
लोकसभा चुनाव करीब हैं और केंद्र की सत्ता पर काबिज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अगुवा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने दक्षिण के राज्यों पर फोकस कर दिया है. कर्नाटक में बीजेपी कई बार सरकार बना चुकी है, तेलंगाना में भी पार्टी का ग्राफ चढ़ा है. ऐसे में अब तमिलनाडु बीजेपी के मिशन साउथ का नया केंद्र बनकर उभरा है.
तमिलनाडु की चुनौती कड़ी है और यह उन प्रदेशों में से एक है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी भी कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई है. अब पार्टी तमिल सियासत में अपनी जमीन बनाने के लिए नई रणनीति पर बढ़ती नजर आ रही है. तमिलनाडु में बीजेपी की रणनीति क्या है? इसकी चर्चा से पहले यह जानना भी जरूरी है कि पिछले चुनावों में पार्टी का प्रदेश में प्रदर्शन कैसा रहा और समस्याएं कहां रही हैं.
2019 में शून्य पर सिमट गई थी बीजेपी
तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें हैं. दक्षिण भारत में सबसे अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्य में पिछली बार यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट पर कमल नहीं खिल सका था. 2019 में बीजेपी ने तमिलनाडु की पांच लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और पार्टी को कुल मिलाकर 15 लाख 51 हजार 924 वोट मिले थे. करीब 3.7 फीसदी वोट पाने के बावजूद बीजेपी शून्य सीटों पर सिमट गई थी. लेकिन साल 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में पार्टी चार सीटें जीतकर विधानसभा के भीतर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में सफल जरूर रही. यह भी एक तथ्य है कि तब बीजेपी का एक स्थानीय पार्टी एआईएडीएमके के साथ गठबंधन था.
तमिलनाडु में क्यों कमजोर रही है बीजेपी की जमीन?
बीजेपी के साथ हिंदी बेल्ट की पार्टी का टैग रहा है और तमिलनाडु की सियासत का मिजाज एक हद तक हिंदी विरोध का भी रहा है. तमिलनाडु की सत्ताधारी डीएमके का हिंदी विरोध जगजाहिर है. द्रविड़ आंदोलन से निकले करुणानिधि की पार्टी का सत्ता में होना अपने आप में सूबे का सियासी मिजाज बताने के लिए काफी है. सूबे की सियासत एक हद तक पेरियार आंदोलन के इर्द-गिर्द भी घूमती रही है और हार्डकोर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी की छवि भी तमिलनाडु में अपनी सियासी जमीन तैयार करने की मुहिम में बीजेपी के लिए बाधक रही है. बीजेपी की कमजोर सियासी जमीन के पीछे पांच प्रमुख वजहें-
1. कैडर इंफ्रास्ट्रक्चर को बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत माना जाता है. बीजेपी के साथ ही उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े अनुसांगिक संगठन भी तमिलनाडु में इस मोर्चे पर उतने मजबूत नहीं रहे हैं.
2. बीजेपी के पास तमिलनाडु में नेतृत्व का भी अभाव रहा है. बीजेपी के पास अब तक तमिलनाडु में कोई लोकप्रिय लोकल लीडर नहीं रहा है जबकि यह ऐसा राज्य है जहां करिश्माई नेता ही भीड़ और वोट की गारंटी माने जाते हैं.
3. बीजेपी तमिलनाडु के लोकल मुद्दों से खुद को कनेक्ट करने में असफल रही है. तमिल अस्मिता, कृषि क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं से लेकर जल प्रबंधन तक, तमिलनाडु बीजेपी का रुख इन मुद्दों पर भी साफ नहीं है.
4. बीजेपी तमिलनाडु में लंबे समय तक अन्नाद्रमुक की उंगली पकड़कर चलती रही है. गठबंधन में जूनियर पार्टनर के रोल में रही बीजेपी अलायंस के भरोसे रही है.
5. बीजेपी का कैडर बेस कमजोर है और इसकी वजह से पार्टी के लिए जिताऊ उम्मीदवारों की तलाश भी मुश्किल रही है.
तमिलनाडु में जीत के लिए क्या कर रही है बीजेपी?
बीजेपी को उत्तर भारत की पार्टी बताए जाने को लेकर गृह मंत्री अमित शाह ने एजेंडा आजतक के मंच से कहा था कि 2024 चुनाव के बाद यह उत्तर-दक्षिण की बहस समाप्त हो जाएगी. बीजेपी ने लोकसभा चुनाव को लेकर अबकी बार 400 पार का नारा भी दे दिया है. पार्टी नेतृत्व समझ रहा है कि लक्ष्य तक पहुंचना है तो बस उत्तर भारत के सहारे नहीं रहा जा सकता. यही वजह है कि बीजेपी के बड़े नेता लगातार तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों के लगातार दौरे कर रहे हैं. तमिल सियासत साधने के लिए बीजेपी क्या कर रही है?
1.कैडर तैयार करने पर फोकस- तमिल लैंड में सियासी जमीन तलाश रही बीजेपी ने अब कैडर बेस तैयार करने पर फोकस कर दिया है. पार्टी खुद को एक विकल्प के रूप में पेश करने की रणनीति पर काम कर रही है. यही वजह है कि एक तरफ पार्टी स्टालिन सरकार के खिलाफ लगातार मुखर है, सड़कों पर उतर आंदोलन कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष अन्नामलाई पदयात्रा पर निकले हैं. यह कैडर बेस बनाने की रणनीति का ही अंग माना जा रहा है.
2. छोटी पार्टियों से गठबंधन- एआईएडीएमके के एनडीए से नाता तोड़ने के बाद बीजेपी अब तमिलनाडु में नए सहयोगियों की तलाश में है. अंबुमणि रामदास की पट्टाली मक्कल काची (पीएमके), टीटीवी दिनाकरन के नेतृत्व वाली अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़गम (एएमएमके), विजयकांत की देसिया मुरपोक्कू द्रविड़ कड़गम (डीएमडीके), ओ पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व वाले एआईएडीएमके (के गुट) के साथ गठबंधन के लिए बीजेपी की बातचीत के चर्चे हैं. बीजेपी तमिल मनीला कांग्रेस, टीआर पारीवेंधर की इंडिया जननायक काची (आईजेके), के कृष्णासामी की पुथिया तमिलगम (पीटी), एसी शनमुगम की पुथिया निधि काची, देवनाथन यादव की इंथिया मक्कल कालवी मुनेत्र कड़गम (आईएमकेएमके) और जॉन पांडियन के नेतृत्व वाली तमिझागा मक्कल मुनेत्र कड़गम (टीएमएमके) जैसी छोटी पार्टियों को भी अपने साथ लाने की कोशिश में है.
3. शहरी क्षेत्र पर फोकस- तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के साथ ही कोयंबटूर और मदुरै जैसे प्रमुख शहरों में उत्तर भारतीय लोगों की आबादी अच्छी खासी है. सूबे की शहरी आबादी में बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों, खासकर यूपी-बिहार जैसे राज्यों के निवासियों का है. ये ऐसे राज्य हैं जहां बीजेपी अपेक्षाकृत मजबूत मानी जाती है. बीजेपी के साथ शहरी पार्टी होने का टैग भी रहा है और अब पार्टी का फोकस इन शहरी इलाकों पर है.
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4. ट्रिपल सी रणनीति- दक्षिण भारत के राज्यों, खासकर तमिलनाडु में सियासी आधार तलाश रही बीजेपी ट्रिपल सी रणनीति पर काम कर रही है. ट्रिपल सी यानी कल्चल नेशनलिज्म, करप्शन और क्रेडिबिलिटी. काशी-तमिल संगमम का आयोजन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जरिए तमिल लैंड साधने की रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. करप्शन को लेकर कांग्रेस को घेरने के साथ ही बीजेपी की रणनीति 10 साल की केंद्र सरकार और कर्नाटक सरकार के कामकाज को आधार बनाकर जनकल्याकारी योजनाओं, राम मंदिर और जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के पूरे किए वादों के सहारे क्रेडिबिलिटी स्थापित करने की भी है.
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5. दूसरे दलों के नेताओं पर नजर- तमिलनाडु में दूसरे दलों के ऐसे नेताओं पर भी बीजेपी की नजर है. हाल ही में एआईएडीएमके के 15 पूर्व विधायकों और एक पूर्व सांसद बीजेपी में शामिल हो गए. कांग्रेस के कैडर, लीडर और वोटर जो तेजी से दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं, बीजेपी की रणनीति उनमें से मजबूत पकड़ वाले नेताओं को चयनित कर अपने पाले में लाने की है. अन्य दलों के ऐसे नेताओं को जोड़ने की भी कोशिश कर रही है जिनका अपना आधार है.