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सफल नहीं रहा गठबंधन तो माया-अखिलेश के लिए मुश्किल होगी आगे की राह

लोकसभा चुनाव 2019 नरेंद्र मोदी से लिए जितना अहम है उससे कहीं ज्यादा सपा और बसपा के लिए महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि दोनों दलों ने 23 साल पुरानी दुश्मनी को भुलाकर गठबंधन किया है. ऐसे में अगर सपा-बसपा मिलकर भी सूबे में बीजेपी के विजय रथ को नहीं रोक पाती हैं तो आने वाला समय में दोनों दलों के लिए वजूद को बरकरार रखने की चुनौती होगी.

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मायावती और अखिलेश यादव (फोटो-Twitter)
मायावती और अखिलेश यादव (फोटो-Twitter)

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लोकसभा चुनाव 2019 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा इसकी अहमियत समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती के लिए मानी जा रही है. यही वजह है कि अपने सियासी वजूद को बचाए रखने के लिए सपा-बसपा ने 23 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर गठबंधन करने का फैसला किया है. इसके बावजूद अगर सपा-बसपा मिलकर भी नरेंद्र मोदी के विजय रथ को उत्तर प्रदेश में नहीं रोक पाते हैं तो फिर दोनों दलों खासकर बसपा के लिए अपने राजनीतिक वजूद को बरकरार रख पाना मुश्किल साबित हो सकता है.

मायावती और अखिलेश यादव ने गठबंधन कर नरेंद्र मोदी के सामने एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस ने सूबे के छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर तीसरी ताकत के रूप में सभी सीटों पर उतरने का फैसला किया है. सपा-बसपा गठबंधन दलित, यादव और मुस्लिम वोटबैंक के दम पर जहां सूबे की सियासी जंग फतह करने की उम्मीद लगा रही हैं.

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वहीं, बीजेपी सवर्ण, गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित मतदाताओं के सहारे 2014 जैसे नतीजे दोहराने की बात कह रही है. हालांकि, कांग्रेस को तीन राज्यों में मिली जीत से उसके हौसले बुलंद है. ऐसे में मुकाबला त्रिकोणीय होने की संभावना दिख रहा है. सूबे का सियासी संग्राम में कोई भी किसी से कम नहीं नजर आ रहा है. ऐसे में सपा-बसपा सूबे में मोदी को मात नहीं दे पाते हैं तो फिर उनके सामने सियासी संकट खड़ा होना लाजमी है.

सपा-बसपा के लिए अस्तित्व बचाने की चुनौती

यूपी के 2012 विधानसभा चुनाव के बाद से मायावती का लगातार जनाधार घटा है. उनकी पार्टी लगातार दो विधानसभा चुनाव हार चुकी है और लोकसभा में उनका खाता तक नहीं खुला है. मौजूदा समय में यूपी में बसपा के पास 19 विधायक हैं, लेकिन लोकसभा सदस्य एक भी नहीं है. वहीं, सपा 2014 में मात खाने के बाद 2017 में अखिलेश यादव को सत्ता गंवानी पड़ी. सपा के पास महज 47 विधायक है, ये पार्टी के इतिहास में सबसे कम है. ऐसे में सपा-बसपा मिलकर 2019 में कोई बड़ा करिश्मा नहीं कर पाते हैं तो दोनों दलों को अपने अस्तित्व को बचाए रखना बहुत मुश्किल होगा.

दलित-ओबीसी वोटबैंक की दावेदारी कमजोर होगी

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सूबे का दलित मतदाता बसपा का मूलवोट बैंक माना जाता है. यही वजह है कि 2014 में करीब 19 फीसदी और 2017 में बसपा को 21 फीसदी के करीब वोट मिला है. वहीं, सपा का परंपरागत वोट बैंक यादव और मुस्लिम के साथ-साथ ओबीसी माने जाते हैं. इसी के मद्देनजर सपा-बसपा ने गठबंधन किया है, लेकिन इसके बावजूद अगर बीजेपी को मात नहीं दे पाते हैं तो फिर दोनों पार्टियों के वोटबैंक का झुकाव दूसरे दलों की तरफ हो सकता है.  

मोदी विरोधी मुहिम कमजोर होगी

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन को 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में देखा जा रहा है. दोनों दलों राजनीतिक और जातीय समीकरण के लिहाज से काफी मजबूत भी हैं. ऐसे में ये भी राजनीतिक प्रयोग मोदी के खिलाफ सफल नहीं होता है तो इसके बाद कम से कम यूपी में मोदी विरोधी मुहिम को तगड़ा झटका लगेगा.

सूबे में राष्ट्रीय दल हावी होंगे

सपा-बसपा मिलकर चुनावी मैदान में बीजेपी को नहीं हरा पाते हैं तो ऐसी हालत में दोनों दलों के वोटबैंक छिटक सकते हैं. ऐसी स्थिति में इन दोनों दलों के परंपरागत वोट राष्ट्रीय दलों की तरफ जाने का रुख कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस और बीजेपी- दोनों दलों को इससे ताकत मिलेगी.

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