीछे भागने वाला गुजरात, गांधी, पटेल और जिन्ना की जन्मभूमि वाला गुजरात एक बार फिर से अपना नेतृत्व चुनने के लिए कशमकश के दौर से गुजर रहा है. 2002 के बाद इस राज्य के गवर्नेंस और तरक्की को बीजेपी ने ब्रॉन्ड में बदल दिया और नाम दिया गुजरात मॉडल. मोरबी हादसे के साये में एक बार फिर से इस मॉडल की परीक्षा होनी है. परीक्षा का सवाल यह है कि मोदी के इस बहुचर्चित मॉडल में वोट खींचने की कितनी ताकत शेष रह गई है?
गुजरात भारत का ठीकठाक आर्थिक हैसियत वाला राज्य है. यहां आम तौर पर रोजी-रोटी की समस्या नहीं है. टेक्सटाइल, पेट्रोलियम, मेडिसिन, मिल्क, पोर्ट, शिप, डायमंड, शेयर जैसे बिजनेस ने गुजरात को इतना दिया है कि ये राज्य न सिर्फ खुद समृद्ध हुआ है बल्कि बिहार, झारखंड और यूपी के युवाओं के लिए रोजगार मुहैया कराया है.
भोजन और जुबान में एक समान मीठा
बिजनेस और मुनाफा वो शब्द है जिस हर युवा और महात्वाकांक्षी गुजराती हवा-पानी की तरह रोजाना अपनी जिंदगी में लेता है. अद्भुत धैर्य, मार्केट को ताड़ लेने की क्षमता, भोजन और जुबान में एक समान मीठा डालने वाले, शान-शौकत से ठीक-ठाक दूरी रखने वाले, रिस्क लेने वाले, फैसला लेने वाले, मितव्ययी, सयाने, चतुर और गुजराती की माटी से कनेक्ट ये कुछ ऐसे गुण हैं जिसके दम पर गुजरातियों ने कई बिजनेस को अपनी मुट्ठी में किया हुआ है.
सिर्फ अंबानी और अडानी ही नहीं अजीम प्रेम जी, करसन पटेल, दिलीप सांघवी जैसे उद्योगपति इस लिस्ट में शामिल हैं. अगर ब्रांड की बात करें तो रिलायंस अडानी और विप्रो के अलावा निरमा, सिम्फनी, पार्ले, एशियन पेंट ये सभी कंपनियां गुजरात की है.
मारवाड़ी से खरीदकर जो सिंधी को बेच डाले... वो सौदागर गुजराती
गुजरातियों की बिजनेस करने की क्या काबिलियत है इसके बारे में एक कहावत हर गुजराती व्यापारी बड़े गर्व से सुनाता है. ये कहावत कुछ ऐसा है- मारवाड़ी से माल खरीदकर जो सिंधी को बेच डाले और फिर भी नफा कमाए वो सौदागर गुजराती है. यहां धंधे के मामले में गुजराती की तुलना सिंधी और मारवाड़ी से इसलिए की गई है क्योंकि वे पहले ही इस फन के माहिर खिलाड़ी होते हैं लेकिन गुजराती इनसे भी धंधा कर मुनाफा कमा लेता है.
तिजारत के फन में गुजराती कैसे माहिर हुए, इसकी ऐतिहासिक और भौगोलिक वजहें भी हैं. गुजरात को 1600 किलोमीटर समुद्री तट मिला है. अरब सागर की लहरें इस राज्य की तटों से टकराकर इसे समृद्धि का सौगात दे गई हैं.
अरब, यूरोप और अफ्रीका से समंदर के जरिए हिन्दुस्तान आने वाले कई व्यापारी अपना लंगर गुजरात के समुद्री तटों पर ही डालते थे. अंग्रेजों ने अपनी पहली व्यापारिक कोठी सूरत के तट पर ही बनाई थी. इस वजह से गुजरात के लोगों को धंधे का गुर सीखने-समझने का मौका काफी पहले से मिला. इसमें अपनी गुजराती चतुराई मिलाकर वे इस कला के महारत हो गए.
18वीं सदी में जब मुगलों का साम्राज्य डूब रहा था उस दौरान भी गुजरातियों का बिजनेस एम्पायर न सिर्फ यूरोपीय ताकतों के चोट से महफूज रहा बल्कि हवा के रूख से खिलाफ रहकर भी पनपा. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट में इतिहासकार मकरंद मेहता ने इसे बखूबी बताया है.
आईआईएम अहमदाबाद में पेश एक रिपोर्ट में उन्होंने कहा है कि गुजरातियों ने 18वीं और 19वीं शताब्दी में मुगलिया सल्तन्त के समानान्तर अपनी बिजनेस प्रणाली स्थापित कर ली थी. इनका अपना बैंकिंग और पोस्टल सिस्टम था. यही नहीं इन बिजनेस घरानों ने अपना खुफिया सिस्टम भी विकसित कर लिया था. इससे इनको सूरत से दिल्ली और ढाका से बनारस तक बिजनेस करने में मदद मिलती थी.
नादिरशाह के हमले के सूचना एक साल पहले मिली
मकरंद मेहता लिखते हैं कि ये राजनीतिक अस्थिरता का दौर था. इस समय सूरत के अर्जुन नागजी तरवड़ी जैसे व्यावसायिक घरानों ने पूरे भारत में अपना फाइनेंस और खुफिया तंत्र विकसित कर लिया था.
1738 में मुर्शिदाबाद स्थित तरवड़ी ऑफिस ने सूरत कार्यालय को एक पत्र लिखकर आगाह किया था कि ईरान से दिल्ली को लूटने के लिए नादिरशाह का कारवां निकलने वाला है और जल्द से जल्द अपने बिजनेस को संभाल लिया जाए. 1739 में आक्रांता नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला कर दिल्ली की गलियों को खून से लाल कर दिया और मुगलिया सल्तनत देखती रह गई.
अंग्रेज बिजनेसमैन ऑर्थर स्टीली ने 1827 में इस व्यापारिक घरानों का जिक्र करते हुए लिखा है. ये परिवार शर्राफ (बैंकर), मुनिम (अकाउंटेंट), अंगड़िया (संदेशवाहक, नगदी ले जाने वाले), किलेवाला (चाभियों के इंचार्ज) पारेख (आकलन करने वाले) मारफतिया (मिडलमैन) और संतरी (सुरक्षा गार्ड) की बहाली करते थे ताकि सूरत से लेकर सुदूर पूर्व ढाका और उत्तर में दिल्ली तक इनका धंधा चलता रहे.
ऐसे ही एक पारेख भारत को फेविकोल दे गए
ऐसे ही एक गुजराती पारेख भारत को मजबूती का अटूट जोड़ फेविकोल दे गए. ये कहानी थोड़ी बाद की है. 1925 में गुजरात के भावनगर के महुआ गांव में जन्में बलवंत पारेख कभी एक लकड़ी के फैक्ट्री में चपरासी का काम करते थे, इस कारखाने में चर्बी से लकड़ियों को जोड़ा जाता था.
बलवंत पारेख को यहीं से बिजनेस आइडिया आया और उन्होंने नौकरी छोड़कर बहुत छोटे स्तर पर 1959 में पिडीलाइट कंपनी की स्थापना की. इस कंपनी ने ऐसा गोंद बनाया जिसका जोड़ हर एक जुबां पर चढ़ गया. नाम है फेविकोल. कहने का मतलब है कि छोटे से मौके को बरगद जैसे अवसर में बदल देने का नाम गुजराती उद्मशीलता है.
बापू का पोरबंदर और जिन्ना का पनेली मात्र 80 KM की दूरी पर
गुजरातियों का एक धड़ा जहां बिजनेस में कामयाबी के झंडे गाड़ रहा था वहीं पढ़ने लिखने वालों की जमात उस पेशे को अपना रही थी जिसकी उस समय के सोशल ऑर्डर में बड़ी प्रतिष्ठा थी. वकालत का पेशा लोगों की राजनीतिक और आर्थिक हैसियत को बढ़ा रहा था.
गांधी, जिन्ना और पटेल की तिकड़ी इसका ही उदाहरण थी. तीनों चोटी के वकील थे. गांधी और जिन्ना दोनों ही काठियावाड़ी गुजराती थे. बापू का पोरबंदर और जिन्ना के पनेली के बीच मात्र 80 किलोमीटर का फासला था. दोनों ही सौराष्ट्र में मौजूद हैं. कहा जाता है कि निजी मुलाकातों में दोनों काठियावाड़ी गुजराती में ही बात करते थे.
ये बड़ी अजीब विडंबना है कि इनमें से एक गुजराती न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया में सत्य और अहिंसा का प्रतीक बन गया, लेकिन दूसरे ने धार्मिक पहचान पर आधारित नफरत का जो बीज बोया वो कांटा बन गया और बंटवारे के बाद भी चुभ रहा है.
आजादी के बाद के सबसे फेमस गुजराती
गप गुजरात की हो तो मोदी-शाह की जोड़ी आज की राजनीति के हॉटकेक हैं. अगर वर्ष 2002 को भारत की राजनीति का रेफरेंस प्वाइंट माने तो ये दो किरदार भारत की राजनीति के धुरी हैं. नरेंद्र मोदी 7 अक्टूबर 2001 को गुजरात के सीएम बने थे. 21 साल का समय गुजर गया पीएम मोदी तब से लेकर लगातार सार्वजनिक जीवन में हैं. 21 साल में वे एक भी चुनाव नहीं हारे हैं. 2014 में अपने दम पर बीजेपी की सत्ता में वापसी कराकर उन्होंने भारत के राजनीतिक अध्याय का नवीन अध्याय शुरू कर दिया.
कूटनीतिक चालों, नेतृत्व क्षमता और चुनावी प्रबंधन कौशल की वजह से पत्रकार और सोशल मीडिया अमित शाह को 'चाणक्य' नाम से बुलाती रही है. वे सालों से नरेंद्र मोदी के विश्वस्त सहयोगी और चतुर सारथी के रूप में काम कर रहे हैं. गुजरात से निकलकर दिल्ली दरबार में अपनी धमक कायम करने वाले इस जोड़ी को लोग कई नाम-उपनाम और विशेषणों से संबोधित करते हैं.
द ग्रेट गुजराती डायसपोरा
प्रबल उद्मशीलता के चलते गुजराती न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया के कोने कोने में अपना बिजनेस साम्राज्य स्थापित किए हुए हैं. भारत के अलावा गुजराती समुदाय, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, केन्या, बेल्जियम और ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में अपना झंडा बुलंद किए हैं.
लॉर्ड मेघनाद देसाई, लॉर्ड ढोलकिया और लॉर्ड भीकू देसाई कुछ ऐसे नाम हैं जो प्रवासियों के रूप में गुजरातियों की कामयाबी को दिखाते हैं. उत्तर गुजरात से बड़ी संख्या में गजरातियों का पलायन हुआ है. कुछ बेहतर कल की तलाश में तो कुछ पश्चिम की जीवन शैली से आकर्षित होकर पाटन, पालनपुर, मेहसाणा, साबरकांठा, बनासकांठा से पटेल, चौधरी, प्रजापति, जैन और वोहरा समुदाय के लोग अमेरिका, ब्रिटेन, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में बस गए हैं.
65% डायमंड कारोबार पर पालनपुर के जैनियों का आधिपत्य
आप यह जानकार हैरान हो सकते हैं कि दुनिया के पॉलिश्ड डायमंड का पूरा कारोबार पालनपुर के जैन व्यवयासियों द्वारा बेल्जियम में संभाला जाता है. पालनपुर उत्तर गुजरात का एक छोटा सा शहर है. 1970 और 80 के दशक में पालनपुर के जैनियों का पलायन बेल्जियम के एटवर्प शहर में हुआ. ये वही शहर है जहां दुनिया भर का हीरे का कारोबार केंद्रित है.
कहा जाता है कि 500 सालों से इस कारोबार पर यहूदियों का कब्जा था. लेकिन मात्र 30 से 40 सालों में इन जैनियों ने अपने बिजनेस मॉडल के दम पर यहूदियों के एकछत्र राज्य को खत्म कर दिया. अब एंटवर्प के 65 फीसदी डायमंड कारोबार पर पालनपुर के जैनियों का आधिपत्य है.
पाटन के पटेल और बोहरा, मेहसाणा के प्रजापतियों की कामयाबियों की कहानियां
गुजराती डायसपोरा की सफलता का ये एक मात्र छोटा सा उदाहरण है. सिद्धपुर, पालनपुर और पाटन के वोहरा पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण अफ्रीका में रिटेल और चमड़ा के व्यवसाय में स्थापित हैं. इसी तरह मेहसाणा, कड़ी, पाटन और विसनगर के पटेलों ने कई देशों में प्लास्टिक, लेदर और केमिकल के व्यवसाय में स्वयं को स्थापित किया है.
पाटन, मेहसाणा और साबरकांठा से पलायन करने वाले प्रजापति समुदाय की भी यही कहानी है. इन्होंने अपने अपने मेजबान देशों में खुद को सर्विस सेक्टर में स्थापित किया है. जी-20 सम्मेलन के दौरान बाली पहुंचने पीएम मोदी ने भी गुजरात के विकास में वोहरा समुदाय के योगदान का जिक्र किया था.
गुजरातियों का ये समुदाय अपने देश से भले ही सैकड़ों मील दूर हों, लेकिन अपनी मिट्टी से ताल्लुकात इन्होंने कभी खत्म नहीं किया. प्रवासियों का ये समुदाय अपने-अपने मेजबान देश में राजनीति में अच्छी दखल रखते हैं और गुजरात के हित में प्रेशर ग्रुप का काम करते हैं.
ये अप्रवासी गुजराती अपने अपने देशों में अपनी संस्कृति और समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले राजदूत भी हैं. दिल्ली और अहमदाबाद में जिस विशाल अक्षरधाम मंदिर को आप देखते हैं ऐसे कई भव्य और दिव्य मंदिर गुजराती अप्रवासियों ने यूरोप में बनवाए हैं.
सोशल कैपिटल: गुजरातियों की कामयाबी का X फैक्टर
आखिर दुनिया भर में गुजराती जहां भी जाते हैं अपनी छाप छोड़ने में कामयाब कैसे होते हैं? इसका जवाब हमें एक बार फिर से गुजरातियों के उस स्किल की ओर ले जाता है जहां सतत परिश्रम है. लेकिन गुजरातियों के सफल होने में सोशल कैपिटल (सामाजिक पूंजी) का भी बड़ा योगदान है.
आर्थिक पूंजी से इतर ये वो पूंजी है. जिसकी वजह से अगर कोई अप्रवासी अपने सघर्ष के दौरान फेल भी होता है तो समाज का सहयोग उसे उबार ले जाता है. सामाजिक पूंजी का सामान्य अर्थ किसी विशेष समाज में रहने और काम करने वाले लोगों के बीच संबंधों का नेटवर्क है, जो उस समाज को प्रभावी ढंग से कार्य करने में सक्षम बनाता है.
सोशल कैपिटल पारस्परिक संबंधों, पहचान की साझा भावना, साझा समझ, साझा मूल्य, विश्वास, सहयोग और पारस्परिकता से उपजा सामाजिक मूल्यों का ऐसा नेटवर्क है जहां हर गिरने वाले को दूसरा गुजराती पैसा, मार्केट और तकनीक का सहारा मिलता है. विदेशी धरती पर ये भाईचारे की ये भावना और भी बलशाली होती है. यही वजह है कि जगह कोई भी हो गुजराती बनिया अपना झंडा गाड़ ही देता है.
दुश्मन को नहीं, दुश्मनी को खत्म करो
गुजरातियों के बिजनेस का एक और सिद्धांत है. कहा जाता है कि गुजराती अपने दुश्मनों को खत्म न करके उनसे दुश्मनी खत्म करते हैं और उन्हें अपना दोस्त बना लेते हैं और अपना पूरा ध्यान धंधे पर देते हैं. इनकी कामयाबी का ये एक और बड़ा कारण है.
लेकिन गुजरातियों की कामयाबी की ये कहानी पढ़ने में जितनी गुलाबी है इनका संघर्ष इससे कई गुणा ज्यादा है. संघर्ष से सिद्धि हासिल करने की इस यात्रा में कहीं न कहीं पलायन की पीड़ा है, गुजरात का गरबा और ढोकला छूटने का दर्द है. अब जब गुजरात में चुनाव की चर्चा है तो दुनिया भर में फैले गुजराती अपनी जन्मभूमि की सियासी हलचल पर निगाहें गड़ाये बैठे हैं.