
मध्य प्रदेश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने विधानसभा चुनाव के लिए 39 उम्मीदवारों की दूसरी सूची जबसे जारी की है, हंगामा मचा हुआ है. बीजेपी ने राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के साथ ही तीन केंद्रीय मंत्रियों नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते और प्रह्लाद पटेल के साथ ही राकेश सिंह और तीन अन्य सांसदों को भी उम्मीदवार बनाया है. हंगामा इसी को लेकर मचा हुआ है कि सत्ताधारी पार्टी को विधानसभा चुनाव में बड़े नेताओं को मैदान में उतारने की जरूरत क्यों पड़ी?
टिकट को लेकर जारी बहस के बीच कैलाश विजयवर्गीय का एक वीडियो सामने आया है. इस वीडियो में कैलाश विजयवर्गीय कहते नजर आ रहे हैं कि मेरी लड़ने की इच्छा ही नहीं थी. एक परसेंट भी इच्छा नहीं थी. एक माइंडसेट होता है न लड़ने का. अपने को तो जाना है भाषण... बड़े नेता हो गए हैं, अब हाथ-वाथ जोड़ने कहां जाएंगे. भाषण देना और निकल जाना... भाषण देना और निकल जाना, ये सोचा था हमने तो. हमने तो प्लान ये बनाया था कि रोज आठ सभा करनी हैं. पांच हेलीकॉप्टर से और तीन कार से. ये सब प्लान भी बन गया था. पर आप जो सोचते हो होता कहां है, भगवान की जो इच्छा होती है वही होता है. भगवान की इच्छा थी कि मैं फिर से उम्मीदवार बनूं, जनता के बीच जाऊं. मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं उम्मीदवार हूं, सच कह रहा हूं.
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बीजेपी ने कैलाश विजयवर्गीय को इंदौर-1 विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है. कैलाश विजयवर्गीय का बयान बताता है कि वह खुद चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे. अब सवाल ये उठ रहे हैं कि टिकटार्थियों की लंबी कतार के बीच ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई कि पार्टी को उन नेताओं को चुनाव मैदान में उतारना पड़ा जो लड़ने के लिए तैयार नहीं थे या लड़ना नहीं चाहते?
इसे समझने के लिए 2018 के चुनाव की चर्चा जरूरी है. 2018 के चुनाव में जब बीजेपी गई, कैलाश विजयवर्गीय विधायक थे. कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र आकाश विजयवर्गीय भी चुनाव लड़ना चाहते थे. सीएम शिवराज सिंह चौहान ने तब टिकट बंटवारे को लेकर ये साफ कर दिया कि एक परिवार में एक से अधिक टिकट नहीं दिए जाएंगे. अब विजयवर्गीय के सामने समस्या आ खड़ी हुई कि या तो खुद बतौर सिटिंग एमएलए चुनाव मैदान में उतरें या बेटे को लड़ाएं. कैलाश ने खुद को चुनाव मैदान से दूर कर लिया और आकाश बीजेपी के टिकट पर इंदौर-3 विधानसभा सीट से उतरे.
कैलाश विजयवर्गीय इंदौर-3 सीट की सीमा के बाहर प्रचार करते नहीं के बराबर ही नजर आए. बीजेपी इंदौर-1 सीट भी नहीं बचा पाई जिसे पार्टी का गढ़ कहा जाता था. अबकी पार्टी ने कैलाश को उसी इंदौर-1 सीट से उतार दिया है. नरेंद्र सिंह तोमर भी 2018 में अपने बेटे के लिए टिकट चाहते थे लेकिन पार्टी ने दिया नहीं. बेटे को टिकट नहीं मिला तो तोमर की नाराजगी और न्यूट्रल रहने की चर्चाएं रही थीं. ग्वालियर चंबल रीजन में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीतने में सफल रही तो इसके लिए तोमर की निष्क्रियता को भी जिम्मेदार बताया गया. चुनाव में हार के बाद कहा तो ये भी गया कि एमपी बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके राकेश सिंह चुनाव प्रचार के लिए निकले ही नहीं.
राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि बीजेपी ने बड़े नेताओं को मैदान में उतारकर एक दांव से कई समस्याओं का समाधान निकालने की कोशिश की है. कैलाश विजयवर्गीय से लेकर नरेंद्र सिंह तोमर और राकेश सिंह तक, सबको चुनाव मैदान में उतारकर मजबूर कर दिया है कि वे अपनी साख बचाने के लिए ही सही, एक्टिव हों. हर गुट से जुड़े लोग अपने नेता को सीएम की कुर्सी पर बैठाने की आस से जोर लगाएंगे. शिवराज समर्थकों को इस फैसले में अपनी जीत नजर आ रही है.
पिछले चुनाव के परिणाम से सबक लेते हुए सीएम शिवराज इसबार पहले से ही अलर्ट मोड में थे. चर्चा तो यह भी है कि शिवराज ने दिल्ली दरबार में बड़े नेताओं की निष्क्रियता का मुद्दा उठाया और बताया कि मुझे सहयोग नहीं मिल रहा है. पार्टी के फैसले को इससे जोड़कर भी देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि कैलाश विजयवर्गीय और नरेंद्र सिंह तोमर समेत सभी आठ नेताओं को न सिर्फ अपनी सीट जीतनी होगी बल्कि आसपास की सीटों पर भी जीत सुनिश्चित करनी होगी. अगर हारे तो पार्टी में कद ही नहीं, 2024 चुनाव में उम्मीदवारी भी खतरे में होगी. बीजेपी ने इन बड़े नेताओं को एक तरह से पांच-पांच, छह-छह सीटों की जिम्मेदारी सौंप दी है.
दरअसल, सर्वे रिपोर्ट्स में नतीजे बीजेपी के लिए अनुकूल नहीं नजर आ रहे थे. ग्वालियर चंबल रीजन की ही बात करें तो सी वोटर के सर्वे में कांग्रेस को 22 से 26 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया था. कांग्रेस को 2018 चुनाव में 34 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन तब ज्योतिरादित्य सिंधिया भी पार्टी में ही थे जो अब बीजेपी में आ चुके हैं. सर्वे रिपोर्ट्स के मुताबिक बीजेपी इस रीजन में सिंधिया के आने के बावजूद करीब-करीब उसी स्थिति में थी जिस स्थिति में 2018 चुनाव में रही थी. ऐसे में जरूरी था कि ग्वालियर के साथ ही मुरैना और आसपास के इलाकों में प्रभावी पार्टी के बड़े चेहरे नरेंद्र सिंह तोमर को एक्टिव मोड में लाया जाए.
बीजेपी के लिए ये दांव कितना फायदेमंद रहता है, ये तो चुनाव नतीजे आने पर पता चलेगा लेकिन ये साफ हो गया है कि पार्टी ने सारे घोड़े खोल दिए हैं. पिछले चुनाव की हार के बाद जिन नेताओं की निष्क्रियता को लेकर चर्चा होती रही, बीजेपी ने इसबार उनको ही उम्मीदवार बनाकर एक्टिव होने के लिए मजबूर कर दिया है.