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हमें कोई खुशफहमी नहीं: सुशील कुमार मोदी

भावनात्मक उभार की राजनीति का दौर खत्म हो चुका है. समावेशी विकास की बिहार की राजनीति ही अब अकेला व्यावहारिक विकल्प है.

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बिहार में विकास की प्रक्रिया 1961 में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद ठप पड़ गई थी. बिहार के शून्य विकास के लिए हम केवल लालू प्रसाद यादव को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. बेशक उन्होंने इसमें योगदान दिया और बिहार को नकारात्मकता की ओर ले गए. दरअसल, 1990 में जब उन्होंने राज्य की सत्ता संभाली, उसके बहुत पहले ही वहां विकास शासन की प्राथमिकता में नहीं रह गया था. अलबत्ता लालू ने शासन के खात्मे को सुनिश्चित करते हुए कार्यतंत्र को ही नष्ट कर दिया.

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अस्सी के दशक में बिहार में छह मुख्यमंत्री हुए. वे सभी अपनी सरकार की स्थिरता की चिंता में ही लगे रहे. विकास उनके दिमाग में था ही नहीं. नवंबर, 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी जद (यू)-भाजपा गठबंधन सरकार चार दशक से भी अधिक समय में पहली सरकार थी जिसकी शीर्ष प्राथमिकता थीः शासन और विकास.

हमें शुरू में बहुत परेशानियां हुईं, क्योंकि तब राज्य में शायद ही कोई तंत्र काम कर रहा था. हमने बिहार में कानून के राज को दोबारा बहाल करने से शुरुआत की और राज्य को फिर से सकारात्मक विकास की ओर ले गए, चाहे वह वास्तविक तौर पर हो या प्रतीकात्मक तौर पर. इससे महिलाओं और व्यापारियों के लिए सुरक्षा का माहौल बना. यही दोनों वर्ग कानून हीनता के पारंपरिक रूप से शिकार थे. 2010 का जनादेश हमारे प्रयासों और मतदाताओं के संकल्प की मंजूरी का प्रतीक है.{mospagebreak}

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लेकिन हम कोई खुशफहमी नहीं पालना चाहते. सरकार से उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं. हम जानते हैं कि उम्मीदों की गति कई बार विकास के आंकड़ों से भी अधिक हो जाती है. इसलिए लोगों के असंतोष की आशंका का भी हमें ख्याल है. हमने चुनौतियां स्वीकारी हैं. हमें क्या करना है, यह स्पष्ट है. बिहार को एक गतिशील राज्य बनाने के बाद अब शासन के अगले स्तर तक पहुंचते हुए सकारात्मक नतीजे देने की शुरुआत करनी है. मुख्यमंत्री महोदय ने पहले ही 2015 तक बिहार को विकसित राज्य बनाने का लक्ष्य तय कर दिया है.

बिहार हमेशा से क्रांतियों की भूमि रहा है. 1967 में क्रांग्रेस के खिलाफ पहले विद्रोह की शुरुआत से-जिससे राज्य में (कुछ दूसरे राज्यों के साथ) पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी- 1974 के जेपी आंदोलन तक, जिसने इंदिरा गांधी की सरकार पलट दी थी, बिहार ने कई सकारात्मक बदलावों को दिशा दी है. मैं राजग सरकार की सफलता को भी इसी तरह की सफल, लेकिन खामोश क्रांति मानता हूं.

2010 के जनादेश को निर्णायक सामाजिक घटकों की शिनाख्त के तौर पर भी देखना चाहिए. लालू ने कुछ जातियों का जो गठजोड़ बनाया था उसमें कुछ जातियों का अधिक दबदबा था. वैसे में, आश्चर्य नहीं कि कई सामाजिक समूहों को हाशिये पर धकेले जाने का एहसास होता था. शुरू में कांग्रेस ने भी ऐसा ही सामाजिक गठजोड़ किया था, जिसके नतीजे में बहुतेरे लोग उसके बाहर छिटक गए थे.{mospagebreak}

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हमारी सफलता दरअसल वैसे सामाजिक समूहों को मिलाकर एक इंद्रधनुषी गठबंधन बनाने में निहित है, जिन्हें परस्पर विरोधी माना जाता था. हम अपना सामाजिक आधार व्यापक कर सके, क्योंकि हमारे कामकाज ने उम्मीदें जगाई थीं. हमने महिलाओं और अत्यंत पिछड़ी जातियों को सशक्त करने का काम किया, जो विकास की दौड़ में कहीं पीछे छूट गए थे. सबको साथ लेकर चलने की हमारी नीति ने राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया. हालांकि इसे लागू करना मुश्किल था, लेकिन हमारी संजीदगी और दृढ़ता सफल हुई. किसी समूह को छोड़ा नहीं गया. इन सबका चुनावी असर अब दिख रहा हैः सशक्तीकरण की राजनीति ने बिहार की महिलाओं को अपनी एक स्वतंत्र पहचान दी है.

इस जनादेश का एक स्पष्ट राष्ट्रीय संदेश भी है. भावनात्मक उभार की राजनीति का दौर अब खत्म हो चुका है. अब लोग कुछ ठोस चाहते हैं. सबको साथ लेकर चलने वाली बिहार की राजनीति का मॉडल ही शायद अब अकेला व्यावहारिक राजनैतिक विकल्प है. {mospagebreak}मतदाताओं की नई पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह दूसरे राज्य विकास कर रहे हैं. इसके अलावा आज लोगों की पहुंच इंटरनेट और उन दूसरे सूचना मीडिया तक है, जो बताते हैं कि दुनिया भर में क्या हो रहा है. यह पीढ़ी केवल भावुक उद्गारों से संतुष्ट नहीं होती. जनादेश इसकी पुष्टि करता है कि मतदाता ऐसी सरकार का ही समर्थन करने के लिए तैयार हैं, जो काम करती है.

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अगर सरकार समावेशी विकास सुनिश्चित करती है तो सरकार विरोध का असर नहीं होता. बिहार के लोगों ने हमें दोबारा सत्ता सौंपी, क्योंकि वे जानते हैं कि हम जो कहते हैं वह करते हैं.

इस जीत का हमारे गठबंधन के लिए भी विशेष अर्थ है. राजग बहुत खुश है, क्योंकि इस जीत ने निश्चित तौर पर उसकी छवि और व्यापक कर दी है. यह जीत ऐसे समय आई है, जब कांग्रेस भ्रष्टाचार के अपने दाग से जूझ रही है. जिस व्यापकता से हमें मुस्लिम वोट मिले, उससे भाजपा और राजग के बारे में आम धारणा बदल गई है. यह हमारे गठबंधन के लिए नया चुनावी समीकरण तैयार कर सकता है. जिन्होंने सेकुलरिज्म के नाम पर हमारा साथ छोड़ दिया था, उन्हें अब अपना वह तर्क गलत लगेगा. जिन्होंने अतीत में हमारा साथ छोड़ा, वे भी अब लौट सकते हैं.

(मोदी बिहार के उप-मुख्यमंत्री हैं)

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