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हैदराबाद से आगे 2024 चुनाव के लिए कितना कारगर है ओवैसी फैक्टर?

अगर ओवैसी को पूरे भारत में अपने मतदाता आधार- अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित वर्गों- के लिए प्रासंगिक होना है, तो वह सिर्फ हैदराबाद को अपनी झोली में डालकर खुश नहीं हो सकते. जब तक वह अपना जनाधार अपनी सीट से आगे नहीं बढ़ाते, तब तक वह 'हैदराबाद के एक मोहल्ले के नेता' जैसी टिप्पणियों को ही आमंत्रित करेंगे.

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AIMIM चीफ और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी. (फोटो: आजतक)
AIMIM चीफ और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी. (फोटो: आजतक)

खेलों में, अधिकांश टीमों को घरेलू मैदान का लाभ मिलता है. ऐसा प्रतीत होता है कि 2004 से हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी के साथ भी ऐसा ही है. हैदराबाद लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पर एआईएमआईएम की ऐसी पकड़ है कि यह तय माना जाता है कि तीन अन्य दल- कांग्रेस, भाजपा और बीआरएस तेलंगाना की 16 अन्य सीटों के लिए ही लड़ रहे हैं. ओवैसी के पिता, दिवंगत सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद सीट से छह बार सांसद रहे. असदुद्दीन ओवैसी को इस बार यहां से लगातार पांचवीं जीत दर्ज करने का भरोसा है. 

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हर चुनाव के साथ हैदराबाद में असदुद्दीन औवेसी की जीत का अंतर बढ़ता ही गया है. वह 2004 में 1 लाख वोट से जीते थे. इसके बाद उन्होंने 2009 में 1.13 लाख वोट, 2014 में 2.02 लाख वोट और 2019 में 2.82 लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज की. हालांकि, इस बार भाजपा की तेजतर्रार उम्मीदवार माधवी लता ने मुकाबले को जीवंत बना दिया है. बैरिस्टर से नेता बने ओवैसी को अबकी बार वोटों के लिए पसीना बहाना पड़ेगा.  
  
असदुद्दीन ओवैसी की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा

ओवैसी की महत्वाकांक्षा

लेकिन अगर ओवैसी को पूरे भारत में अपने मतदाता आधार- अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित वर्गों- के लिए प्रासंगिक होना है, तो वह सिर्फ हैदराबाद को अपनी झोली में डालकर खुश नहीं हो सकते. जब तक वह अपना जनाधार अपनी सीट से आगे नहीं बढ़ाते, तब तक वह 'हैदराबाद के एक मोहल्ले के नेता' जैसी टिप्पणियों को ही आमंत्रित करेंगे. एआईएमआईएम ने 2019 में महाराष्ट्र की कुछ सीटों पर चुनाव लड़ा और औरंगाबाद से इम्तियाज जलील की जीत के साथ पार्टी ने लोकसभा में अपनी दूसरी सीट सुनिश्चित की. इम्तियाज नेता बनने से पहले एक पत्रकार थे.

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नरेंद्र मोदी शासन के दस वर्षों में, ओवैसी को भाजपा और अन्य विपक्षी दलों की तरफ से तीखे हमलों का सामना करना पड़ा है. जबकि भाजपा को अपने हिंदू वोटबैंक को आकर्षित करने के लिए अल्पसंख्यक-केंद्रित राजनीति के ओवैसी ब्रांड पर हमला करना सुविधाजनक लगता है, गैर-भाजपाई दलों ने उन्हें लगातार भाजपा की 'बी' टीम और भाजपा के 'स्लीपर सेल' के रूप में लेबल किया है. 

विडंबना यह है कि जिन लोगों ने ओवैसी पर भाजपा की बी टीम के रूप में काम करने का आरोप लगाया था, उनमें से कई हाल के हफ्तों में खुद भगवा पार्टी में शामिल हो गए हैं. उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण. उन्होंने एआईएमआईएम को भाजपा का 'एजेंट' कहा था और आरोप लगाया था कि भगवा पार्टी अल्पसंख्यक समुदाय के वोटों को विभाजित करने के लिए ओवैसी बंधुओं का इस्तेमाल कर रही है. अब चव्हाण ने खुद ही बीजेपी का दामन थाम लिया है.

एआईएमआईएम को इंडिया ब्लॉक से भी बाहर रखा गया था. ओवैसी इसे एक 'इलीट क्लब'' कहते हैं जिसकी सदस्यता कुछ चुनिंदा लोगों के लिए आरक्षित है. हालांकि, अब तेलंगाना में राज्य स्तर पर कांग्रेस के साथ एआईएमआईएम के संबंधों में कुछ मधुरता जरूर आई है, जिससे संयुक्त आंध्र प्रदेश के अंतिम कांग्रेसी मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी के दिनों से दोनों दलों के रिश्तों में आई दरार की मरम्मत हो रही है. तो दोनों मोर्चों से (भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक) उनकी समान दूरी को देखते हुए, 2024 के लिए ओवैसी की राष्ट्रीय योजना क्या है?

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गठबंधन के जरिए हैदराबाद से बाहर संभावनाओं की तलाश

अपना दल (कमेरावादी) की नेता पल्लवी पटेल के साथ गठबंधन के साथ, एआईएमआईएम ने उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की योजना बनाई है. एआईएमआईएम की बिहार इकाई के अध्यक्ष अख्तर उल ईमान किशनगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवार हैं और पार्टी राज्य में एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. पार्टी महाराष्ट्र में, मुंबई और मराठवाड़ा दोनों क्षेत्रों में उम्मीदवार खड़ा कर सकती है, जिससे इंडिया गुट चिंतित होगा. क्योंकि यहां 12 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. तमिलनाडु में, ओवैसी ने एआईएडीएमके को समर्थन दिया है. दरअसल, एडप्पादी पलानीस्वामी की पार्टी के साथ ओवैसी के दल का गठबंधन 2026 के राज्य विधानसभा चुनाव तक बढ़ने की उम्मीद है. 

Owaisi फैक्टर

ओवेसी का मानना ​​है कि उन पर 'वोट कटुआ' और 'बीजेपी की बी टीम' होने के तंज ने अपना काम कर लिया है और अब कोई भी इन आरोपों को गंभीरता से नहीं लेता. जबकि कई लोग महसूस कर सकते हैं कि दो-सांसदों वाली पार्टी होने के बावजूद ओवैसी ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली है, लेकिन एआईएमआईएम अध्यक्ष इस बात पर जोर देते हैं कि उन्हें अपनी पार्टी को आगे ले जाने का पूरा अधिकार है. एआईएमआईएम का मानना ​​है कि मुस्लिम भाजपा की नीतियों के पहले शिकार हैं और इसलिए यह पार्टी का कर्तव्य बन जाता है कि वह भारत के हर हिस्से में उनकी आवाज बने. और यह जिम्मेदारी तब और भी अधिक बढ़ जाती है, जब अल्पसंख्यकों को लगता है कि धर्मनिरपेक्ष दल भाजपा के उत्थान को रोकने में असमर्थ हैं. 

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अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व का दावा

ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समाज में अपनी लोकप्रियता को एआईएमआईएम के लिए लोकसभा सीटों में भले ही तब्दील करने में फिलहाल सक्षम नहीं दिखते हैं, लेकिन उनका मानना ​​​​है कि नगर निकायों, पंचायतों और विधानसभाओं में पार्टी का प्रतिनिधित्व यह सुनिश्चित करेगा कि अल्पसंख्यकों की आवाज विभिन्न प्लेटफार्मों पर सुनी जाए. हालांकि, उनकी ओर से अपनी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा के हिस्से के रूप में, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस या विभिन्न 'धर्मनिरपेक्ष' दलों के साथ दोस्ती को खारिज कर दिया गया है.

असदुद्दीन ओवैसी बिहार के अनुभव से स्पष्ट रूप से आहत हैं, जहां एआईएमआईएम ने 2020 के विधानसभा चुनाव में राज्य के सबसे पिछड़े सीमांचल क्षेत्र से 5 सीटें जीतीं, लेकिन तेजेस्वी यादव ने उनमें से चार विधायक तोड़ लिए. बिहार विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव के दौरान एआईएमआईएम ने राजद का समर्थन किया था, इसके बावजूद तेजस्वी ने ओवैसी के साथ ऐसा किया. ओवैसी ने विपक्षी दलों के इस राजनीतिक पाखंड को उजागर करते हुए कहा कि जब भाजपा महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उनकी पार्टियों को विभाजित करती है, तो वही धर्मनिरपेक्ष पार्टियां चिल्लाती हैं.

इसलिए असदुद्दीन ओवैसी की योजना एआईएमआईएम को राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम मतदाताओं के बीच 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियों के विकल्प के रूप में पेश करना है. न की तेजस्वी यादव की तरह, जिन्होंने नीतीश कुमार के साथ अपने 'कभी हां कभी ना' के संबंधों के साथ, बिहार को भाजपा को सौंप दिया. या कांग्रेस जो अब ठाकरे की शिवसेना के साथ गठबंधन में है. 

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ओवैसी के सामने रणनीतिक बाध्यताएं

ओवैसी जिस सीमित मतदाता आधार वाले क्षेत्र में काम करते हैं, उसे देखते हुए उपरोक्त बातें कहना आसान है लेकिन करना उतना ही मुश्किल है. वह केवल ऐसे ही क्षेत्रों में अपनी पार्टी का विस्तार कर सकते हैं, जहां अल्पसंख्यक आबादी निर्णायक भूमिका में है. जबकि लोकसभा में उनकी उपस्थिति, आम आदमी तक पहुंच, भाषण कला और टेलीविजन स्टूडियो में होने वाले डिबेट में जुझारू शैली ने ओवैसी को एक पैन इंडिया मुस्लिम चेहरे के रूप में उभरने में मदद की है, भविष्य में उनकी सफलता समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ व्यावहारिक गठबंधन बनाने की उनकी क्षमता पर निर्भर करेगी. हालांकि, धर्म और जाति पर अत्यधिक निर्भरता ऐसे गठबंधनों की चुनावी संभावनाओं को सीमित कर देती है और उन्हें ईवीएम पर आरोप लगाने तक सीमित कर देती है. 
  
असदुद्दीन औवैसी के चुनावी संचालन की शैली में भी विरोधाभास है. भले ही वह एक सच्चे तेलंगानावासी हैं और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर हैदराबाद के एक महत्वपूर्ण राजनीतिक चेहरे के रूप में देखा जाता है, लेकिन तीन अन्य लोकसभा क्षेत्रों में, जो ग्रेटर हैदराबाद का हिस्सा हैं, ओवैसी अन्य दलों के लिए कोई चुनौती पेश नहीं करते हैं. न ही वह तेलंगाना के करीमनगर और निजामाबाद या पड़ोसी आंध्र प्रदेश के कुरनूल जैसे लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में जाने का जोखिम उठाते हैं, जहां अल्पसंख्यकों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है. वास्तव में, नवंबर 2023 के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में ओवैसी मुसलमानों को बीआरएस के पक्ष में वोट करने के लिए प्रेरित करने में असमर्थ रहे. बीआरएस के साथ तेलंगाना में उनकी मित्रता है. 
 
वर्तमान में तेलंगाना हो या उससे पहले संयुक्त आंध्र प्रदेश, असदुद्दीन ओवैसी स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स 'पिक एंड चूज' और सत्तारूढ़ दल के साथ मेल-मिलाप की रही है. और 2024 में भी इसमें बदलाव की संभावना नहीं है. जवानी के दिनों में, ओवैसी अपनी यूनिवर्सिटी टीम के लिए एक तेज गेंदबाज़ हुआ करते थे. अब 54 साल की उम्र में, अधिकतम चुनावी लाभ हासिल करने के लिए, वह स्पीड गन को प्रभावित करने के बजाय अपनी पॉलिटिकल लाइन एंड लेंथ पर अधिक फोकस करेंगे. वह सीमा लांघना नहीं चाहेंगे और पूरी कोशिश करेंगे कि कहीं राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को फ्री हिट का मौका न दे बैठें.

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