लोकसभा चुनाव अब अंतिम पड़ाव की ओर है और सियासी दल चुनाव बाद गठबंधन की तस्वीर को लेकर गुणा-गणित सेट करने में जुट गए हैं. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को चुनौती दे रहा है. वहीं, टीएमसी प्रमुख और सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी को विपक्षी इंडिया ब्लॉक का पार्टी बताते हुए सरकार बनने की स्थिति में पहले बाहर से समर्थन देने की बात कही और फिर कुछ ही घंटे बाद ये कहा कि हम सरकार में शामिल होंगे.
ममता बनर्जी ने ऐसी 'गुगली' फेंकी कि कांग्रेस नेतृत्व और पश्चिम बंगाल कांग्रेस आमने-सामने आ गए. पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर ने ममता पर निशाना साधा तो कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने सख्त लहजे में कह दिया कि चुनाव बाद सरकार गठन में क्या होगा और क्या नहीं, ये कांग्रेस हाईकमान तय करेगा. यह तय करने के लिए अधीर रंजन चौधरी अधिकृत व्यक्ति नहीं हैं. उन्हें (अधीर को) हाईकमान की बात माननी होगी और जो सहमत नहीं होंगे, वो बाहर जाएंगे.
ममता की पार्टी को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने ही प्रदेश अध्यक्ष के लिए रेड लाइन खींच दी तो बंगाल में इसका विरोध भी हुआ. कोलकाता स्थित कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय के बाहर लगी होर्डिंग्स पर खड़गे की तस्वीर पर स्याही पोते जाने की घटना हुई तो वहीं अधीर ने भी साफ शब्दों में कहा कि मैं भी हाईकमान का ही आदमी हूं, सीडब्ल्यूसी का मेंबर हूं. किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में नहीं बोल सकता जो हमारी पार्टी को राजनीतिक रूप से खत्म करना चाहता है.
अधीर ने ममता को लेकर अपने विरोध को सैद्धांतिक बताया और कहा कि इसमें व्यक्तिगत हित या अहित का भाव नहीं है. उनसे (ममता) व्यक्तिगत द्वेष नहीं है लेकिन उनकी सियासी नैतिकता पर सवाल उठाता हूं. उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस के हर कार्यकर्ता की लड़ाई है और मैंने उनकी ओर से बात की है. ममता के बयान, खड़गे की रेड लाइन और अधीर के तेवर देख बात अब इसे लेकर होने लगी है कि क्या पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अब टीएमसी प्रमुख को बर्दाश्त करेंगे या फिर कांग्रेस छोड़ जाएंगे?
क्या कहते हैं जानकार
पश्चिम बंगाल की पत्रकारिता में लंबे समय तक सक्रिय रहे वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने कहा कि ममता बनर्जी से लेकर मल्लिकार्जुन खड़गे और अधीर रंजन चौधरी, तीनों के ही बयान अपने-अपने टारगेट के इर्द-गिर्द ही हैं. ममता जानती हैं कि इस चुनाव में 2019 के मुकाबले एक भी सीट कम होने का सीधा अर्थ होगा कि 2026 की लड़ाई उनके लिए और मुश्किल होने वाली है. खड़गे का गोल दिल्ली की सरकार है तो वहीं अधीर भले ही लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता हैं, पश्चिम बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष होने के नेता उनकी जवाबदेही सूबे की सियासत को लेकर है. बंगाल में कांग्रेस को फिर से खड़ा होना है तो पार्टी को पहले विपक्ष की भूमिका में नजर आना होगा और अधीर उसी ट्रैक पर नजर आ रहे हैं.
क्या करेंगे अधीर रंजन?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के कड़े रुख के बाद अब सवाल ये भी उठ रहे हैं कि अधीर की आगे की सियासी राह क्या होगी? अधीर जिन ममता बनर्जी के विरोध की बुनियाद पर सियासत करते आए हैं, उन्हीं ममता को बर्दाश्त करेंगे या फिर कांग्रेस छोड़ जाएंगे?
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1- ममता को बर्दाश्त करेंः एक विकल्प यह भी है कि अधीर रंजन चौधरी टीएमसी और ममता बनर्जी को बर्दाश्त करें जिनका वो अब तक विरोध करते आए हैं. लेकिन ऐसी परिस्थितियां तभी बनेंगी जब कांग्रेस और टीएमसी गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरें. लोकसभा चुनाव दोनों दलों ने अलग-अलग लड़ा. विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन के आसार नहीं के बराबर ही हैं.
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2- बंगाल छोड़ संभाल लें किसी और राज्य की जिम्मेदारीः अधीर की इमेज संगठन के नेता की है. ऐसे में ममता के साथ आने पर हो सकता है कि अधीर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी छोड़ किसी और राज्य की जिम्मेदारी संभाल लें. हालांकि, यह नौबत तभी आ सकती है जब टीएमसी सरकार में शामिल हो और बंगाल में भी वह कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़े.
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3- कांग्रेस छोड़ जाएं अधीरः अधीर रंजन चौधरी की सियासत का जो ट्रैक रहा है, वह तेवर वाले नेता हैं. खड़गे के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा भी कि यह सिद्धांत की लड़ाई है और इसे बीच में नहीं रोक सकता. अगर कांग्रेस नेतृत्व की ओर से दबाव बनाने की कोशिशें हुईं तो हो सकता है कि अधीर पार्टी छोड़ जाएं.
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4- बंगाल में अपना काम अपने तरीके से करते रहेंः क्षत्रपों के लिए अपने इलाके की सियासी जमीन प्राथमिकता होती है. ममता ने भी दिल्ली में गठबंधन की बात कहते हुए साफ किया है कि बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट, टीएमसी नहीं बीजेपी के साथ हैं. ममता के इस 'दिल्ली में साथ, बंगाल में विरोध' के फॉर्मूले ने अधीर के लिए सूबे में अपना काम अपने तरीके से करते रहने को खिड़की खुली छोड़ दी है.