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चुनावों में बाहरी दखल का डर! BJP और कांग्रेस को मिला है करोड़ों का विदेशी चंदा

Lok Sabha election Foreign Interference लोकसभा चुनाव अब बिल्कुल करीब आ गए हैं. ऐसे में यह सवाल फिर से उठने लगे हैं कि क्या भारतीय चुनाव में कोई विदेशी कंपनी या संस्था दखल कर सकती है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि कांग्रेस और बीजेपी, दोनों को विदेशी स्रोतों से चंदा मिला है.

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बीजेपी और कांग्रेस दोनों पर है विदेशी चंदा लेने का आरोप
बीजेपी और कांग्रेस दोनों पर है विदेशी चंदा लेने का आरोप

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लोकसभा चुनाव करीब आते ही यह आशंका फिर से मजबूत हुई है कि भारतीय चुनाव में विदेशी दखल हो सकता है. FCRA एक्ट में बदलाव से यह आशंका मजबूत हुई है. यह आशंका बेवजह नहीं कही जा सकती क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों बड़े राजनीतिक दलों को करोड़ों रुपये का विदेशी चंदा मिला है.

द एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) को राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा मिलने के ऐसे 34 वाकये मिले हैं. साल 2003-04 से 2011-12 के बीच 19 ऐसे मामले बीजेपी के और 15 मामले कांग्रेस के सामने आए हैं. ये सभी चंदे इस वजह से मिलने संभव हो सके क्योंकि सरकार ने एफसीआरए 2010 और 1976 में बदलाव कर दिया था. वेदांता की भारतीय सब्सिडियरी, डाओ केमिकल्स, ह्यात जैसी विदेशी कंपनियों से दोनों राजनीतिक दलों को 1 लाख रुपये से लेकर 14.5 करोड़ रुपये तक मिले हैं. इन वर्षों में बीजेपी को विदेशी स्रोत से कुल 19.4 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 9.83 करोड़ रुपये मिले हैं.

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इस तरह की फंडिंग को रोकना क्यों जरूरी है

राजनीतिक दलों को लोकतंत्र का रक्षक माना जाता है. वे चुनाव लड़ते हैं, सरकार बनाते हैं और कानून बनाते हैं. इसलिए उनको मिलने वाला चंदा हमारे लोकतंत्र और सरकार के संचालन के लिहाज से काफी महत्व रखता है. लॉ कमीशन ने चुनाव सुधारों पर साल 2015 की अपनी रिपोर्ट में तीन प्रमुख वजह बताए थे कि आखि‍र राजनीतिक दलों की फंडिंग व्यवस्था में सुधार और पारदर्श‍िता लानी क्यों जरूरी है. पहली बात तो यह है कि मनी पावर राजनीतिक दलों में बराबरी के मुकाबले की व्यवस्था को बाधित करता है और राजनीतिक दलों की शुद्धता को पतित करता है. धनी कैंडिडेट और राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने का ज्यादा मौका मिलता है.

दूसरा, काले धन, घूसखोरी और लेन-देन वाले भ्रष्टाचार का राजनीति में पहले से ही व्यापक बोलबाला है जिससे प्रत्याशियों को अपने चुनाव अभियान चलाने में मदद मिलती है. कमीशन ने अपनी बात को पुख्ता करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के इस क्वोट को आधार बनाया था, 'ऐसा लगता है कि कुछ चुनावी फंड का स्रोत बिना हिसाब-किताब वाला आपराधिक धन होता है जिनके बदले उनको संरक्षण मिलता है. इसी प्रकार इसमें कारोबारी समूहों का काला धन भी होता है, जो इस निवेश, घूस या ठेकों पर दिए गए कमीशन के बदले ऊंचा रिटर्न मिलने की उम्मीद रखते हैं.'

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तीसरा, अनियंत्रित या कम नियंत्रित चुनावी फंडिंग से दो तरह की चीजों को बढ़ावा मिलता है. ए-उद्योग जगत\निजी संस्थाएं धन का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए करती हैं कि नियम-कायदों को नरम बनाया जाए. बी-चुनावों की फंडिंग के लिए जो धन इस्तेमाल किया जाता है, वह आखिरकार 'अनुकूल नीतियों' को हासिल करने में मदद करता है.

सारे तिकड़म करते हैं राजनीतिक दल

हालांकि, इस बात को ध्यान में रखना होगा कि नियमों में जो बदलाव लाया गया है उसे अब पलटना इतना आसान नहीं है. पूर्ववर्ती एनडीए सरकार ने साल 2002 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश को पूरी तरह से पलटने का प्रयास किया था, इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सभी कैंडिडेट को चुनाव के हलफनामे में अपने शैक्षणिक और संपत्त‍ि संबंधी विवरण के साथ ही दर्ज आपराधिक मामलों की भी जानकारी देनी होगी. एनडीए सरकार ने पहले तो अध्यादेश से इसे रोकने की कोशिश की और फिर लोकसभा में इसके लिए एक बिल भी लेकर आई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट को जब यह पता चला तो उसने इस संशोधन को असंवैधानिक बताकर रोक दिया.

(www.dailyo.in से साभार)

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