
राजस्थान में चुनाव होने हैं और चुनाव से पहले सूबे में राजनीतिक हलचल तेज हो गई है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह ने दो दिन जयपुर में कैंप किया. बीजेपी अध्यक्ष नड्डा और शाह ने कोर कमेटी की बैठक ली और गुटबाजी पर नाराजगी जताई. नड्डा-शाह ने बैठक में ये भी साफ कर दिया कि पार्टी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नेता का चेहरा प्रोजेक्ट किए बिना मैदान में उतरेगी.
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राजस्थान बीजेपी कोर कमेटी की मीटिंग के बाद दोनों नेताओं ने पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के साथ मीटिंग भी. दूसरी तरफ, वसुंधरा समर्थक माने जाने वाले सात बार के पूर्व विधायक देवी सिंह भाटी की पार्टी में वापसी भी हो गई है. ये वही नेता हैं जिनको लेकर कहा जा रहा था कि बीजेपी में वापसी के लिए वसुंधरा के चेहरे पर चुनाव लड़ने का ऐलान किए जाने की शर्त आलाकमान के सामने रखी है.
बीजेपी की बगैर सेनापति के चुनावी रणभूमि में उतरने की तैयारी और वसुंधरा के लीडरशिप की शर्त रखने वाले भाटी का पार्टी में वापस लौट आना, सवाल उठ रहे हैं कि क्या पार्टी नेतृत्व ने वसुंधरा को चुनाव बाद के लिए कोई आश्वासन दे दिया है? ये सवाल इसलिए भी गहरा हो गया है क्योंकि नड्डा-शाह के जयपुर से लौटने के तुरंत बाद से ही वसुंधरा एक्टिव मोड में आ गईं.
वसुंधरा राजे अलवर जिले की बलदेवगढ़ पंचायत के बरवा डूंगरी गांव पहुंचीं और पदयात्रा के समापन समारोह में शिरकत की. वसुंधरा ने संतों का आशीर्वाद भी लिया. सवाल ये भी उठ रहे हैं कि आखिर बीजेपी वसुंधरा राजे को क्यों पूरी तरह से दरकिनार भी नहीं कर सकती है? आइए, पांच पॉइंट में समझते हैं.
सियासत का लंबा अनुभव
70 साल की वसुंधरा राजे के पास सियासत का लंबा अनुभव है. साल 1984 में भारतीय जनता युवा मोर्चा से राजनीतिक करियर का आगाज करने वाली वसुंधरा 1985 में पहली बार विधानसभा सदस्य निर्वाचित हुईं और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. वसुंधरा 1989 में पहली बार लोकसभा पहुंचीं और 2003 तक बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकारों में अलग-अलग मंत्रालयों के कार्यभार भी संभाले.
साल 2003 के विधानसभा चुनाव से वसुंधरा राजस्थान की राजनीति में लौट आईं और पिछले 20 साल से सूबे की सियासत में ही सक्रिय हैं. कर्नाटक चुनाव में बीएस येदियुरप्पा जैसे वरिष्ठ नेता की अनदेखी का खामियाजा पार्टी बड़ी हार के रूप में भुगत चुकी है. ऐसे में बीजेपी लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले होने जा रहे विधानसभा चुनाव में वसुंधरा की नाराजगी का रिस्क नहीं लेना चाहेगी.
गहलोत के मुकाबले बड़ा चेहरा
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुकाबले वसुंधरा राजे बड़ा चेहरा हैं. साल 2003 के चुनाव से राजस्थान की सत्ता इन दोनों नेताओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है. वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी की सबसे लोकप्रिय नेता भी हैं. अभी जुलाई महीने में ही सी वोटर का सर्वे आया था जिसमें बीजेपी की ओर से सीएम पद के लिए 36 फीसदी लोगों ने वसुंधरा राजे को अपनी पहली पसंद बताया था. 2018 के चुनाव में जब तमाम ओपिनियन पोल के नतीजे बीजेपी को खारिज कर रहे थे, तब भी पार्टी ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी थी और 200 में से 73 सीटें जीती थीं.
संगठन से लेकर कार्यकर्ताओं तक पकड़
वसुंधरा राजे की इमेज जमीनी नेता की है. वसुंधरा कार्यकर्ताओं के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं. लंबे समय से सियासत में सक्रिय वसुंधरा की संगठन पर भी मजबूत पकड़ है. 2018 के चुनाव में बीजेपी के उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन के लिए भी दो बार की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की संगठन शक्ति और कार्यकर्ताओं पर मजबूत पकड़ को श्रेय दिया गया. यही वजह थी कि बीजेपी ने 2003 में वसुंधरा के राजस्थान की राजनीति में सक्रिय होने के बाद सांगठनिक नियुक्तियों में उनकी पसंद का खयाल रखा.
साल 2018 के चुनाव में बीजेपी की हार के बाद वसुंधरा की संगठन पर पकड़ थोड़ी कमजोर हुई और पार्टी ने उनकी पसंद को दरकिनार कर सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. इसके बाद पार्टी के बैनर-पोस्टर से भी वसुंधरा की तस्वीर गायब हो गई. वसुंधरा ने राजस्थान बीजेपी की बैठकों और अन्य कार्यक्रमों से भी दूरी बना ली थी.
चुनावी साल में बीजेपी ने पूनिया को हटाकर सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो इसे महारानी की नाराजगी दूर करने की कोशिश के रूप में देखा गया. हाल ही में संपन्न हुई परिवर्तन यात्रा से वसुंधरा ने दूरी बना ली थी. कई जगह परिवर्तन यात्रा में भीड़ नहीं जुट पाई. इसके पीछे वसुंधरा राजे की दूरी को लेकर भी चर्चा रही.
वोट बेस का अंब्रेला
वसुंधरा राजे की सबसे बड़ी खासियत एक चेहरे पर वोट बेस का अंब्रेला है. वसुंधरा राजे ने सत्ता में रहते हुए महिलाओं के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की थी. एक तो वसुंधरा का महिला नेता होना और दूसरा उनकी सरकार की योजनाएं, ये दोनों मिलकर जाति-धर्म की भावना से ऊपर उठकर आधी आबादी का एक अलग ही वोट बैंक सेट करते हैं जिसका नतीजा है कि वसुंधरा उस झालरापाटन सीट से लगातार जीतती आ रही हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की तादाद अधिक है.
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महिला वोट बैंक में मजबूत पैठ के साथ ही अलग-अलग जातियों के बीच भी उनका मजबूत आधार है. वसुंधरा राजे का वोट बेस राजपूत के साथ ही जाट, गुर्जर और आदिवासी वोट बैंक में भी है. वसुंधरा के होने से महिला, राजपूत-जाट-गुर्जर और आदिवासी वोट बेस का जो अंब्रेला बनता है, वह बीजेपी के परंपरागत ब्राह्मण-बनिया वोट बैंक के साथ मिलकर पार्टी के वोटों का गणित अलग मुकाम पर ले जा सकता है.
60 सीटों पर सीधा इम्पैक्ट
वसुंधरा राजे 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा की 60 सीटों पर सीधा इम्पैक्ट रखती हैं और ये भी एक बड़ा कारण था कि पार्टी 2018 में खराब हालात के बीच भी 70 से अधिक सीटें जीतने में सफल रही. बात सिर्फ इन 60 सीटों तक ही सीमित नहीं है. वसुंधरा राजे सभी दो सौ सीटों पर पार्टी की मजबूत और कमजोर कड़ी जानती हैं. उन्हें जमीनी फैक्ट पता हैं. वसुंधरा जानती हैं कि कहां कौन सा समीकरण काम कर सकता है?