प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के साथ अपनी पहली साझा रैली की. पीएम मोदी ने इस दौरान बालासाहेब ठाकरे का मतदान का अधिकार छीने जाने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार बताया. पीएम मोदी ने कहा कि कांग्रेस वाले कह रहे हैं कि हम देशद्रोह का कानून हटाएंगे जबकि कांग्रेस ने ही बालासाहेब ठाकरे की नागरिकता छीन ली थी, उनका मतदान करने का अधिकार छीन लिया था. क्या पीएम मोदी ने यह बयान देकर महाराष्ट्र में शिवसेना के मतदाताओं की भावनाओं को छूने की कोशिश या वास्तव में बालासाहेब ठाकरे का मताधिकार छिनने के लिए कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है?
ये बात तो सही है कि बालासाहेब ठाकरे का नाम 6 साल के लिए मतदाता सूची से निकालने के आदेश दिए गए थे और 6 साल तक उनके वोट करने और चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई गई थी, लेकिन क्या इसमें कांग्रेस का कोई हाथ है. आइए जानते हैं कि ये घटना कब हुई और ऐसा होने के पीछे क्या वजह रही.
ये मामला 32 साल पहले का है. मुंबई के विले पार्ले विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हो रहे थे. शिवसेना और बीजेपी पहली बार साथ में चुनाव लड़ रहे थे. इस उपचुनाव मे शिवसेना के उम्मीदवार रमेश प्रभु कांग्रेस के उम्मीदवार प्रभाकर कुंटे को हराकर जीत गए.
प्रभाकर कुंटे ने चुनाव के नतीजे के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की कि बालासाहेब और शिवसेना के उम्मीदवार ने धर्म के नाम पर प्रचार किया है और मतदाताओं की भावनाएं भड़काई. 1991 मे बॉम्बे हाईकोर्ट ने बालासाहेब और रमेश प्रभु को इस मामले मे दोषी करार दिया.
चुनाव आयोग को आदेश दिया कि बालासाहेब और रमेश प्रभु का मतदान का अधिकार 6 साल के लिए छीन लिया जाए और उनके चुनाव लड़ने पर भी 6 साल के लिए पाबंदी लगे. इस फैसले के खिलाफ रमेश प्रभु ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखा.
हालांकि इस फैसले के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग के पास इस मामले को सलाह के लिए भेजा. आयोग ने दो सदस्यीय कमीशन गठित किया. इसमें जे. एम लिंगदोह और मनोहर सिंह गिल थे.
इस कमीशन के सुझाव के आधार पर राष्ट्रपति ने जुलाई 1999 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू कर दिया, जिसके चलते उनका वोटर लिस्ट से नाम हटाया गया. 1995 से 2001 तक के लिए बालासाहब ठाकरे का मतदान का अधिकर छीन लिया गया. राष्ट्रपति के फैसले के वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी .
इस पूरे मामले मे केंद्र या राज्य सरकार की कोई भूमिका कभी नहीं रही. बालासाहेब ठाकरे ने इस फैसले की निंदा की थी. वैसे बालासाहेब चुनाव खुद तो कभी नहीं लड़ते थे, लेकिन इस फैसले के चलते 1999 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वो वोट नहीं डाल पाए . फिर 2004 मे बैन हटने के बाद पहली बार उन्होंने वोट डाला.
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