एक तरफ दस जनपथ में सोनिया और राहुल गांधी विपक्षी दलों को डिनर दे रहे थे, और बढ़-चढ़कर ऐलान किया कि मोदी को रोकने के लिए राज्यों में आपसी मतभेद भुलाकर राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होना होगा. मगर दूसरी तरफ यूपी के फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव में सपा-बसपा के गठजोड़ ने बीजेपी को पटखनी दे दी, दोनों सीटों पर कांग्रेस लड़ी और ज़मानत भी नहीं बचा पाई. ऐसे में विपक्षी एकता को लेकर कांग्रेस बैकफुट पर आ गई.
इसके बाद अपने रणनीतिकारों और सिद्धारमैया की राय मानते हुए राहुल ने कर्नाटक में जेडीएस के साथ जाने के बजाय अकेले लड़ने का फैसला किया. इसी बीच राहुल ने कह दिया कि 2019 में कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी बनने की सूरत में वह पीएम बन सकते हैं. इस पर काफी विवाद भी हुआ.
कांग्रेस अध्यक्ष की रणनीति
इस दौरान कांग्रेस की विपक्ष को जोड़ने की मुहिम झटका खाती दिख रही थी. सूत्रों के मुताबिक ऐसे में राहुल ने कर्नाटक चुनाव के नतीजों से पहले ही बीजेपी को रोकने के लिए नई रणनीति पर भी संगठन महासचिव अशोक गहलोत और वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद से चर्चा की. राहुल ने साफ़ कर दिया कि अगर बहुमत मिले या 2-4 विधायक कम रहे तो सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन बहुमत के आंकड़े से दूर रहने पर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनती है तो जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाई जाए.
सूत्रों के मुताबिक चर्चा में एक विपरीत संभावना भी सामने आई कि अगर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी और बहुमत से थोड़ा पीछे रही तो उसे रोकने के लिए जेडीएस को सीएम की कुर्सी दे दी जाए. मगर कांग्रेस के रणनीतिकारों को इस स्थिति की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी. इसीलिए पार्टी आखिरी स्थिति पर खामोश थी, जबकि जेडीएस को साथ लेने पर अंदरखाने हामी भरी जा चुकी थी.
सोनिया गांधी का सहारा
कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की उम्मीदों के उलट नतीजे आने पर राहुल के निर्देशानुसार फ़ौरन आज़ाद और गहलोत ने जेडीएस कैंप को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने के लिए हामी भर दी. इधर, दिल्ली में राहुल ने अपने फैसले को मजबूती देने के लिए एहतियातन सोनिया गांधी की देवेगौड़ा से बातचीत को अंजाम दिलवाया, जिसके लिए अहमद पटेल ने सक्रिय भूमिका निभाई.
विपक्षी दलों को संदेश
दरअसल, इसके जरिये राहुल बाकी विपक्षी दलों को ये संदेश देना चाहते थे कि बीजेपी को रोकने के लिए बड़ी पार्टी होने पर भी वह राज्य में बैकसीट लेने को तैयार हैं. अब टीम राहुल को लगता है कि कुमारस्वामी सीएम बने तो बढ़िया, नहीं बने तो भविष्य में कर्नाटक में उनको बीजेपी को पटखनी देने के लिए गठबंधन का बेहतर साथी मिल गया. साथ ही बीजेपी अगर कुमारस्वामी को सीएम नहीं बनने देती तो बाक़ी क्षेत्रीय दल बीजेपी के खिलाफ मुखर होंगे.
भला कौन बनेगा राहुल का विकल्प
राहुल की रणनीति सीधी है. पिछले अनुभवों को भूलते हुए विपक्षी मोदी के खिलाफ कांग्रेस के साथ आएं. कांग्रेस नाक का सवाल बनाने की बजाय सबका ख्याल रखेगी. दरअसल, टीम राहुल को लगता है कि राज्यों में क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर मोदी से मुकाबला किया जाए. वैसे भी अगर सफलता मिली तो हर सूरत में कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी होगी और सबसे बड़ी पार्टी का पीएम हुआ तो भला राहुल के सिवा कौन हो सकता है. साथ ही कर्नाटक के जरिये बाक़ी विपक्षी दलों को राहुल का ये भी संदेश है कि बीजेपी को रोकने के लिए जरूरत पड़ी तो कांग्रेस 1996 की तरह बैकसीट पर भी आ सकती है.
इस मसले पर 'आजतक' से बातचीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आरपीएन सिंह ने कहा कि राजनीति में सही वक़्त पर सही फैसला लेना होता है और राहुल वही कर रहे हैं. पहले भी राहुल और सोनिया कह चुके हैं कि राज्यों में दलों को आपसी मतभेदों के बावजूद केंद्र में मोदी सरकार की तानाशाही से निपटने और लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होना होगा.