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बिहार चुनाव: जाति के नाम पर वोट जुगाड़ने में जुटी सियासी पार्टियां

बिहार विधानसभा चुनाव की आहट के साथ ही सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण दुरुस्त करने में जुट गए हैं. दलित-महादलित के मुद्दे पर यहां की राजनीति पहले से ही गर्म थी. अब बाकी जातियों की गोलबंदी भी तेज हो गई है. सभी दल अलग-अलग जातियों पर पकड़ रखने वाले नेताओं को अपनी ओर खींचने में लगे हैं.

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बिहार में चरम पर है जातियों की गोलबंदी
बिहार में चरम पर है जातियों की गोलबंदी

बिहार विधानसभा चुनाव की आहट के साथ ही सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण दुरुस्त करने में जुट गए हैं. दलित-महादलित के मुद्दे पर यहां की राजनीति पहले से ही गर्म थी. अब बाकी जातियों की गोलबंदी भी तेज हो गई है. सभी दल अलग-अलग जातियों पर पकड़ रखने वाले नेताओं को अपनी ओर खींचने में लगे हैं.

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जारी है जाति-सम्मेलनों का दौर
पटना में अभी हाल ही में जब चौरसिया सम्मेलन का आयोजन किया गया तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसमें बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे. इसके अलावा प्रजापति सम्मेलन में लालू प्रसाद पहुंचे थे और उन्होंने अपने अंदाज में समाज के नेताओं का मनुहार भी किया. इसके पहले तेली महासम्मेलन, कुर्मी सम्मेलन, गोस्वामी महासभा का आयोजन हो चुका है, अब कायस्थ सम्मेलन होना प्रस्तावित है.

नीतीश सरकार पर 'जाति साधना' का आरोप
इस बीच, राज्य सरकार ने तेली, बढ़ई और चौरसिया जाति को अति पिछड़ा वर्ग में और लोहार जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला किया है. सरकार के इस फैसले को भी जाति साधना के नजरिए से देखा जाने लगा है.

मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष संजय मयूख ने सवाल उठाया, 'आखिर सरकार को आज तेली, बढ़ई और लोहार की याद क्यों आ रही है?' उनका आरोप है कि जनता दल (युनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) शुरू से ही जाति की राजनीति करते आ रहे हैं.

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दलितों पर डोरे डाल रही बीजेपी
इधर, बीजेपी ने सबसे पहले महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने पाले में किया. वहीं दलित नेता रामविलास पासवान डेढ़ साल से उसके साथ हैं. इस तरह बीजेपी ने एक तरह से पूरे दलित वोट को अपने कब्जे में करने की कोशिश की है. पार्टी को भरोसा है कि भूमिहार नेता गिरिराज सिंह और राजपूत नेता राधामोहन सिंह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में होने का फायदा उसे इस चुनाव में जरूर मिलेगा.

बीजेपी को उम्मीद, नीतीश से छिनेगा कुशवाहों का समर्थन
बीजेपी नेताओं को यह उम्मीद भी है कि उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में होने के कारण लव-कुश (कुर्मी और कोइरी यानी कुशवाहा) जाति के वोटों में भी सेंध लगेगा. वैसे, इन जातियों के आठ प्रतिशत वोटों पर पिछले चुनाव तक नीतीश कुमार का एकछत्र राज माना जाता रहा है. लेकिन कुशवाहा के अलग दल बना लेने से कुछ वोट कटने का अंदेशा जेडीयू को भी है. उपेंद्र ने एनडीए के सामने मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने की दावेदारी भी पेश कर दी है.

जेडीयू के प्रवक्ता संजय सिंह का हालांकि कहना है कि नीतीश कुमार बिहार के विकास का चेहरा हैं. उन्होंने कभी जात-पात की राजनीति नहीं की है. उनका दावा है कि नीतीश के समर्थक सभी जाति में हैं.

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यादव वोट बैंक पर सस्पेंस
आज बिहार में विभिन्न दलों के नेता जिस वोट बैंक को लेकर सबसे ज्यादा आशंकित हैं, वह है यादवों का वोट. एक वक्त, लालू के आगे यादव समाज का कोई नेता खड़ा नहीं हो पाता था. लेकिन जब से लालू की पत्नी विधानसभा और बेटी लोकसभा चुनाव हारी हैं, तब से उनके नेतृत्व पर भी सवाल उठ रहे हैं. कभी लालू के 'हनुमान' माने जाने वाले रामपाल यादव अब बीजेपी में हैं. लालू के साले साधु यादव खुद की पार्टी बनाकर अलग मोर्चा तैयार करने में जुटे हैं. इधर, सांसद पप्पू यादव भी अलग पार्टी बनाकर 'यादव नेता' बनने में लगे हुए हैं. पप्पू का दबदबा वैसे तो पूरे कोसी क्षेत्र में माना जाता है. लेकिन तीन जिले- पूर्णिया, सहरसा और मधेपुरा में खास प्रभाव माना जाता है. बिहार में लालू प्रसाद की यादवों और मुस्लिम वोटरों के बीच खास पकड़ मानी जाती रही है.

जेडीयू में शरद यादव से लेकर विजेंद्र यादव और नरेंद्र नारायण यादव जैसे नेता हैं. कभी लालू के दाहिना हाथ रहे रंजन यादव लालू का साथ छोड़कर अभी तक जेडीयू में थे, लेकिन अब वह वहां से भी विदा हो चुके हैं. कहा जाता है कि पप्पू यादव यादवों के जितने वोट काटेंगे, वह आरजेडी के ही वोट होंगे.

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लालू यादव के कार्यकाल में था यादव वोटरों का दबदबा
आंकड़ों पर गौर करें तो लालू-राबड़ी के कार्यकाल में बिहार की राजनीति पर यादवों का साम्राज्य कायम था. लालू जब पहली बार वर्ष 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी. लालू जब राजनीति के शिखर पर थे, तब 1995 में संख्या 86 हो गई.

साल 2000 में यादव विधायकों की संख्या 64 थी. जबकि 2005 के बाद ये आंकड़ा घटने लगा. साल 2005 में 54 और 2010 में महज 39 यादव नेता ही विधायक बने थे. मौजूदा समय में 39 विधायक यादव जाति के हैं. उनमें से 19 जद जेडीयू और 10 बीजेपी के हैं.

बीजेपी बनाम आरजेडी-जेडीयू जंग
बिहार में नीतीश के टक्कर का कोई नेता बीजेपी के पास नहीं है. यही वजह है कि आरजेडी-जेडीयू गठबंधन ने विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कोमुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया है. लेकिन बीजेपी अभी तक अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने नहीं ला पाई है. हालांकि डॉ. सीपी ठाकुर समेत बीजेपी के कई नेता मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी का दावा जता चुके हैं.

बिहार में लड़े जाते रहे हैं जातीय आधार पर चुनाव
बिहार में चुनाव पहले से ही जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं. साल 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में हालांकि जाति कार्ड के बजाय विकास को मुख्य मुद्दा बनते देखा गया था. माना जा रहा था कि बिहार के लोग जातीय भावना से अब ऊपर उठ गए हैं. लेकिन साल 2015 आते-आते सभी दलों का जोर फिर जातीय समीकरण बिठाने पर है.

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IANS से इनपुट

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