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मालदा उत्तर लोकसभा सीट: साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने बढ़ाया सियासी तापमान, TMC-BJP के बीच टक्कर

इस सीट से मौजूदा कांग्रेस सांसद मौसम नूर टीएमसी में शामिल हो गई हैं. ममता बनर्जी ने उन्हें मालदा उत्तर से टीएमसी का कैंडिडेट बनाया है. कांग्रेस ने इस सीट से इशा खान चौधरी को टिकट दिया है. भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट से खगेन मुर्मू को कैंडिडेट बनाया है, जबकि सीपीएम ने विश्वनाथ घोष को टिकट दिया है. मुख्य राष्ट्रीय  पार्टियों के अलावा इस सीट से बहुजन समाज पार्टी, शिवसेना, बहुजन मुक्ति पार्टी समेत कई निर्दलीय कैंडिडेट भी चुनाव लड़ रहे हैं.

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पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी कार्यकर्ता (फोटो-twitter/BJP4Bengal)
पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी कार्यकर्ता (फोटो-twitter/BJP4Bengal)

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पश्चिम बंगाल में मालदा जिले की दोनों संसदीय सीटें उत्तर और दक्षिणी मालदा लोकसभा सीटें आगामी चुनावों में सबसे ज्यादा चर्चा के केंद्र में रहने वाली हैं. मुस्लिम बहुल इस इलाके में बीजेपी अपनी सक्रियता दिखा रही है. मालदा उत्तर लोकसभा सीट पर 23 अप्रैल को मतदान है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा बीजेपी और टीएमसी और कांग्रेस तीनों ही दल उठाना चाहती है.

यहां से मौजूदा कांग्रेस सांसद मौसम नूर टीएमसी में शामिल हो गई हैं. ममता बनर्जी ने उन्हें मालदा उत्तर से टीएमसी का कैंडिडेट बनाया है. कांग्रेस ने इस सीट से इशा खान चौधरी को टिकट दिया है. भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट से खगेन मुर्मू को कैंडिडेट बनाया है, जबकि सीपीएम ने विश्वनाथ घोष को टिकट दिया है. मुख्य राष्ट्रीय  पार्टियों के अलावा इस सीट से बहुजन समाज पार्टी, शिवसेना, बहुजन मुक्ति पार्टी समेत कई निर्दलीय कैंडिडेट भी चुनाव लड़ रहे हैं.

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राजनीतिक तस्वीर

साल 2009 में हुए परिसीमन में मालदा लोकसभा सीट दो हिस्सों में बंट गई. इनमें एक मालदा उत्तर लोकसभा सीट और दूसरी मालदा दक्षिण लोकसभा सीट बनीं. इस सीट पर ज्यादातर समय कांग्रेस का कब्जा रहा है. पहले लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक दो बार ही ऐसे मौके आए जब इस सीट पर माकपा के उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे. 1971 और 1977 के आम चुनावों माकपा के दिनेश चंद्र जोरदार लगातार चुनाव जीतते रहे.

पहले लोकसभा चुनाव 1951 में कांग्रेस के टिकट पर सुरेंद्र मोहन घोष चुनाव जीते थे. उनके बाद 1957 और 1962 के चुनावों में कांग्रेस से रेणुका राय चुनाव जीतीं. 1967 के चुनाव में कांग्रेस ने यू. रॉय को मैदान में उतारा जिन्होंने जीत हासिल की. 1971 और 1977 में कांग्रेस इस सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी. इसके बाद ए.बी.ए. घनी खान चौधरी 1980, 1984, 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 तक लगातार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतते रहे. वह यूपीए सरकार में मंत्री भी रहे. 2005 में उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के अबु हसेम खान चौधरी ने जीत हासिल की थी.  

आम, जूट और सिल्क के उत्पादन के लिए मशहूर मालदा पर इसलिए भी सबकी निगाहें होंगी क्योंकि इस क्षेत्र में बीजेपी, वाम मोर्चे के साथ तृणमूल कांग्रेस की भी नजर है. असल में, मालदा लंबे समय से कांग्रेस का गढ़ बना हुआ है, जहां न लेफ्ट दलों का जोर चलता है और न ही पश्चिम बंगाल में मजबूत होने के बावजूद तृणमूल का वहां जादू चल पा रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 2011 से पश्चिम बंगाल की सत्ता में हैं, लेकिन मालदा की सियासत में उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को जगह नहीं मिल सकी है. पश्चिम बंगाल का मालदा जिला बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ है, जहां आदिवासी और मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है.

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वर्ष 1980 से 2005 तक गनी खान चौधरी मालदा इलाके से चुनकर लोकसभा पहुंचते रहे हैं. 2005 में चौधरी के निधन के बाद से उनका परिवार यहां काबिज है. मालदा जिले में दो लोकसभा सीटें हैं. इनमें एक उत्तर मालदा सीट, जहां से गनी खान चौधरी की भतीजी मौसम नूर कांग्रेस से सांसद हैं और दूसरी,  दक्षिण मालदा सीट से उनके भाई अबु हासेमखान चौधरी कांग्रेस से सांसद हैं. हालांकि 2009 के लोकसभा चुनाव से उनके भाइयों और भतीजी के बीच दरार पड़ गई है. 2015 में उनके भाइयों में से एक ने पार्टी छोड़ दी और टीएमसी में शामिल हो गए.

2014 का जनादेश

मालदा उत्तर संसदीय क्षेत्र में पूर्व रेल मंत्री और कांग्रेस नेता गनी खान चौधरी की बेटी मौसम नूर 2006 से ही सांसद हैं. 2005 में गनी खान चौधरी के निधन के बाद हुए उप चुनाव में अबु हासेमखान चौधरी लोकसभा के लिए चुने गई थे. 2009 और 2014 के लिए हुए आम चुनावों में भी उनकी बहन मौसम नूर जीत हासिल करने में कामयाब रहीं. मालदा मुस्लिम बहुल क्षेत्र है और यह इलाका कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन अब इस इलाके में सियासी तौर पर दाखिल होने के लिए बीजेपी के साथ तृणमूल कांग्रेस भी जोर आजमाइश कर रही है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपना चुनावी बिगुल भी मालदा से ही फूंका. 2009 के मुकाबले 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस के वोट प्रतिशत में जो कमी देखी गई वह उसके लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकती है.  

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