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बाय-बाय पुरानी राजनीति!

कहावतें और पुराने संदर्भों की लहरें एक के बाद एक दिमाग में हिलोरें मार रही हैं, लेकिन कोई लहर ऐसी छाप नहीं छोड़ रही, जिसमें अरविंद केजरीवाल की यह जीत समा सके. तमाम लकीरें खींचने और उन पर रबर चलाने के बाद लगता है कि यह पुरानी राजनीति की विदाई है. कम से कम दिल्ली से तो है ही.

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अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)
अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)

कहावतें और पुराने संदर्भों की लहरें एक के बाद एक दिमाग में हिलोरें मार रही हैं, लेकिन कोई लहर ऐसी छाप नहीं छोड़ रही, जिसमें अरविंद केजरीवाल की यह जीत समा सके. तमाम लकीरें खींचने और उन पर रबर चलाने के बाद लगता है कि यह पुरानी राजनीति की विदाई है. कम से कम दिल्ली से तो है ही.

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कांग्रेस शून्य पर आ गई, इसका कांग्रेस को भी अचरज नहीं है. वह तो इससे ही खुश है कि राहुल गांधी का रोड शो कामयाब रहा और पार्टी में अजय माकन जैसा कोई वफादार है, जो बली का बकरा बनने को तैयार हो गया. स्यापा बीजेपी को लेकर है, जो नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के शिखर पर ऐसी प्रचंड हार देख रही है, जैसी उसने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी लहर में देखी थी. तब उसके पास लोकसभा में दो सीटें बची थीं आज विधानसभा में उसके पास 3 सीटें बची हैं.

मोदी के बहुत से आलोचक भी दावे से यह नहीं कह सकते कि प्रधानमंत्री ने पिछले नौ महीने में दिल्ली में ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया कि उनकी पार्टी का सूपड़ा साफ हो जाए. हां, उन्होंने 10 लाख का सूट पहनकर ओबामा का स्वागत जरूर किया लेकिन इसे तो आम आदमी पार्टी ने चुनावी मुद्दा नहीं बनाया. एक पालने में झूलती पार्टी की प्रचंड जीत और दो खुर्राट राष्ट्रीय दलों का सफाया एकदम नए किस्म की गुत्थी है, जिसे खुद वोटर भी नहीं सुलझा सकता.

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हां, एक चीज साफ है कि दिल्ली वालों ने चार साल पहले शुरू हुए आंदोलन से जन्मी एक पार्टी को 60 से ऊपर सीटें दी हैं. वहीं दिल्ली में 60 साल से ऊपर के वक्त से राजनीति कर रहे दो पुराने किस्म के राजनीतिक दलों को नेस्तनाबूद कर दिया है. तो क्या दिल्ली वालों को राजनीति खत्म करने के वादे और जनता का राज लाने के इरादे से सामने आए केजरीवाल इतने पसंद आ गए कि वह पुराने राजनीतिक दलों को फूटी आंख नहीं देखना चाह रही.

दिल्ली का जनादेश पूरी तरह से उस आंदोलनकारी के साथ है जिसने जनता से यह वादा किया था कि उसके आंदोलन की दिशा अब सिर्फ रचनात्मक होगी और उसमें घड़ी-घड़ी सडक़ पर उतर जाने के तत्व नहीं होंगे. जनता ने माना कि शराब बांटने वाली राजनीति, नेताओं के पांव छूते कार्यकर्ताओं की भीड़ वाली राजनीति, जात और धर्म के ओछे समीकरण साधने वाली राजनीति और चुनाव के बाद जनता को सडक़छाप समझने वाली राजनीति अब उसे नहीं चाहिए. उसे कंधे पर बेवजह शॉल लटकाने वाले प्रधानमंत्री और खामखां आस्तीन चढ़ाने वाले युवराज की जगह ठंड लगने पर कानों पर मफलर का सही उपयोग करने वाला नेता चाहिए. उसे वह नेता चाहिए तो बड़ी रैलियां या रोड शो के बजाय नुक्कड़ सभाओं पर जोर दे रहा है.

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कुल मिलाकर यह कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का महान अरमान पूरा करने के बाद जनता के पास पूरी गुंजाइश निकल आई कि वह देश के आला अफसर से आम आदमी बने केजरीवाल को अपना दिल दे दे. लेकिन दिल के रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं. केजरीवाल ने जितने बड़े वादे जनता से किए थे जनता ने उन वादों से बड़ा बहुमत उन्हें दिया है. जनता अब कडियल महाजन हो गई है. वह आपके वादों की साख पर आपको अपना वोट समर्थन उधार देती है, लेकिन तय मीयाद पर पैसे का रिटर्न नहीं आया तो आपकी कुर्की कराने से बाज नहीं आती. अब तक शीला दीक्षित, राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी यह देख चुके हैं. नए मिजाज की जनता पुरानी राजनीति को बाय-बाय जरूर कर रही है, लेकिन नई राजनीति पर पुरानी शर्तें आयद करने से बाज नहीं आएगी.

कल से दिल्ली में फ्री वाइ-फाइ की मांग शुरू हो जाएगी. लोग कहेंगे कि उन्हें पिज्जा की होम डिलीवरी से कहीं तेजी घर पर एंबुलेंस पहुंचने का इंतजार है. वोट में तानाशाही दिखाने वाली जनता दिल्ली के अस्पतालों की ओपीडी की लंबी लाइन बर्दाश्त नहीं करेगी. झुगगी वाले अब चाहेंगे कि उनकी बस्ती में टीवी देखने वाली जितनी छतरियां लगी हैं, उतने शौचालय भी बनें. वे यह भी चाहेंगे कि उनके बच्चे साहब लोगों के बच्चों की तरह अच्छी तालीम पाएं. और भी बहुत सी अच्छी बातें उनके ख्वाबों में चस्पा हैं.

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लोग इसी को नई राजनीति मान रहे हैं और इसी की खातिर उन्होंने पुरानी राजनीति से तौबा की है. केजरीवाल साहब आपको दिल्ली वालों ने 96 फीसदी सीटें दी हैं, आपको कम से कम 48 फीसदी वादे तो निभाने ही होंगे. और इसके लिए आपके पास कितना वक्त है, यह जनता नहीं बताएगी. इसे तो आप मोदी जी की चाय पीते समय उन्हीं से पूछ लेना.

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