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कन्हैया कुमार दिल्ली कांग्रेस के लिए शीला दीक्षित की तरह उभरेंगे? पढ़ें- क्या 'K' फैक्टर बदलेगा पार्टी की किस्मत

दिल्ली में पूर्वांचली मतदाताओं की बड़ी तादाद को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने कन्हैया कुमार पर दांव लगाया है. इसके साथ ही टीम राहुल को 37 साल के कन्हैया कुमार में संभावनाएं नजर आ रही हैं. उनका मानना है कि उनकी युवा ऊर्जा और नए दृष्टिकोण राजधानी में कांग्रेस की किस्मत को फिर से जगाने के लिए जरूरी X-फैक्टर हो सकते हैं.

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कन्हैया कुमार (फाइल फोटो)
कन्हैया कुमार (फाइल फोटो)

आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर-पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को मैदान में उतारकर मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है. इस सीट पर कन्हैया की टक्कर मौजूदा सांसद और बीजेपी के प्रत्याशी मनोज तिवारी से होगी. दिल्ली में कांग्रेस साल 2013 से संकट का सामना कर रही है. ऐसे में कांग्रेस ने 'K' फैक्टर के तहत कन्हैया कुमार पर दांव लगाया है. ये कदम पार्टी को पुनर्जीवित करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है. 

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कांग्रेस ने दिल्ली में लगातार गिर रहे अपने ग्राफ में सुधार के लिए कई स्ट्रैटेजी अपनाई हैं. लेकिन पिछले एक दशक में कोई भी सफल नहीं हुई. ऐसे में कन्हैया कुमार कांग्रेस के 'वाइल्ड कार्ड' हैं, जो उस बात की याद दिलाता है कि कैसे 90 के दशक के अंत में सोनिया गांधी दिल्ली में एक मजबूत बीजेपी का मुकाबला करने के लिए शीला दीक्षित को लेकर आई थीं. उस समय ये कदम सिर्फ भाजपा का मुकाबला करने के लिए नहीं, बल्कि सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, एचकेएल भगत और राम बाबू शर्मा जैसे कांग्रेस के दिग्गजों को नियंत्रण में रखने के तहत भी था. पार्टी का ये कदम रंग लाया, क्योंकि शीला दीक्षित, भाजपा के प्रभाव को खत्म करने के साथ ही उसके स्थानीय नेतृत्व को भी खत्म करने में सफल रहीं थीं. इस तरह शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति में एक बड़ी हस्ती बन गईं.

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ये है कांग्रेस का K फैक्टर!

2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस को उम्मीद है कि कन्हैया कुमार के साथ उसका दांव पार्टी की किस्मत बदल सकता है. कन्हैया का दिल्ली में कठिन चुनौतियों से लड़ने के लिए लाया गया है, जिसमें 'K' फैक्टर यानी अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैं. जो वर्तमान में आम आदमी पार्टी के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार के प्रमुख हैं. हालांकि इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि कन्हैया को पार्टी के भीतर विरोध का सामना करना पड़ेगा. 

राहुल गांधी की पसंद हैं कन्हैया 

सूत्रों के मुताबिक उनकी उम्मीदवारी की वकालत करने वाले राहुल गांधी का मानना है कि कांग्रेस की दिल्ली इकाई में पूर्ण बदलाव की जरूरत है. ऐसे में 'K' फैक्टर केवल आगामी लोकसभा चुनावों के लिए एक चुनावी रणनीति से कहीं अधिक महत्व रखता है. 

क्या है कन्हैया का 3-C कनेक्शन?

कन्हैया कुमार का कांग्रेस (Congress) में आने से पहले विवाद (Controversy) सीपीआई (CPI) से भी नाता रहा है. बता दें कि कन्हैया कुमार कांग्रेस में राहुल गांधी द्वारा चुने गए उम्मीदवारों में से एक हैं. उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के टिकट पर चुनाव लड़कर बिहार के बेगुसराय से अपनी चुनावी यात्रा शुरू की. इससे पहले वह 2016 के विवाद के दौरान सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के अध्यक्ष के रूप में काम किया था.

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जब कॉन्ट्रोवर्सी में फंस गए थे कन्हैया कुमार

2016 की शुरुआत में कन्हैया एक बड़े विवाद में फंस गए थे और परिणामस्वरूप उन्हें देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया गया था. हालांकि उन्हें कुछ ही दिनों में जमानत मिल गई और मार्च 2016 में तिहाड़ जेल से वह बाहर आ गए थे. अपनी रिहाई के बाद उन्होंने 3 मार्च 2016 को जेएनयू परिसर में एक यादगार भाषण दिया, जिसमें उन्होंने सरकार और दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ कड़ा नारा दिया.  उनके जोशीले भाषण ने जनता का ध्यान खींचा, जिससे वे लोकप्रिय व्यक्ति बन गए.उसी साल उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति में कदम रखा और सीपीआई में शामिल हो गए. उन्हें पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के वरिष्ठ नेता गिरिराज सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा था. चुनावी मुकाबला भाजपा-राजद और सीपीआई के बीच था. गिरिराज सिंह से लगभग 4.2 लाख वोटों के बड़े अंतर से हारने के बावजूद कन्हैया कुल वोटों का 22 प्रतिशत हासिल करने में सफल रहे थे.

2021 में थामा कांग्रेस का हाथ

इस चुनाव के बाद उनकी सीपीआई से दूरी बढ़ती गई, जिसका परिणाम 2021 में देखने को मिला. अपने शुरुआती वामपंथी रुझान को पीछे छोड़ते हुए कन्हैया कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. इस बदलाव ने राहुल गांधी के बढ़ते प्रभाव को प्रदर्शित किया, जो पार्टी के भीतर नए चेहरों को बढ़ावा देना जारी रखते हैं.

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क्यों दिल्ली की राजनीति में हलचल पैदा कर सकते हैं कन्हैया?

कांग्रेस 2013 के विधानसभा चुनावों में अपनी अप्रत्याशित हार से जूझ रही है, तब से वह अपने कदम वापस जमाने के लिए संघर्ष कर रही है. कभी कांग्रेस की पथप्रदर्शक रहीं दिवंगत शीला दीक्षित की जगह आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने ले ली थी, जिससे दिल्ली में राजनीतिक बदलाव की शुरुआत हुई. केजरीवाल राजनीतिक क्षेत्र में एक ताज़ी हवा के रूप में उभरे, नए विचारों से लैस हुए और AAP को भाजपा और कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित किया. इस परिवर्तन के बीच कांग्रेस समर्थन जुटाने में विफल रही और हर चुनाव के बाद मतदाताओं का विश्वास खोती रही.

कांग्रेस की 2025  में होगी असली परीक्षा

2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया था, उसके उम्मीदवारों को दिल्ली के सभी सीटों पर  5 प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे. इस बार लोकसभा चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन की योजना बनाई. हालांकि कांग्रेस की असली परीक्षा 2025 के विधानसभा चुनाव में है. कांग्रेस आम आदमी पार्टी  से खोई हुई जमीन वापस पाने की उम्मीद में है. इसकी बड़ी वजह है दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल फिलहाल जेल में हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता कम होने की संभावना है.

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पार्टी को 37 साल के नेता में नजर आ रहीं संभावनाएं 

राजनीतिक के जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को उभरने के लिए नए प्रयोग की जरूरत है. इसके लिए ऐसी लीडरशिप की आवश्यकता है जो पारंपरिक विचारधाराओं से हटकर और लीक से हटकर सोचने के लिए तैयार हो. इस सियासी मंथन के बीच टीम राहुल को 37 साल के कन्हैया कुमार में संभावनाएं नजर आ रही हैं. उनका मानना है कि उनकी युवा ऊर्जा और नए दृष्टिकोण राजधानी में कांग्रेस की किस्मत को फिर से जगाने के लिए जरूरी X-फैक्टर हो सकते हैं. क्या यह उम्मीद हकीकत में तब्दील होगी, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. 

पूर्वांचली वोटर्स का भरोसा हासिल करने का मौका

पिछले कुछ दशकों में दिल्ली के डेमोग्राफिक सेनेरियो में बदलाव हुए हैं. लिहाजा पॉलिटिकल डॉमिनेंस यानी राजनीतिक प्रभुत्व की कमान पंजाबी और बनिया समुदायों के पास है, साथ ही स्थानीय जाट और गुर्जर उम्मीदवार भी पार्टी नेतृत्व के भीतर पर्याप्त प्रभाव बनाए रखते हैं. हालांकि अनधिकृत कॉलोनियों के तेजी से होते प्रसार ने भी पॉलिटिकल मॉडल को नया आकार दिया है. इस बदलाव का इस्तेमाल अरविंद केजरीवाल की AAP ने मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई नीतियों के जरिए किया है. लिहाजा केजरीवाल की रणनीति ने लगातार पिछले तीन विधानसभा चुनावों में पर्याप्त बढ़त हासिल की है. जिससे भाजपा और कांग्रेस जैसी पारंपरिक पार्टियों को संघर्ष करना पड़ा है.

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दिल्ली के कुल वोटर्स में 40 फीसदी प्रवासी 

दिल्ली की डेमोग्राफी से पता चलता है कि अनधिकृत कॉलोनियों और झुग्गियों में रहने वाली एक बड़ी आबादी है. इनमें आम तौर पर छोटे व्यवसाय के मालिक, दैनिक वेतन भोगी और मजदूर शामिल हैं, जो आजीविका के लिए दिल्ली आए हैं.  दिल्ली के कुल मतदाताओं में से लगभग 40 प्रतिशत प्रवासी हैं. इसमें बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के करीब 30 फीसदी लोग हैं. इन विस्थापित मतदाताओं का 70 विधानसभा सीटों में से लगभग 30 पर काफी प्रभाव है. इसके अलावा लगभग 45 विधानसभा क्षेत्रों में अनधिकृत कॉलोनियों के वोटर शामिल हैं, जो कि चुनाव के नतीजों को प्रभावित करते हैं. इस डेमोग्राफिक डवलपमेंट को पहचानते हुए AAP ने दिल्ली विधानसभा में संजीव झा, विनय मिश्रा, दुर्गेश पाठक, दिलीप पांडे, वंदना झा और ऋतुराज गोविंद जैसे पूर्वांचली प्रतिनिधियों के नेतृत्व को बढ़ावा दिया है. इसने AAP को उस समुदाय से काफी समर्थन हासिल करने में मदद की है, जो पहले शीला दीक्षित शासन के तहत कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. AAP की सफलता बताती है कि वह इन बदलावों को अच्छी तरह से समझ चुकी है. एक मंत्र है- बदलती डेमोग्राफी पर फोकस करें या राजनीतिक रूप से विलुप्त होने का जोखिम उठाएं.

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क्या है कांग्रेस का कन्हैया के लिए फ्यूचर प्लान?

दिल्ली में पूर्वांचली मतदाताओं की बड़ी तादाद को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने पिछले साल दिल्ली में नेतृत्व की भूमिका में कन्हैया कुमार को नियुक्त करने पर विचार किया था. हालांकि इस विचार में बाधा उत्पन्न हुई, क्योंकि यह तर्क दिया गया कि कन्हैया का कांग्रेस की दिल्ली इकाई के साथ कोई पूर्व संबंध नहीं होने के कारण ये चुनौतीपूर्ण हो सकता है. इसके अलावा दिल्ली के बजाय बिहार के बेगुसराय से चुनाव लड़ने के उनके फैसले ने राजधानी में पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर संदेह पैदा कर दिया. लेकिन बिहार में कांग्रेस गठबंधन की सहयोगी आरजेडी ने सूबे में उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए दरवाजे बंद कर दिए हैं, ऐसे में कांग्रेस अब कन्हैया कुमार के लिए दिल्ली की राजनीति में एक नई दिशा पर विचार करने के लिए तैयार है. सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस नेतृत्व का विचार है कि भले ही कन्हैया लोकसभा चुनाव में उत्तर-पूर्व से हार जाएं, फिर भी पार्टी इस चुनाव के बाद दिल्ली इकाई में उनके लिए एक बड़ी भूमिका पर विचार करेगी. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि शीला दीक्षित, जिन्होंने दिल्ली की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी है, उनकी राजनीतिक पारी भी ऐसी ही थी. शीला दीक्षित अपना पहला लोकसभा चुनाव 1998 में पूर्वी दिल्ली से भाजपा के लाल बिहारी तिवारी से हार गईं थीं. हालांकि उसी वर्ष उन्होंने दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में विधानसभा चुनाव जीतकर वापसी की थी.

कन्‍हैया कुमार के सामने ये हैं चुनौतियां

कन्हैया कुमार की दिल्ली की राह चुनौतियों से भरी है. मुख्यधारा की राजनीति में उनका प्रदर्शन सीमित रहा है, उन्होंने अब तक केवल एक ही चुनाव लड़ा है. वहीं कांग्रेस अपनी चुनौतियों से जूझ रही है, जो भाजपा और AAP दोनों से घिरी है. ऐसे में भाजपा को AAP से मुकाबला करने के लिए सबसे मजबूत दावेदार के रूप में देखा जा रहा है. इसके अलावा मौजूदा सीएम केजरीवाल भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने और जेल में रहने के बावजूद दिल्ली में वोटर्स की पसंद बने हुए हैं. उनकी पार्टी का यह भी दावा है कि वह भाजपा और केंद्र सरकार के साथ टकराव के कारण राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार हैं. ऐसे में कन्हैया कुमार जैसे नवागंतुक के लिए कांग्रेस की किस्मत को फिर से चमकाना निस्संदेह एक मुश्किल भरा काम होगा.  इसके अलावा राज्य के पार्टी नेता शायद उन्हें अंदरूनी तौर पर आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव दिल्ली में पार्टी के भविष्य के लिए एक अग्निपरीक्षा के रूप में काम करेगा. अगर प्रदर्शन कमजोर रहा तो केंद्रीय नेतृत्व पर गाज गिरने की संभावना है. ऐसी स्थिति में दिल्ली में राजनीतिक प्रभुत्व बहाल करने की सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं धराशायी हो सकती हैं. ऐसे में कन्हैया कुमार की राह आसान नहीं होगी.

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