लोकसभा चुनाव की घोषणा किसी भी दिन हो सकती है और ऐसा होते ही आचार संहिता भी लागू हो जाएगी. उससे पहले अलग-अलग सरकारों के लोकार्पण, शिलान्यास और सरकारी योजनाओं से जुड़े विज्ञापनों से दैनिक अखबार अटे पड़े हैं. अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भाषाओं के अखबारों में फुल पेज विज्ञापनों के बीच जन सरोकार की खबर कहीं छिप सी गई हैं. यूं तो इस तरह के विज्ञापनों का उद्देश्य सरकारी योजनाओं की जानकारी जनता तक पहुंचाना होता है, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि खुद के प्रचार के अलावा इसका कोई प्रमाण नहीं है कि विज्ञापनों का कितना लाभ जनता तक पहुंचा.
लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ ने बताया था कि केंद्र सरकार ने 2014 से सात दिसंबर 2018 तक सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार में कुल 5245.73 करोड़ रुपये की राशि खर्च की है. जबकि मोदी सरकार की तुलना में यूपीए सरकार के दस साल में कुल मिलाकर 5,040 करोड़ रुपये विज्ञापन पर खर्च हुए. यहां ये बताना जरूरी है कि मोदी सरकार का यह आंकड़ा दिसंबर 2018 तक का है और सरकार ने अभी कार्यकाल पूरा नहीं किया है.
केंद्र सरकार की तरफ से सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार पर होने वाला खर्च पिछले 5 सालों में साल दर साल बढ़ा है. जहां 2014-15 में विज्ञापन का बजट 979 करोड़ रुपये था, जो 2015-16 में बढ़कर 1160 करोड़ रुपये हो गया. 2016-17 में विज्ञापन का बजट पहले की तुलना में बढ़कर 1264 करोड़ रुपये हो गया तो वहीं 2017-18 में ये 1313 करोड़ रुपये पहुंच गया. विशेषज्ञों का मानना है कि चुनावी साल 2018-19 में विज्ञापनों पर होने वाला खर्च 1500 करोड़ रुपये पहुंच सकता है.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की निदेशक पीएन वसंती का कहना है कि आचार संहिता लागू होने से पहले खुल कर सरकारी विज्ञापन पहले भी छापे जाते रहे हैं. हालांकि इस दौर की बात करें तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खास तौर पर अपने संवाद कौशल और मास मीडिया के इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं. चाहे उनके कपड़े हों, बोलने का तरीका हो या फिर शब्दों की तुकबंदी हो विज्ञापनों में इसका पूरा ध्यान दिया जाता है. यहां तक कि विज्ञापन का ले-आउट भी उनके कपड़ों से मैच करा कर ही तैयार किया जाता है.
पीएन वसंती का कहना है कि विज्ञापनों पर खर्च होने वाला पैसा टैक्स भरने वाली जनता का पैसा होता है. यह कहा जाता है कि यह खर्च सरकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए किया जा रहा है. लेकिन क्या किसी ने कभी यह शोध करने की कोशिश की है कि इन विज्ञापनों के माध्यम से लोगों तक योजना का लाभ कितना पहुंचा? उन्होंने बताया कि इसके पीछे एक विज्ञान है जिससे पता लगाया जा सकता है कि इस तरह के विज्ञापनों को कितने लोगों ने पढ़ा, सुना या देखा. इसलिए यह सरकारी योजना के नाम पर खुद का प्रचार ही है.
सरकारी विज्ञापनों पर केंद्र की मोदी सरकार को घेरने वाली आम आदमी पार्टी भी इस मामले में पीछे नहीं है. एफएम रेडियो से लेकर टीवी और अखबारों में इन दिनों इसकी झलक खूब दिखाई दे रही है. अरविंद केजरीवाल सरकार ने दिल्ली जैसे छोटे राज्य में प्रचार प्रसार के लिए साल 2018-19 में 257 करोड़ का बजट रखा है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञापन देती हैं. लेकिन ऐन चुनावों के समय मतदाताओं को प्रभावित करने का हथकंडा विभिन्न राजनीतिक दल अपनाए रखना चाहते हैं. इसकी एक बानगी हाल में हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में देखने को मिली जब बीजेपी ने ऐन वोटिंग के दिन अखबारों में फुल पेज के विज्ञापन छपवाए. कांग्रेस पार्टी ने इसका विरोध किया तब इस मुद्दे पर बहस शुरू हुई और मामला चुनाव आयोग पहुंचा.
चुनाव आयोग ने इस बाबत कानून मंत्रालय को प्रस्ताव बनाकर भेजा लेकिन यह प्रस्ताव अभी लंबित पड़ा है. अब इसे कानून मंत्रालय की सुस्ती कही जाए या जान बूझ कर की गई देरी लेकिन चुनाव आयोग का प्रस्ताव अटक गया. जाहिर है इसके लिए जन प्रतिनिधि कानून में संशोधन करना पड़ेगा लेकिन यह इस लोकसभा में संभव नहीं है क्योंकि अब संसद का कोई सत्र बचा नहीं है. मसलन यह प्रवृत्ति 2019 लोकसभा में भी जारी रहेगी.