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माया-अखिलेश गठबंधनः न 93 जैसी BJP है, न मुलायम-कांशीराम जैसा करिश्मा

लोकसभा चुनाव 2019 के लिए उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन की राह पर हैं. इसी तरह से 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने गठबंधन करके बीजेपी को मात दी थी. हालांकि 25 साल के बाद अखिलेश और मायावती के लिए पहले जैसे नतीजे दोहराना एक बड़ी चुनौती है.

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अखिलेश यादव और मायावती (फोटो-Aajtak)
अखिलेश यादव और मायावती (फोटो-Aajtak)

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उत्तर प्रदेश की सियासत में मायावती और अखिलेश यादव की संयुक्त प्रेस वार्ता से नई इबारत लिखी जा रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को मात देने लिए 23 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर सपा-बसपा सूबे में एक बार फिर गठबंधन की राह पर हैं. 1993 में राम मंदिर आंदोलन पर सवार बीजेपी को हराने वाली मुलायम-कांशीराम की जोड़ी की तरह मोदी लहर पर सवार पार्टी को हराने के लिए अखिलेश-मायावती की जोड़ी बन रही है. हालांकि 1993 से लेकर 2019 तक गंगा-गोमती और यमुना में बहुत पानी बह चुका है. यही वजह है कि माया-अखिलेश वाले इस गठबंधन के लिए 25 साल पहले जैसे नतीजे दोहराना बड़ी चुनौती माना जा रहा है.

सपा-बसपा गठबंधन में सीट शेयरिंग

अखिलेश यादव और मायावती कांग्रेस को अलग रखकर सूबे में गठबंधन कर रहे हैं. इसकी घोषणा शनिवार को दोनों नेता अपनी ज्वाइंट कॉफ्रेंस में कर सकते हैं. सीट शेयरिंग फॉर्मूला भी तभी सामने आएगा. माना जा रहा है कि सपा 36 और बसपा 37 सीट पर चुनाव लड़ेगी. आरएलडी के लिए 3 सीटें जबकि पीस पार्टी, निषाद पार्टी जैसे दलों के लिए 2 सीटें रिजर्व रखी जा सकती हैं. अमेठी और रायबरेली सीट पर गठबंधन अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगा.

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सपा-बसपा के गठबंधन के बाद  राजनीतिक पंडित मानकर चल रहे हैं कि बीजेपी के लिए सूबे की राह आसान नहीं होगी. इसके लिए वो 1993 में सपा-बसपा गठबंधन का उदाहरण दे रहे हैं, लेकिन मौजूदा सियासी माहौल को अगर राजनीतिक और जातीय समीकरण के मद्देनजर देंखे तो 25 साल पहले जैसे हालात आज नहीं हैं.

मंडल आंदोलन के दौर में मुलायम-कांशीराम

दरअसल सपा-बसपा ने 25 साल पहले जब हाथ मिलाया था वह दौर मंडल का था, जिसने सूबे के ही नहीं बल्कि देश के पिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया था. मुलायम सिंह यादव ओबीसी के बड़े नेता बनकर उभरे थे और राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ एकजुट था. इसके अलावा कांशीराम भी दलित और ओबीसी जातियों के नेता बनकर उभरे थे. ऐसे में जब दोनों ने हाथ मिलाया तो सामाजिक न्याय की उम्मीद जगी थी. इसी का नतीजा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी. हालांकि ये गठबंधन 1995 में टूट गया, जिसके बाद यादव और दलितों के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गई.

सूबे का जातीय समीकरण

सूबे में इस समय 22 फीसदी दलित वोटर हैं, जिनमें 14 फीसदी जाटव और चमार शामिल हैं. ये बसपा का सबसे मजबूत वोट है. जबकि बाकी 8 फीसदी दलित मतदाताओं में पासी, धोबी, खटीक मुसहर, कोली, वाल्मीकि, गोंड, खरवार सहित 60 जातियां हैं. वहीं, 45 फीसदी के करीब ओबीसी मतदाता हैं. इनमें यादव 10 फीसदी, कुर्मी 5 फीसदी, मौर्य 5 फीसदी, लोधी 4 फीसदी और जाट 2 फीसदी हैं. बाकी 19 फीसदी में गुर्जर, राजभर, बिंद, बियार, मल्लाह, निषाद, चौरसिया, प्रजापति, लोहार, कहार, कुम्हार सहित 100 से ज्यादा उपजातियां हैं. 19 फीसदी के करीब मुस्लिम हैं.

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गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित बीजेपी के साथ

बीजेपी यूपी में अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए 2014 और 2017 के विधानसभा चुनाव में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही है. इसी का नतीजा है कि पहले लोकसभा और फिर विधानसभा में बीजेपी के सामने सपा-बसपा पूरी तरह से धराशाही हो गई थीं. ओबीसी चिंतक राकेश कुशवाहा कहते हैं कि  बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद सरकार में इन दलित व ओबीसी जातियों को हिस्सेदार भी बनाया है. इतना ही नहीं ओबीसी को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को भी बीजेपी तीन कैटेगरी में बांटने की रणनीति पर काम कर रही है.

ऐसे में सपा-बसपा गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती इन दलित और ओबीसी जातियों को अपने साथ जोड़ने की होगी. दरअसल सपा बसपा पर आरोप लगता रहा है कि वे यादव, मुस्लिम और जाटवों की पार्टी हैं. जबकि मौजूदा राजनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के अंदर भी राजनीतिक चेतना जागी है, ऐसे में इन्हें साधे बिना बीजेपी को मात देना अखिलेश और मायावती के लिए टेढ़ी खीर होगा.

सपा-बसपा के लिए चुनौतियां

राजनीतिक विश्लेषक सुनील कुमार सुमन ने कहा कि यूपी में सपा-बसपा के बीच गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती वोटों को ट्रांसफर की है.  जिन सीटों पर समाजवादी पार्टी लड़ रही है, वहां बसपा का वोट तो ट्रांसफर हो सकता है, लेकिन जिन सीटों पर बसपा लड़ रही है वहां सपा के वोट ट्रांसफर होना मुश्किल हो सकता है. ये आशंका इसलिए भी है कि अभी हालिया इलाहाबाद विश्वविद्यालय चुनाव के नतीजों को देखें तो समाजवादी छात्र सभा से अध्यक्ष पद पर उदय प्रकाश यादव ने बड़े अंतर से जीत हासिल की, लेकिन उपाध्यक्ष पद पर सपा प्रत्याशी मुनेश कुमार सरोज न सिर्फ बड़े अंतर से चुनाव हारे बल्कि तीसरे नंबर पर चले गए.

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वहीं, इस सीट पर एनएसयूआई के अखिलेश यादव चुनाव जीत हासिल की तीसरा सबसे बड़ा चैलेंज जिन सीटों पर गठबंधन से मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे, उन सीटों पर सपा और बसपा अपने वोटरों को कैसे ट्रांसफर कराएंगे? क्योंकि मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ज्यादा संभावनाएं रहती हैं.

2014 के समीकरण

गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 संसदीय सीटों में से बीजेपी गठबंधन में 73 सीटें जीतने में सफल रही थी और बाकी 7 सीटें विपक्ष को मिली थीं. बीजेपी को 71, अपना दल को 2, कांग्रेस को 2 और सपा को 5 सीटें मिली थीं. बसपा का खाता तक नहीं खुल सका था. हालांकि सूबे की 3 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से 2 पर सपा और एक पर आरएलडी को जीत मिली थी. इस तरह बीजेपी के पास 68 सीटें बची हैं और सपा की 7 सीटें हो गई हैं.

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