कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे सियासी जंग रोचक होती जा रही है. जनसंघ के दौर से बीजेपी से जुड़े रहे पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार सोमवार को कांग्रेस का दामन थाम लिया. कर्नाटक की सियासत में बीएस येदियुरप्पा के बाद शेट्टार ही लिंगायत समुदाय के सबके कद्दावर चेहरा माने जाते थे. ऐसे में शेट्टार को गंवाकर बीजेपी उसी गलती को तो नहीं दोहरा दिया, जिसे 33 साल पहले यानि 1990 में राजीव गांधी ने वीरेंद्र पाटिल जैसे लिंगायत नेता को सीएम की कुर्सी से हटाकर किया था.
राजीव गांधी का एक फैसला कांग्रेस के लिए सियासी नुकसान साबित हुआ तो बीजेपी के लिए कर्नाटक में सियासी संजीवनी बन गई. कांग्रेस उसके बाद से आज तक लिंगायत का भरोसा जीत नहीं सकी. ऐसे में कर्नाटक के चुनावी सरगर्मियों के बीच 1990 में राजीव गांधी के द्वारा लिए फैसले की कहानी...
क्या हुआ था 33 साल पहले?
बात राममंदिर आंदोलन के दौरान की है और कांग्रेस की कमान राजीव गांधी के हाथों में थी तो कर्नाटक की सत्ता पर वीरेंद्र पाटिल काबिज थे. लालकृष्ण आडवाणी राममंदिर के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए राम रथ यात्रा कर रहे थे. रथ यात्रा के शुरू हुए एक सप्ताह गुजरा था कि कर्नाटक सांप्रदायिक दंगे की चपेट में आ चुका था.
तीन अक्टूबर 1990 को कर्नाटक के दावणगेरे के मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदु समुदाय के लोगों ने एक शोभा यात्रा निकाली थी, जिसके चलते सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा था. उसी वक्त चन्नापटना क्षेत्र में एक मुस्लिम लड़की को हिंदू लड़कों ने छेड़ दिया, जिसने आग में घी डालने का काम किया और दोनों समुदाय के बीच तलवारें खिंच गई थीं. दंगे में दर्जनों लोगों की मौत हो गई थी. कांग्रेस पर राजनीतिक दबाव बढ़ गया था. हालांकि, तत्कालीन सीएम वीरेंद्र पाटिल को कुछ दिनों पहले ही दिल का दौरा पड़ा था, जिसके चलते वो बिस्तर पर थे.
राजीव गांधी कर्नाटक दौरे पर पहुंचे थे
कर्नाटक में उस समय कांग्रेस के सबसे बड़े मुस्लिम नेता सीके जाफर शरीफ थे, जो कर्नाटक के दंगे को लेकर कांग्रेस हाईकमान पर दबाव बना रहे थे. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राजीव गांधी सियासी डैमेज कन्ट्रोल के लिए कर्नाटक का दौरा करने के लिए पहुंचे और उनके साथ सीके जाफर शरीफ भी. कांग्रेस नेता एमबी पाटिल ने एक अंग्रेजी समाचार पत्र से बातचीत में बताया कि सीके जफर शरीफ उस वक्त राजीव गांधी के साथ थे और उन्होंने यह साफ तौर पर कहा था कि राज्य को किसी ऐसे व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जा सकता जो अस्वस्थ हो.
एयरपोर्ट पर ही किया CM को हटाने का ऐलान
राजीव गांधी ने बेंगलुरु एयरपोर्ट पर पहुंचते ही वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटाने का ऐलान कर दिया. पाटिल लिंगायत समुदाय के बड़े नेता थे. ऐसे में उनकी बर्खास्तगी को विपक्षी दलों ने लिंगायत समुदाय के अपमान की तौर पर प्रचारित किया गया. हालांकि, पाटिल को हटाने के पीछे कांग्रेस कांग्रेस तर्क देती रही है कि उनके खराब स्वास्थ्य की वजह से उन्हें आराम देने के लिए ही पद से हटाया गया था तो दूसरी ओर यह भी कहा गया कि पाटिल के बीमार होने के बावजूद राजीव गांधी ने लिंगायत नेता से मिलना मुनासिब नहीं समझा.
कांग्रेस को उठाना पड़ा सियासी खामियाजा
साल 1989 में जब राजीव गांधी ने केंद्र में सत्ता खो दी थी तब वीरेंद्र पाटिल ने कर्नाटक में जनता दल के रामकृष्ण हेगड़े और जनता पार्टी के एचडी देवगौड़ा दोनों को हराकर पार्टी को बड़ी जीत दिलाई थी. हेगड़े लिंगायतों के सबसे बड़े नेता थे, लेकिन वीरेंद्र पाटिल के चलते लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस को एकमुश्त वोट दिया था. 1989 में वीरेंद्र पाटिल की अगुआई में कांग्रेस ने 178 सीटें जीती थीं, लेकिन उन्हें सीएम की कुर्सी से हटाए जाने के बाद लिंगायतों की नाराजगी का कांग्रेस को सियासी खामियाजा उठाना पड़ा.
लिंगायतों ने कर्नाटक में कांग्रेस की तरफ से ऐसा मुंह मोड़ कि आजतक पलटकर नहीं देखा. रामकृष्ण हेगड़े लिंगायतों के एक बार फिर से चेहते नेता बन गए और उनके निधन के बाद बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता मान लिया. 1994 के चुनाव में लिंगायत वोट कांग्रेस से छिटककर बीजेपी के पाले में चला गया और तभी से यह वोटबैंक बीजेपी का मजबूत किला बना हुआ है.
बीजेपी के परंपरागत वोटर बन गए लिंगायत
लिंगायतों की नाराजगी के चलते 1994 के चुनाव में कांग्रेस महज 34 सीट ही जीत सकी थी जबकि बीजेपी राज्य में 4 से 40 सीटों तक पहुंच गई. बीजेपी का वोट परसेंट भी 6 फीसदी से बढ़कर 17 फीसदी पर पहुंच गया. कर्नाटक में लिंगायत बीजेपी के परंपरागत वोटर बन गए हैं और कांग्रेस उसे दोबारा से वापसी नहीं करा सकी. बीजेपी 1999 में 44, 2004 में 79, 2008 में 110 सीटों पर पहुंच गई. बीजेपी 2008 में लिंगायत वोटों के सहारे पहली बार कर्नाटक की सत्ता में आई और येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने.
कर्नाटक में बीजेपी ने बीएस येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार सीएम की कुर्सी से हटाया तो 2013 के विधानसभा चुनाव में लिंगायतों का मोहभंग हो गया, जिसके चलते पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले येदियुरप्पा की घर वापसी कराई गई और उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया तो सियासी फायदा मिला और बीजेपी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.
बढ़ सकती है लिंगायतों की नाराजगी
येदियुरप्पा ने इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव को अलविदा कह दिया.एक विधायक के रूप में उनके 40 साल के करियर पर पूर्णविराम था. यह उस शख्स के लिए एक जज्बाती लम्हा था जो कभी राज्य में बीजेपी का अकेला विधायक था. जिसकी अगुआई में 15 साल पहले कर्नाटक में पहली बार पार्टी की सरकार बनी थी. येदियुरप्पा के बाद जगदीश शेट्टार ही लिंगायत समुदाय के सबसे बड़े नेता के तौर पर बीजेपी में थे, लेकिन टिकट नहीं मिलने की वजह से अब उन्होंने भी पार्टी को अलविदा कह दिया है और कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. ऐसे में लिंगायतों की नाराजगी बढ़ सकती है.
प्रभावशाली जातियों में हैं लिंगायत
कर्नाटक की सियासत में सबसे अहम और ताकतवर लिंगायत समुदाय को माना जाता है. लिंगायत समुदाय की आबादी 16 फीसदी के करीब है, जो राज्य की कुल 224 सीटों में से लगभग 67 सीटों पर खुद जीतने या फिर किसी दूसरे को जिताने की ताकत रखते हैं. सामाजिक रूप से लिंगायत सेंट्रल कर्नाटक, उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र में प्रभावशाली जातियों में गिनी जाती है. राज्य के दक्षिणी हिस्से में भी लिंगायत लोग रहते हैं.
इस बार क्या होगी सियासी तस्वीर?
राज्य में 2018 में सबसे ज्यादा 58 लिंगायत समुदाय के विधायक जीतकर आए थे. बीजेपी से 38, कांग्रेस से 16 और जेडीएस के 4 विधायक थे. मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई लिंगायत समुदाय से आते हैं, लेकिन येदियुरप्पा और जगदीश शेट्टार जैसी सियासी पकड़ नहीं है. येदियुरप्पा इस बार मैदान से बाहर है और शेट्टार कांग्रेस के पाले में है. ऐसे में लिंगायतों की नाराजगी बीजेपी के लिए महंगी पड़ सकती है. ऐसे में देखना है कि इस बार लिंगायतों का भरोसा बीजेपी पर पहले की तरह कायम रहता है या फिर कांग्रेस सेंध लगाने में कामयाब रहेगी.