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ममता की कीमत पर लेफ्ट या लेफ्ट की कीमत पर ममता....कांग्रेस के लिए कहां फायदा?

ममता बनर्जी ने एकला चलो का नारा बुलंद कर कांग्रेस को फंसा दिया है. दीदी के दांव से डैमेज कंट्रोल के मोड में आई कांग्रेस ऐसे दोराहे पर खड़ी हो गई है जहां से उसे ममता की कीमत पर लेफ्ट या लेफ्ट की कीमत पर ममता का साथ चुनना होगा. कांग्रेस के लिए कहां फायदा है?

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राहुल गांधी और ममता बनर्जी (फाइल फोटोः पीटीआई)
राहुल गांधी और ममता बनर्जी (फाइल फोटोः पीटीआई)

ममता बनर्जी ने ऐलान कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) लोकसभा चुनाव में अकेले ही मैदान में उतरेगी. ममता के इस ऐलान के बाद कोलकाता से दिल्ली तक हलचल मची हुई है. कांग्रेस डैमेज कंट्रोल के मोड में आ गई है. ममता के खिलाफ मुखर रहने वाले पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने चुप्पी साध ली है तो वहीं लेफ्ट अब और आक्रामक हो गया है.  माकपा पश्चिम बंगाल के सचिव मोहम्मद सलीम ने नीतीश कुमार के एक पुराने बयान का जिक्र करते हुए ममता बनर्जी की बिन पेंदी के लोटे से तुलना कर दी और दावा किया कि बीजेपी और संघ के इशारे पर टीएमसी बनी जिससे कांग्रेस को तोड़कर ममता बनर्जी एनडीए में जा सकें.

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लेफ्ट नेता सलीम के इस बयान में कुछ आश्चर्यजनक भी नहीं है, ना ही स्टैंड में किसी तरह का बदलाव ही नजर आ रहा है. लेफ्ट नेता इंडिया गठबंधन की बेंगलुरु में हुई दूसरी बैठक से लेकर दिल्ली में हुई चौथी बैठक और अब तक यह दो टूक कहते आए हैं कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी से गठबंधन नहीं होगा. ममता बनर्जी ने भी पिछले दिनों यह आरोप लगाया था कि लेफ्ट गठबंधन को रूल करने की कोशिश कर रहा है. अब लेफ्ट का अड़ियल रुख और ममता बनर्जी की क्लियर लाइन, पश्चिम बंगाल की सियासत में ऐसे दोराहे पर खड़ी हो गई है जहां से एक रास्ता लेफ्ट के साथ जाता है जिस रास्ते पर वह पहले से ही है. और दूसरा रास्ता ममता बनर्जी की पार्टी के साथ जाता है.

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लेफ्ट और टीएमसी का साथ आना मुश्किल ही है और ऐसे में अब कांग्रेस इस सवाल में उलझ गई है कि लेफ्ट का पुराना साथ चुनें या ममता की शर्तें मानकर उनके साथ चलें. कांग्रेस को लेफ्ट की कीमत पर ममता का साथ चुनना होगा या ममता की कीमत पर लेफ्ट का. अब चर्चा का सेंटर पॉइंट यह भी है कि कांग्रेस के लिए आखिर कहां फायदा है?

कांग्रेस का किसके साथ जाने में फायदा

टीएमसी के साथ पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी होने का माइलेज है ही, पार्टी का सांगठनिक ढांचा भी मजबूत है. विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक अकेले लड़ते हुए टीएमसी का प्रदर्शन भी उसकी मजबूती दर्शाता है. कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस अगर पश्चिम बंगाल में सियासी जमीन बचाना चाहती है, बनाना चाहती है तो टीएमसी के साथ जाना उसके लिए फायदे का सौदा हो सकता है. लेफ्ट के साथ गठबंधन कर वह पहले भी चुनाव लड़ चुकी है नतीजे सिफर ही रहे हैं. लेफ्ट पश्चिम बंगाल की सियासत में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी बीजेपी के हाथों गंवा चुकी है.

जो पार्टी खुद अपना औचित्य बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हो, उसके साथ जाने से कांग्रेस का क्या ही भला होगा. कांग्रेस के नेता भी इसे बखूबी समझते हैं और शायद यही वजह है कि पार्टी ममता के ऐलान के बाद डैमेज कंट्रोल की मुद्रा में आ गई है. लेफ्ट के साथ जाने से कांग्रेस को लड़ने के लिए भले ही अधिक सीटें मिल जाएं, लेकिन टीएमसी के साथ जाने से जितनी भी सीटें हिस्से आएं उन पर जीत की संभावनाएं लेफ्ट के साथ की तुलना में अधिक होंगी. दूसरा पहलू ये है कि कांग्रेस भले ही बंगाल में दो या चार, जितनी भी सीटों पर लड़कर जीते, इंडिया गठबंधन की सीटें डबल डिजिट में होंगी.

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क्यों फंसा गठबंधन में पेच

टीएमसी के अलग राह चुनने के ऐलान के पीछे लेफ्ट के अड़ियल रुख और अधीर रंजन की बयानबाजियों को प्रमुख वजह बताया जा रहा है. पटना में हुई विपक्षी गठबंधन की पहली बैठक के समय से ही अधीर रंजन लगातार ममता पर हमला बोलते रहे. जलापाईगुड़ी जिले की धूपगुड़ी विधानसभा सीट के लिए कुछ महीने पहले उपचुनाव हुआ था. उसे भी बंगाल में इंडिया गठबंधन के लिए लिटमस टेस्ट की तरह देखा जा रहा था लेकिन उस उपचुनाव में लेफ्ट और टीएमसी के उम्मीदवार आमने-सामने थे.

धूपगुड़ी उपचुनाव में कांग्रेस ने टीएमसी की जगह लेफ्ट के साथ जाना सही समझा था. कहा तो यह भी जा रहा है कि ममता बनर्जी ने तभी यह मन बना लिया था कि अब कांग्रेस के साथ गठबंधन की गाड़ी आगे बढ़ेगी तो उनकी शर्तों पर ही. ममता ने दो सीट की रेड लाइन खींच दी और कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग पर बातचीत के लिए अपने नेताओं को भेजने से भी इनकार कर तल्ख तेवर दिखा दिए थे.  

क्या कहते हैं आंकड़े

पिछले चुनावी आंकड़ों की बात करें तो वह भी इसी तरफ इशारा करते हैं. पिछले तीन लोकसभा चुनावों की बात करें तो कांग्रेस और लेफ्ट, दोनों ही दलों का वोट शेयर हर चुनाव में गिरता चला गया. इसके ठीक उलट टीएमसी और बीजेपी का ग्राफ चढ़ता चला गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 13.5 फीसदी वोट शेयर के साथ छह सीटों पर जीत मिली थी. टीएमसी की 19 सीटों के मुकाबले लेफ्ट भले ही नौ सीटें जीत सका था लेकिन उसे ममता बनर्जी की पार्टी को मिले 31.2 फीसदी वोट के मुकाबले उसे करीब दो फीसदी अधिक 33.1 फीसदी वोट मिले थे. 2014 में टीएमसी को 39.8 फीसदी वोट शेयर के साथ 34, कांग्रेस को 9.7 फीसदी वोट के साथ चार और लेफ्ट को 23 फीसदी वोट शेयर के साथ दो सीटें मिली थीं.

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पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी का वोट शेयर 43.3 फीसदी फीसदी पहुंच गया. हालांकि सीटों की संख्या 22 पर आ गई. वहीं, कांग्रेस 5.6 फीसदी वोट के साथ दो सीटों पर सिमट गई. लेफ्ट 6.3 फीसदी वोट शेयर के बावजूद खाता तक नहीं खोल सका था. दूसरी तरफ, 2009 के चुनाव में 6.1 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट जीतने वाली बीजेपी को 2014 में 17 फीसदी वोट के साथ दो सीटें मिली थीं. 2019 में पार्टी ने वोट शेयर के लिहाज से 40 फीसदी का आंकड़ा पार कर लिया और 40.6 फीसदी वोट के साथ 18 सीटें जीत ली थीं.

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