देश में बेरोजगारी को बड़ी समस्या बताकर जहां पूरा विपक्ष मोदी सरकार के कार्यकाल को फेल करार दे रहा है, वहीं राजस्थान का एक गांव ऐसा है, जहां रोजगार ही बर्बादी का सबब बन गया है. जोधपुर से 70 किलोमटर दूर राजवां गांव के लोगों के पास रोजी-रोटी कमाने का जो रास्ता है, उसी ने इनके फेफड़ों को कमजोर बना दिया है, जिससे पूरा गांव एक गंभीर बीमारी में फंस गया है. आलम ये है कि कई लोग अपनी जान तक गंवा चुके हैं.
हर 5 साल बाद देश में आम चुनाव के रूप में लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मनाया जाता है, जिसमें तमाम सब्जबाग दिखाए जाते हैं लेकिन क्या जमीन पर उन बातों पर अमल होता है, ये सवाल हमेशा बना रहता है. राजस्थान में लोकसभा चुनाव 2019 की महाकवरेज के दौरान आजतक की टीम जोधपुर से करीब 70 किलोमीटर दूर राजवा गांव पहुंची, जहां नजर आया कि सिस्टम की बेरुखी इस गांव की तकदीर बन चुकी है. दशकों से इनकी जिंदगी अच्छे दिनों के लिए मोहताज है.
सिलिकोसिस बीमारी की चपेट में आए ग्रामीण
गांव में न पीने का पानी है और न बुनियादी सुविधाएं. रोजी-रोटी के लिए मजदूरी का जो रोजगार भी है, वो जानलेवा बन गया है. इस गांव पर सिलिकोसिस नाम की गंभीर बीमारी का प्रकोप है, जिससे गांव के ज्यादातर पुरुष जूझ रहे हैं. जिंदगी चलाने के लिए गांव के पुरुष आसपास के इलाकों में 'सेंड स्टोन' की खदानों में पत्थर की कटाई का काम करते हैं. लेकिन खदान से जो धूल और धुआं इनके फेफड़ों में जाता है, वो एक गंभीर बीमारी को जन्म दे रहा है. आलम ये है कि गांव के कई लोग इस बीमारी से जूझते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं.
नत्थू सिंह और राजीव जैसे युवा सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित हैं. ज्यादातर मरीजों को उम्मीद है कि सरकार जल्दी ही उन्हें इलाज के लिए आर्थिक मदद मुहैया कराएगी. पोलाराम के बेटे रमेश जैसे कई लोग जिंदगी के साथ साथ मौत से भी संघर्ष कर रहे हैं. हालांकि, खदान के मालिक प्रकाश गहलोत से जब पूछा गया कि मजदूरों को सिलिकोसिस से बचाने के लिए खदान में काम करते समय सुरक्षा नियमों का पालन क्यों नहीं करवाया जाता तो उसने मजदूरों पर ही सवाल खड़ा कर दिया. प्रकाश गहलोत का कहना है कि उसकी खदान में माइनिंग कानून के तहत हर नियम का पालन होता है और मजदूरों से हमेशा कहा जाता है कि वह सुरक्षा नियमों का पालन करें. बहरहाल, गांव के पुरुष जहां गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं तो महिलाओं की स्थिति भी कम परेशान करने वाली नहीं है.
गांव में घुसने के पहले ही सड़क के किनारे महिलाएं फावड़ा कुदाल और तसला लेकर बंजर जमीन पर तपते सूरज के नीचे मेहनत मजदूरी करते नजर आती हैं. आमदनी के नाम पर इन महिलाओं को नरेगा का सहारा है जिसके तहत सड़क के किनारे एक तालाब खोदने का प्रोजेक्ट लाया गया. 15 दिन के रोजगार में प्रतिदिन 60 से 100 रुपये की कमाई होती है, उसके भुगतान की भी कोई तय तारीख नहीं है.
इस गांव को दशकों से सपने दिखाए गए कि 24 घंटे पानी मुहैया कराया जाएगा लेकिन आज भी वह सपना महज सपना रह गया. नल में कभी पानी आया तो आया वरना 300 से 400 देकर टैंकर के जरिए पीने का पानी मिलता है. महीने में 600 से 800 रुपये इस गांव का हर परिवार पानी के टैंकर पर खर्चा करता है. ज्यादातर महिलाएं पानी की कमी को सबसे बड़ी समस्या मानती हैं. गांव में नल तो लग गए लेकिन पानी नहीं आता है. सप्ताह में 1 दिन पानी आ जाए तो उसे यह महिलाएं सबसे बड़ा सुख मानती हैं.
बहरहाल, एक बार फिर चुनाव है. गांव फिर निकलेगा, वोट डालेगा, उम्मीदों के सपने संजोएगा लेकिन जो सवाल उनके सामने बन कर खड़ा है कि क्या कभी उनकी उम्मीदें पूरी होंगी? क्या कभी उनके अच्छे दिन आएंगे? क्योंकि जोधपुर का यह गांव ऐसा जहां जिंदगी भी संघर्ष करती है और मौत से भी संघर्ष होता है.