लोकसभा चुनाव के बीच विपक्षी इंडिया ब्लॉक को केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में बड़ा झटका लगा है. महबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने कश्मीर घाटी की तीन लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है. पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने साथ ही यह भी कहा है कि हम जम्मू रीजन की सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों का समर्थन करेगी. महबूबा का यह बयान नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला की ओर से कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग फॉर्मूले का ऐलान किए जाने के बाद आया है.
महबूबा ने यह भी कहा कि उनको (नेशनल कॉन्फ्रेंस को) हर सीट पर चुनाव लड़ना ही था तो कम से कम बात तो किए होते. हर छोटी बात पर भी हमसे बात करने वाले फारूक अब्दुल्ला ने इस पर कोई बात नहीं की. अगर वह कहते तो हम एकजुटता के लिए इस पर समझौता कर लेते.
महबूबा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के कोटे वाली सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर तेवर दिखाए हैं तो साथ ही अपने बयान से यह संदेश देने की भी कोशिश की है कि पीडीपी का रुख लचीला था लेकिन उससे बातचीत ही नहीं की गई. अब सवाल यह उठ रहे हैं कि महबूबा की पार्टी को छोड़कर फारूक अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस क्यों साथ आ गए?
पीडीपी को छोड़कर क्यों साथ आ गए कांग्रेस-एनसी?
जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की पार्टी और कांग्रेस ने पीडीपी को छोड़ दिया है तो उसके पीछे भी इनका अपना गणित है. इसके पीछे चर्चे कश्मीर घाटी की राजनीति से लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस की रेड लाइन और अनंतनाग सीट की लड़ाई को लेकर भी हैं.
कश्मीर घाटी का वोट बेस
पीडीपी का वोट बेस भी कश्मीर घाटी में ही है जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस मजबूत है. कश्मीर रीजन की राजनीति में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ही मुख्य प्रतिद्वंदी रहे हैं. जहां दो पार्टियां एक-दूसरे की मुख्य प्रतिद्वंदी हों, वहां उनका साथ आना बहुत मुश्किल होता है. राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि किसी भी राज्य या रीजन में नंबर वन और नंबर तीन, नंबर दो और नंबर तीन पार्टियों का गठबंधन हो सकता है लेकिन नंबर वन और नंबर दो पार्टियां साथ आएं, ऐसा व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. कई राज्यों में साथ साथ लड़ते हुए भी पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं. केरल में कांग्रेस और लेफ्ट आमने-सामने हैं तो यही वजह है और अब कश्मीर घाटी में भी ऐसा ही हो रहा है.
जीती सीटों की रेड लाइन
कश्मीर घाटी में लोकसभा की तीन सीटें हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में इस रीजन की तीनों सीटें जीती थीं. नेशनल कॉन्फ्रेंस पहले से ही यह कहती रही है कि जीती हुई सीटों को लेकर गठबंधन में कोई बातचीत नहीं होगी. उन सीटों पर ही बात होगी जहां हम 2019 में हार गए थे. दूसरी तरफ, पीडीपी भी घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए खुला मैदान नहीं छोड़ना चाहती थी. पीडीपी घाटी में कम से कम सीट चाहती थी जिसके लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस तैयार नहीं थी.
अनंतनाग सीट का पैटर्न
कश्मीर रीजन में इंडिया ब्लॉक के दो घटक दल आमने-सामने आ गए हैं तो उसके पीछे अनंतनाग लोकसभा सीट के नतीजों का पैटर्न भी है. 1999 के लोकसभा चुनाव से 2019 तक के नतीजे देखें तो हर बार यह सीट कभी नेशनल कॉन्फ्रेंस तो कभी पीडीपी के पास जाती रही है. 1999 में महबूबा मुफ्ती को नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने हरा दिया था.
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साल 2004 में महबूबा इस सीट से जीतकर संसद पहुंचीं तो वहीं 2009 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार को जीत मिली. 2014 में फिर यहां महबूबा को जीत मिली. 2019 में भी यह परंपरा कायम रही और जीत फारूक अब्दुल्ला की पार्टी के हिस्से आई. इस पैटर्न को देखते हुए भी पीडीपी को इस सीट से जीत का भरोसा था और यही वजह थी कि महबूबा की पार्टी अनंतनाग सीट चाह रही थी.
किसके पक्ष में कश्मीर के समीकरण
एक वजह कश्मीर के समीकरण भी हैं. दरअसल, जम्मू कश्मीर राज्य के पुनर्गठन और स्टेटस में बदलाव से पहले हुए 2014 चुनाव के बाद बीजेपी-पीडीपी ने गठबंधन सरकार बनाई थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस को लगता है कि इस पुराने चैप्टर की वजह से पीडीपी की पकड़ घाटी के वोटर्स पर कमजोर हुई है.
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साल 2019 के चुनाव में पीडीपी एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. अब फारुक अब्दुल्ला की पार्टी कश्मीर के समीकरण अपने मुफीद मान रही है. वहीं, महबूबा को भी अनुच्छेद 370 हटाए जाने के खिलाफ अपनी मुहिम से चुनावी नैया पार लगने की आस है. कश्मीर के वोटर्स के मन में क्या है? यह 4 जून को मतगणना के बाद ही पता चलेगा.