गुजरात की 182 में से 54 सीटें सौराष्ट्र के इलाके में ही हैं. अगर इस इलाके में कोई भारी उठा पटक हुई, तो गद्दी डावांडोल हो सकती है.
सौराष्ट्र की अहमियत के चलते ही सोनिया गांधी ने भी गुजरात में बिगुल फूंकने की सोची, तो शुरुआत राजकोट से की.
7 सम्पन्न जिलों से सजा सौराष्ट्र इलाका गुजरात से कई मायनों में भिन्न है.
2002 के दंगों में भी ये इलाका शांतिपूर्ण ही रहा था. यहां मुद्दे सांप्रदायिक नहीं, सामाजिक हैं, आर्थिक हैं, आम जनजीवन से जुड़े हैं.
कांग्रेस इसलिए भी सौराष्ट्र में प्रचार पर जोर दे रही है क्योंकि इस बार सौराष्ट्र को ही मोदी की कमज़ोर कड़ी मानी जा रही है.
सौराष्ट्र रजवाड़ों का एक झुरमुट है और यहां की राजनीति भी राजसी है.
केशुभाई पटेल यानी सौराष्ट्र के सबसे रौबीले नेता बीजेपी छोड़ चुके हैं और परिवर्तन का नारा लिए, गुजरात परिवर्तन पार्टी खड़ी कर चुके हैं. केशुभाई की सौराष्ट्र इलाके में जहां पकड़ रही है वहीं वो संगठन के भी माहिर रहे हैं.
सौराष्ट्र को कुदरत ने बेपनाह ख़ूबसूरती दी है. अगर नहीं दिया है तो पानी का ऐसा स्रोत जो 12 महीने लोगों की भी प्यास बुझा सके और खेतों की भी.
ये इलाका पूरी तरह बारिश के पानी पर निर्भर है.
मोदी के 11 साल के कार्यकाल में पहली बार गुजरात में इस साल सूखे जैसी स्थिति बनी.
मानसून देर से आया जरूर, पर दुरुस्त नहीं आया. और जब तक आया तब तक लगभग 48 किसानों ने अपनी जान दे दी थी.
इनमें से अधिकतर सौराष्ट्र के किसान थे. हालांकि आरोप ये भी लगाए गए कि मोदी सरकार ने ज्यादातर मौतों को किसानों की आत्महत्या मानने से इंकार कर दिया. नहीं तो ये आंकड़ा और ज्यादा होता.
सौराष्ट्र की अहमियत के चलते ही सोनिया गांधी ने भी गुजरात में बिगुल फूंकने की सोची, तो शुरुआत राजकोट से की.
राज्य सरकार आत्महत्या को किसान-आत्महत्या कहने से परहेज करती रही. पर कांग्रेस ने झट लाख-लाख रुपए का चेक हर पीड़ित परिवार को थमा दिया.
खैर परिवार को चोट मुआवज़े की कमी से नहीं पहुंची. वो तो आहत हैं किसी ने उनकी टोह तक नहीं ली.
पानी एक ऐसा मसला है जिसे सौराष्ट्र के ज्यादातर लोग अपनी तकदीर से जोड़ते हैं. सौराष्ट्र इलाके की इस समस्या से सब वाकिफ हैं. पर अब तक सारी कोशिशें बस कागजों पर सिमटी रही हैं.
कांग्रेस इसलिए भी सौराष्ट्र में प्रचार पर जोर दे रही है क्योंकि इस बार सौराष्ट्र को ही मोदी की कमज़ोर कड़ी मानी जा रही है.
2001 में जब केशूभाई को मुख्यमंत्री पद से हटा कर मोदी कुर्सी पर काबिज़ हुए थे, तब भी दबे छुपे विश्वासघात का कार्ड खेला गया था.
गुजरात चुनाव में नरेंद्र मोदी को मुस्लिम वोट मिलेंग या नहीं, ये अभी भी बड़ा सवाल बना हुआ है.
जरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को पार्टी का टिकट नहीं दिया है.
ये हाल तब है जब गुजरात की 9.1 फीसदी आबादी मुस्लिम है. ऐसे में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सद्भावना मिशन की नीयत पर सवाल उठ रहे हैं.
मुस्लिम समुदाय बीजेपी शासन में ही राजनीतिक रूप से शून्य हुआ है. इससे पहले उसकी आवाज उठाने के लिए कुछ मुस्लिम विधायक जरूर होते थे.
मोदी की तल्खी और घमंड की दुहाई देकर पिछले एक दशक में कई कद्रदावर बागी हुए हैं. लेकिन गुजरात ने मोदी को कमज़ोर नहीं होने दिया है.
पिछले कुछ समय में मोदी की ताकत तो इस कदर बढ़ी है कि वो दिल्ली तक का दावा ठोक रहे हैं.
अब मोदी सरकार ये दावा कर रही है कि सत्ता में लौटते ही घर घर में पानी होगा.
मोदी के बढ़ते वर्चस्व के चलते ही केशूभाई से लेकर कांग्रेस तक उस मुद्दे पर चोट कर रहे हैं जो लोगों से सीधा जुड़ा है.
इस दफा क्या पानी पर खेली आंसूओं की राजनीति वोटों की बरसात करेगी, देखना होगा.