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Exclusive: पंजाब में कम मतदान के क्या हैं कारण, किसको होगा नफा-किसे नुकसान? चुनाव विशेषज्ञ ने बताया

पंजाब की 117 सीटों के लिए मतदान (Punjab election voting trend) संपन्न हो गया है. चुनाव नतीजे क्या रहते हैं, ये तो 10 मार्च की तारीख ही बताएगी लेकिन उससे पहले हंग असेम्बली के आसार जताए जा रहे हैं.

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हर दल कर रहा जीत के दावे (फाइल फोटो)
हर दल कर रहा जीत के दावे (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • सूबे की 117 सीटों पर 20 फरवरी को हुआ मतदान
  • पंजाब चुनाव के नतीजों का 10 मार्च को होना है ऐलान

पंजाब में 20 फरवरी को 117 विधानसभा सीटों के लिए मतदान की प्रक्रिया संपन्न हो गई है. मतदान के बाद अब चुनाव नतीजों का इंतजार है जो 10 मार्च को आने हैं. मतदान के बाद हर सियासी दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहा है लेकिन 2017 की तुलना में अबकी बार पिछले चुनाव की तुलना में आठ फीसदी कम मतदान होने की वजह से सरकार को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया है. 2017 में जहां 77.40 फीसदी मतदान हुआ था वहीं इस दफे 70 फीसदी मतदाता ही मतदान केंद्रों तक पहुंचे.

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राजनीति के जानकारों का कहना है कि सियासी दलों के दावे खोखले नजर आ रहे हैं. मतदान के रुझान और चुनाव विश्लेषकों की टिप्पणियों पर गौर करें तो पंजाब में त्रिशंकु विधानसभा के आसार नजर आ रहे हैं. असल चुनाव नतीजे तो 10 मार्च की तारीख ही बताएगी लेकिन उससे पहले वोटिंग ट्रेंड को लेकर नतीजों के अनुमान लगाने का सिलसिला सा चल रहा है. पंजाब में क्यों बन सकती है त्रिशंकु विधानसभा और मतदान कम होने के लिए कौन से कारण जिम्मेदार हैं, ये जानने के लिए हमने पंजाब विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन (डीआईडीसी) के निदेशक प्रोफेसर प्रमोद कुमार से बातचीत की.

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प्रोफेसर प्रमोद कुमार का कहना है कि 2017 की तुलना में इस दफे कम मतदान हुआ है. राजनीतिक पार्टियों की बड़ी चिंता साल 2017 में जीती गई सीटों पर हुए नुकसान को लेकर है. आईडीसी के मुताबिक कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने 2017 में जिन सीटों पर जीत दर्ज की थी वहां पर हर पार्टी को पांच फीसदी से अधिक का नुकसान हुआ है.

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डीआईडीसी के निदेशक के मुताबिक मालवा क्षेत्र में कांग्रेस ने पिछली बार 40 सीटें जीती थीं लेकिन अबकी बार उसे उन्हीं सीटों पर पांच फीसदी से अधिक वोट का नुकसान होने के अनुमान हैं. आम आदमी पार्टी ने कुल 20 में से 18 सीटें इसी क्षेत्र से जीती थीं. अबकी बार उसे इन सीटों में से कम से कम 14 सीटों पर पांच फीसदी से अधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है. इस क्षेत्र में शिरोमणि अकाली दल ने पिछली बार आठ सीटें जीती थीं और उनमें से सात सीटों पर वोट का नुकसान हो सकता है.

क्या सूबे में त्रिशंकु विधानसभा के हैं आसार?

प्रोफेसर प्रमोद कुमार के मुताबिक पंजाब विधानसभा चुनाव परिणाम का अनुमान लगाना एक राजनीतिक मिसएडवेंचर (दुर्गति ) साबित हो सकता है. वे कहते हैं, " पंजाब में किसी एक जगह पर नहीं बल्कि 117 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए हैं. हर विधानसभा सीट अलग कहानी कह रहा है. वोट प्रतिशत कम होने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं. क्राउडिंग ऑफ इलेक्ट्रॉन स्पेस, आईडेंटिटी क्राइसिस, कंसोलिडेशन ऑफ हिंदू वोटर्स आदि की वजह से मतदाता कुछ भ्रमित नजर आए. ज्यादातर रुझान इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि पंजाब में मुख्य मुकाबला कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल के बीच ही है. मुकाबला काफी कड़ा है इसलिए जीत का अंतर बहुत कम होगा. ऐसी स्थिति में अगर कोई राजनीतिक पार्टी दावा कर रही है कि उसे बहुमत मिलने वाला है तो उसकी बात पर भरोसा करना सही नहीं."

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चौंकाने वाले होंगे विधानसभा चुनाव के परिणाम

प्रोफेसर प्रमोद कुमार के मुताबिक पंजाब विधानसभा चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले होंगे. वोटिंग ट्रेंड से साफ है कि अगर चुनाव मुद्दाविहीन हो, कोई प्रभावशाली राजनीतिक विचारधारा न हो तो मतदाताओं में बिखराव हो सकता है. वे कहते हैं कि भले ही मालवा के कुछ क्षेत्रों में मतदाताओं में कुछ ज्यादा उत्साह देखने को मिला हो लेकिन यह 2017 की तुलना में काफी कम है.

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प्रोफेसर प्रमोद कुमार के मुताबिक जो बात साफ दिखाई दे रही है, वह यह कि अबकी बार मतदाताओं में 2017 की तुलना में वोट डालने का उत्साह काफी कम था. आम आदमी पार्टी की ओर से दिया गया बदलाव का नारा काम नहीं आया. वे कहते हैं कि अगर ये नारा लोगों को भा जाता तो शायद मत प्रतिशत इतना कम नहीं होता. अगर यह नारा कारगर होता तो लोग अपनी पसंद का इजहार करते और उनको ज्यादा मात्रा में वोट डालते.

कम मतदान के क्या रहे कारण

प्रोफेसर प्रमोद कुमार के मुताबिक  2017 और  2022 में जो विधानसभा चुनाव हुए उनमें राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक सिद्धांत में ज्यादा फर्क नहीं है. अबकी बार राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरे को घेरने के लिए जो मुद्दे चुनाव के दौरान उछाले, उनका मतदाताओं पर कोई ज्यादा असर देखने को नहीं मिला. यहां तक कि किसान आंदोलन भी इस चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन सका. राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए एक से बढ़कर एक प्रलोभन देते गए. आम आदमी पार्टी को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक दलों ने बाकायदा अपने घोषणा पत्र भी जारी किए लेकिन मतदाताओं को लुभाने में कामयाब नहीं हुए. 

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बहुकोणीय मुकाबलों ने बिगाड़ा खेल

प्रोफेसर प्रमोद कुमार के मुताबिक अबकी बार चुनाव के मैदान में उम्मीदवार ज्यादा थे जिसकी वजह से मैदान में भीड़ नजर आई (क्राउडिंग ऑफ इलेक्ट्रो स्पेस). यानी लोगों के पास विकल्प तो बहुत थे लेकिन उनको उम्मीदवारों का चयन करने में दिक्कत हुई. पंजाब में 2017 में मतदान करने वाले करीब आठ फीसदी लोगों ने वोट ही नहीं डाला. बहुकोणीय मुकाबलों ने भी सियासी दलों का खेल खराब किया है.

वोट प्रतिशत गिरने का फायदा किसे

प्रोफेसर प्रमोद कुमार कहते हैं कि लगभग सभी पार्टियों को 2017 में जीती गई सीटों पर नुकसान हुआ है. दरअसल राजनीतिक पार्टियां इन चुनावों में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रही हैं. यही कारण है कि बड़ी संख्या में लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने ही नहीं पहुंचे. इसका सबसे ज्यादा नुकसान आम आदमी पार्टी को हो सकता है जो बदलाव लाने की बात कर रही थी. उन्होंने कहा कि अगर एंटी इनकम्बेंसी की वजह से कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरा तो आम आदमी पार्टी उसका फायदा नहीं ले पाई. शिरोमणि अकाली दल से छिटका वोट भी आम आदमी पार्टी की झोली में जाता नजर नहीं आ रहा क्योंकि कई सीटों पर उनका खुद का मत प्रतिशत भी गिरने के आसार हैं.

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काम नहीं आया मतदाताओं का ध्रुवीकरण

प्रोफेसर प्रमोद कुमार कहते हैं कि अबकी बार जाति और धर्म को लेकर जो नैरेटिव चला उसका भी राजनीतिक पार्टियों को कोई ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा है. कांग्रेस ने दलित समुदाय के मतों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में दलित को मुख्यमंत्री और फिर मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया. अगर इसका असर दलित मतदाताओं पर होता तो वे कांग्रेस को ज्यादा वोट करते लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा. ध्रुवीकरण के प्रयास नाकाम नजर आ रहे. हालांकि, कांग्रेस को दलितों की एक उपजाति जिससे मुख्यमंत्री संबंध रखते हैं, उसका फायदा जरूर मिल सकता है. इसका उल्टा असर भी देखने को मिल सकता है और हो सकता है कि जाट मतदाता अकाली दल और अन्य दलों पर भरोसा जता दें.

परोल पर बाहर आए डेरा प्रमुख ने भी बिगाड़ा खेल

प्रोफेसर प्रमोद कुमार का कहना है कि अबकी बार चुनाव में डेरा फैक्टर भी देखने को मिला. डेरा के ज्यादातर अनुयायी दलित हैं और इस समुदाय की कई उप जातियों से ताल्लुक रखते हैं. डेरा के प्रभाव के चलते इस समुदाय के मतदाताओं का काफी हद तक ध्रुवीकरण हुआ. इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी और शिरोमणि अकाली दल को होता नजर आ रहा है लेकिन फिर भी, डेरा के अनुयायियों का ध्रुवीकरण नहीं हो सका. इस समुदाय के मतदाता कई कारणों से विभाजित रहे. चरणजीत चन्नी भी दलितों के एक वर्ग को ही प्रभावित कर सके.

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आईडेंटिटी क्राइसिस यानी मुद्दों का टकराव 

प्रोफेसर प्रमोद कुमार ने कहा कि चुनाव के नजदीक विपक्षी पार्टियों ने खालिस्तान के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी को घेरने की कोशिश की. हालांकि, इस मुद्दे को उठाने का कोई व्यापक असर देखने को नहीं मिला लेकिन सुरक्षा को लेकर इस विवाद की वजह से हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश जरूर हुई. बीजेपी को इसकी वजह से राजनीतिक फायदा हो सकता है.

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उन्होंने दीप सिद्धू को खालिस्तानी विचारधारा का समर्थक बताया और कहा कि दीप की एक आम आदमी पार्टी विरोधी अपील के बाद कई इलाकों के सिख मतदाता प्रभावित हुए और दूसरे दलों के पक्ष में मतदान किया. प्रोफेसर प्रमोद कुमार ने ये भी कहा कि हिंदुओं से जुड़े कुछ मसले उछालकर बीजेपी इनका वोट पाने में कामयाब होती नजर आ रही है. पंजाब की कुल जनसंख्या की 38.49 फीसदी आबादी हिंदू है.

 

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