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दिल्ली विधानसभा चुनाव की 10 नई और अनूठी बातें...

दिल्ली में चुनावी अखाड़े में उम्मीदवार तो 70 सीटों पर थे, लेकिन चुनावी चर्चा सिर्फ दो ही सीटों की बनीं. एक नई दिल्ली सीट जहां से केजरीवाल चुनाव में थे और दूसरी कृष्णानगर जहां से बीजेपी ने किरण बेदी को अपना सीएम उम्मीदवार बनाकर उतारा.

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केजरीवाल-बेदी
केजरीवाल-बेदी

दिल्ली का चुनावी दंगल दिलचस्प रहा. रोमांच की हदों तक पहुंचे इस चुनाव में कई बातें पहली बार हुई और वह कई मायनों में अनूठी रहीं. दिल्ली में चुनावी अखाड़े में उम्मीदवार तो 70 सीटों पर थे, लेकिन चुनावी चर्चा सिर्फ दो ही सीटों की बनीं. एक नई दिल्ली सीट जहां से केजरीवाल चुनाव में थे और दूसरी कृष्णानगर जहां से बीजेपी ने किरण बेदी को अपना सीएम उम्मीदवार बनाकर उतारा. आइए पीछे मुड़कर देखें, उन 10 बातों की ओर. जिनसे दिल्ली का दंगल दिलचस्प हो गया.

1. आमने-सामने दो दोस्त... दो पूर्व अफसर...  
पहली बात तो यही रही कि चुनाव किरण वर्सेस केजरीवाल बन गया. यह वही दो चेहरे थे, जो चार साल पहले अन्ना आंदोलन के एक ही मंच से एक ही बात करते थे. भ्रष्टाचार की. राजनीतिक दलों को कोसते थे और राजनीति को कीचड़ बताते थे. लेकिन दोनों ने मन बदला. केजरीवाल दो साल के भीतर तीन चुनाव लड़े, तो किरण बेदी को बीजेपी ने 20 दिन पहले न सिर्फ चुनाव मैदान में लेकर आयी, बल्कि केजरीवाल के मुकाबले सीएम पद का उम्मीदवार भी बना दिया. दोनों का ही बैकग्राउंड राजनीतिक नहीं रहा और दोनों एक ही परीक्षा (यूपीएससी) की पृष्ठभूमि से नौकरशाही का सफर तय करके (एक आईपीएस और एक आईआरएस) राजनीति के मैदान में आए.

2. चुनाव आयोग को चुनौती, हठीली कोशिशें
इस चुनाव में इलेक्शन कमीशन के नियमों और नोटिसों को भी केजरीवाल ने चुनाव प्रचार के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया. अरविंद केजरीवाल ने एक नहीं कई बार कहा, 'बीजेपी कांग्रेस से पैसे लेना और वोट आम आदमी पार्टी को ही देना' इस बयान की शिकायत भी हुई और कई बार केजरीवाल को नोटिस भी मिले. लेकिन जिस दिन नोटिस मिलता, उसी दिन केजरीवाल अपना बयान दोहरा देते. चुनाव आयोग के डर को चुनौती देने की इस रणनीति से केजरीवाल ने खूब सुर्खियां बटोरी. आखिरकार चुनाव आयोग को सख्त हिदायत देनी पड़ी, बल्कि केजरीवाल की सार्वजनिक निंदा भी की. इसी का दूसरा नमूना ईवीएम पर सवाल का है. केजरीवाल ने शिकायत की कि कोई भी बटन दबाओ, वोट बीजेपी को ही डलेगा. ये बयान और शिकायक केजरीवाल तब तक करते रहे, जब तक चुनाव आयोग से सख्त हिदायद नहीं मिली. सूत्रों की माने तों मकसद यह था कि इस बात को इतना प्रचारित कर दिया जाए कि कुछ वोटर पोलिंग बूथ पर वोट डालते वक्त ये प्रयोग करके देखें और इस चक्कर में बीजेपी का वोट किसी और को डल जाए.  

3. पल पल बदलते मुद्दे
दिल्ली में पिछले चार चुनाव बिजली और पानी के मुद्दे पर ही लड़े गए. इस बार भी जोर बिजली हाफ और पानी माफ पर ही था. लेकिन चुनाव की घोषणा होते ही मुद्दे ही नहीं, पूरे चुनाव की शक्ल ही बदल गई. जिस जनलोकपाल के मुद्दे पर पिछली सरकार गिरी, उसका जिक्र भी शायद ही मुद्दे के तौर पर हुआ हो. यह मुद्दा सिर्फ आरोप बनकर रह गया. चुनाव सिर्फ चेहरों में सिमट गया. कभी लगा चुनाव केजरीवाल वर्सेस मोदी है, तो मतदान की तारीखों का ऐलान होती ही केजरीवाल वर्सेस मोदी-बेदी हो गया.

4. अखबारों और सोशल मीडिया से लड़ाई
दिल्ली में चुनाव का शोर यूं तो सड़कों पर, गली और मोहल्लों मे खूब सुनाई दिया. लेकिन असली लड़ाई अखबारों और सोशल मीडिया से लड़ी गई. यूं तो हर बार अखबारों में विज्ञापन दिए जाते हैं, लेकिन इस बार के अखबारी विज्ञापन मुद्दे बन गए. विज्ञापनों की लड़ाई क्रिकेट के 20-20 मैच से कम रोमांचक नहीं रही.

5. दिल्ली के दल बदलू - एक दिन से एक महीने पहले तक पार्टी में आए लोगों को टिकट
दिल्ली के चुनाव में पहली बार बीजेपी ने दल बदलू राजनीति का बड़ा दांव खेला. बीजेपी ने 12 ऐसे लोगों को टिकट दिए, जो एक महीने से लेकर एक दिन पहले तक बीजेपी में शामिल हुए. इसमें कांग्रेस के कद्दावर नेता एससी वत्स और यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहीं कृष्णा तीरथ हों या एक ही दिन पहले बीजेपी मे शामिल हुए आम आदमी पार्टी के बागी विनोद बिन्नी.

6. पहली बार कांग्रेस ने तीसरे नंबर की लड़ाई लड़ी...
किसी हिंदी भाषी राज्य में यह पहली बार है, जब कांग्रेस ने तीसरे नंबर के लिए लड़ाई लड़ी हो. कांग्रेस संगठन ने खुद को चुनाव की घोषणा के पहले से ही बीजेपी और आप के सामने सरेंडर मान लिया था. यही कारण है कि देश में पहली बार हुआ कि किसी राज्य में सत्ता की हैट्रिक लगाने वाली कोई पार्टी अचानक पूरे मुकाबले से ही बाहर हो. इससे भी ज्यादा दिलचस्प ये रहा कि जो शीला दीक्षित 15 सालों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं, वो चुनाव में चेहरा दिखाने की रस्म अदायगी भर के लिए आईं.

7.प्रधानमंत्री की अपील मुख्यमंत्री की तरह
यह बात भी कम दिलचस्प नहीं है कि एक प्रधानमंत्री किसी राज्य के मुख्यमंत्री की तरह अपील करता दिखा हो. बीजेपी ने पहले मोदी के चेहरे को सामने रखकर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया, बाद में किरण बेदी को सीएम उम्मीदवार बनाया. बावजूद इसके जब दिल्ली वालों से वोट मांगने की बात आई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ही नाम पर वोट देने की अपील की.

8.अमेरिका के राष्ट्रपति का नाम प्रचार से जुड़ा
ऐसा भी पहली बार ही हुआ कि अमेरिका के राष्ट्रपति के नाम पर दिल्ली की चुनावी सभाओं में नारे लगे. ओबामा की यात्रा दिल्ली में चुनावी मुद्दा बनी. विपक्ष ने ओबामा की यात्रा का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया तो बीजेपी ने न सिर्फ अपरोक्ष रूप से लाभ लेने की कोशिश की, बल्कि अपने विज्ञापन में ओबामा का कार्टून भी छाप दिया.

9. पहली बार 25 दिनों में हुआ चुनाव...
महीनों की चुनावी मशक्कत के मुकाबले इस बार दिल्ली का चुनाव सिर्फ 25 दिनों में ही पूरा हो गया.

10.सवालों की हुई सियासत
सवालों की सियासत का भी ये पहला चुनाव रहा. जिसमें बीजेपी ने हर दिन आम आदमी पार्टी से पांच सवाल किए.

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