औरंगाबाद शहर जहां मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी. जहां आज भी खड़ा है गरीबों का ताज महल जो औरंगजेब के बेटे ने अपनी मां की याद में बनवाया था. उसे कहते हैं बीबी का मकबरा.
औरंगाबाद, जो पहले हैदराबाद का हिस्सा था, लेकिन रजाकारों से आजादी के बाद वो महाराष्ट्र के हिस्से में आया. औरंगाबाद में इसे आज भी आजादी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए सांसद जलील
महाराष्ट्र चुनावों में मेरी कवरेज इसी आजादी दिवस के जश्न पार हंगामे के साथ शुरू हुई. औरंगाबाद के सांसद इम्तियाज जलील जो AIMIM के सांसद हैं इस जश्न में शामिल नहीं हुए. हालांकि उन्होंने इस पर साफ किया कि वो औरंगाबाद से बाहर थे, लेकिन इसे यहां मुद्दा बनाया जा रहा है.
अब आइए नजर डालते हैं उस सियासी दबदबे पर जो इस वक्त औरंगाबाद में साफ दिखाई दे रहा है . देखते हैं औरंगाबाद कैसे बना असद्दुदीन ओवैसी की राजनीति में सफल प्रयोगशाला.औरंगाबाद कैसे बना असद्दुदीन ओवैसी की राजनीति में सफल प्रयोगशाला, इस बार क्या बीजेपी-शिवसेना गठबंधन बना पाएगा दबदबा? मेरी ग्राउंड रिपोर्ट। लोकसभा चुनाव 2019 में AIMIM के इम्तियाज़ जलील ने लगा दी थी गढ़ में सेंध। pic.twitter.com/Lh0guo8F9g
— Anjana Om Kashyap (@anjanaomkashyap) October 9, 2019
लोकसभा में AIMIM को मिली थी जीत
लोकसभा चुनाव 2019 में AIMIM के इम्तियाज जलील ने लगा दी थी शिवसेना के गढ़ में सेंध. 2019 के लोकसभा चुनाव में जहां प्रचंड मोदी लहर ने सबका सफाया कर दिया, वहीं महाराष्ट्र में ओवैसी कैसे संसद में 1 से 2 हो गए इसी औरंगाबाद की बदौलत.
AIMIM पिछले पांच साल से महाराष्ट्र की राजनीति में लगातार पैर पसार रही है. पार्टी के दो सांसदों के अलावा महाराष्ट्र विधानसभा में तीन विधायक और औरंगाबाद नगर निगम में भी धमक है.
नगर निगम में नंबर टू AIMIM
113 सीटों वाली औरंगाबाद नगर निगम में बीजेपी-शिवसेना ने अपना कब्जा बरकरार रखा, लेकिन AIMIM दूसरे नंबर पर रही. AIMIM ने 54 उम्मीदवार खड़े किए थे जिसमें उसे 26 में जीत मिली. कांग्रेस यहां पर सिमट कर 10 और NCP 3 पर आ गई.
औरंगाबाद अंबेडकर के दलित आंदोलनों की भी जमीन रही है. करीब 4000 वोट से ही इम्तियाज ने लोकसभा चुनाव जीता था. तो एक बड़ी वजह रही पिछले चुनाव में बीजेपी शिवसेना का गठबंधन नहीं हो पाना. औरंगाबाद में मुस्लिम दलित गठबंधन कर पाना और इस वोट समीकरण को साध पाना ओवैसी की सबसे बड़ी कामयाबी बनी.
इस बार नहीं हो सका करार
2011 की जनगणना के मुताबिक अब औरंगाबाद में 30.79 फीसदी की मुस्लिम आबादी है. मौजूदा अनुमान के मुताबिक अब यहां पर लगभग 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है, लेकिन इस विधानसभा चुनाव में ओवैसी की एक चुनौती ये भी है कि हजार कोशिशों के बावजूद प्रकाश अंबेडकर की ओर वंचित आगाड़ी पार्टी से उनका गठबंधन नहीं हो पाया.
ओवैसी भी जानते हैं कि लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस पार्टी उनके लिए एक अनूठा राजनीतिक मौका पैदा कर रही है. कांग्रेस, कई अन्य जगहों की तरह यहां भी लगभग ना के बराबर है.
बॉलीवुड की एक फिल्म का मशहूर गाना है 'दुश्मन ना करे दोस्त ने जो काम किया है.' महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावी घमासान के बीच कांग्रेस में मची आपसी कलह पर ये बिल्कुल फिट बैठता है. लगातार दो लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पिटी कांग्रेस को जहां बीजेपी से लड़ने के लिए एकजुट होकर मुकाबला करने की जरुरत है वहां पार्टी के नेता अपनी डफली अपना राग अलाप रहे हैं.
कांग्रेस में क्यों जारी है संघर्ष?
कांग्रेस के नेताओं में ताजा सिर फुटौव्वल राहुल गांधी को लेकर शुरू हो गई है. आलम यह है कि कांग्रेस के ही नेता खुलेआम कह रहे हैं कि घर को आग लगी घर के ही चिराग से.
महाराष्ट्र में जहां पांच साल पहले तक कांग्रेस की तूती बोल रही थी, जहां 15 साल तक कांग्रेस राज्य की सत्ता पर काबिज रही, लेकिन 2019 की चुनावी लड़ाई में कांग्रेस बीजेपी-शिवसेना की अजेय दिखने वाली गठजोड़ को चुनौती दे पाने की स्थिति में नहीं दिख रही .
कांग्रेस की कमजोरियों के बावजूद इस बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की चुनौती बड़ी है. इसके कई कारण हैं. पहला, प्रकाश अंबेडकर की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं हो पाना. ये एक ऐसी कमजोर कड़ी बन सकती है जिसकी वजह से ओवैसी के मुस्लिम दलित समीकरण के सपने को अधूरा ही रहना पड़ेगा. दूसरी तरफ BJP और शिवसेना का गठबंधन हो जाना ये सुनिश्चित करेगा कि इन दोनों पार्टियों के पारंपरिक वोट बैंक जुड़े रहे और वोटों का बंटवारा ना हो.