चुनाव कार्यक्रमशख्सियतविश्‍लेषणअन्‍य वीडियोचुनाव पर विस्‍तृत कवरेज"/> चुनाव कार्यक्रमशख्सियतविश्‍लेषणअन्‍य वीडियोचुनाव पर विस्‍तृत कवरेज"/> चुनाव कार्यक्रमशख्सियतविश्‍लेषणअन्‍य वीडियोचुनाव पर विस्‍तृत कवरेज"/>
 

शाश्वत विद्रोही जॉर्ज की एक और जंग

अपने ही लोगों से चोट खाए बागी जॉर्ज फर्नांडीस एक बार फिर अपने पुराने गढ़ मुजफ्फरपुर में संभाले हुए हैं मोर्चा. चुनाव कार्यक्रम । शख्सियत । विश्‍लेषण । अन्‍य वीडियो । चुनाव पर विस्‍तृत कवरेज

Advertisement
X

यही कुछ दशक पहले जब जॉर्ज फर्नांडीस ने कैसॉक (पादरी का चोगा) उतारा था और सेमिनरी को छोड़कर समाजवाद की दीक्षा ली थी तो उन पर बागी होने की मुहर लगाई गई थी. इसका बमुश्किल ही उन पर कोई असर हुआ था. आज भी इस शाश्वत विद्रोही में कोई खास बदलाव नहीं आए हैं. फर्नांडीस की आंखों में पुरानी चमक के साथ ही हर मुश्किल से उबरने का साहस और प्रतिबद्धता बरकरार है. एक चीज जो आज उनमें नजर नहीं आती है और जो सबसे ज्यादा मायने रखती है-उनका ओजस्वी भाषण और त्वरित प्रतिक्रिया. उनका शरीर उनके विचारों को मूर्त करने में अक्षम नजर आता है.

फर्नांडीस के मस्तिष्क का कथित ऑपरेशन हुआ था और उसी के चलते वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं, लेकिन यह बुजुर्ग शख्स किसी भी तरह से उद्विग्न नजर नहीं आता. मुजफ्फरपुर के होटल में बड़े आराम से बैठे फर्नांडीस ने इंडिया टुडे को बताया, ''मैं इसकी परवाह नहीं करता कि वे (नीतीश कुमार और शरद यादव) क्या सोचते हैं. मैं यहां जीतने के लिए आया हूं. वे तानाशाह बन चुके हैं.'' उनकी आवाज एकदम शुष्क और उनके शब्द भावशून्य थे, जैसे कोई शख्स महज आंकड़ों का वाचन कर रहा हो. लेकिन छले जाने का भाव कम दिखाने या भावशून्यता से भी कई उद्दश्यों की पूर्ति हो जाती है. संभवतः वे यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि विरोधी उनके लिए कोई मायने नहीं रखते. उनकी आंखों में यह शून्यता उनके संकल्पों में से एक को जाहिर कर देती है.

अब फर्नांडीस बिहार के मजुफ्फरपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं, यह वही सीट है जिससे जीत कर वह 14वीं लोकसभा में आए थे. नीतीश कुमार और शरद यादव के यह तर्क देने कि ''खराब स्वास्थ्य'' के चलते वे चुनाव संबंधी मशक्कत नहीं सह पाएंगे और जिसका बहाना बनाकर उन्हें टिकट देने से इनकार कर दिया गया था, अब उसी का जवाब देते हुए फर्नांडीस जनता दल (यू) के बागी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं. विद्रोही फर्नांडीस ने इन तर्कों को सिरे से खारिज करते हुए कहा, ''मैं वृद्ध हूं लेकिन ठीकठाक हूं. और समाजवादी राज्यसभा में नहीं जाते.''

{mospagebreak}सही कारणों के चलते ही वे अपनी लाल रंग-बगावत का रंग-की महिंद्रा .जायलो की आगे की सीट पर बैठकर रोड शो कर रहे हैं. अनुभवी और ईमानदार फर्नांडीस अपने राजनैतिक कॅरिअर की कई लड़ाइयां जीत चुके हैं. लेकिन आज, 2009 में, लोकसभा में पहली बार चुने जाने के 42 साल बाद, जब श्रमिकों का अगुआ चुनावी राजनीति के आखिरी खेल में उतरा है, उन्हें पर्वत सरीखे मोर्चे को फतह करना है. उनके मनोज कुशवाहा जैसे कई समर्थक जद (यू) के शीर्ष नेताओं के कोपभाजन का शिकार बनने से बचने के लिए उनका साथ छोड़ चुके हैं. कई दोस्तियां अब भी कायम हैं तो कुछ दोस्त बीच सफर में साथ आ रहे हैं.

समझा जा सकता है कि मुजफ्फरपुर के अधिकतर लोगों के दिल में 1977 में पहली बार यहां से चुने गए, उस समय जब वे कैद में थे और हथकड़ी पहनकर अपना नामांकन भरने गए,  इस नेता के लिए विशेष प्रेम है. कर्नाटक के ईसाई परिवार के फर्नांडीस जातिगत बिहार में एक असंभाव्य नेता हैं. आज भी वे उन कुछ लोगों में से हैं जिनका प्रभाव राज्य की सख्त जातिगत सीमाओं से परे है. मुजफ्फरपुर के राजेला गांव के 69 वर्षीय देवनंदन चौधरी कहते हैं, ''बेशक जॉर्ज साहेब यहां श्रेष्ठ उम्मीदवार हैं. अगर वे पूरी तरह तंदुरुस्त होते तो हम उन्हें जरूर वोट देते.'' हालांकि यहां ऐसे भी कई लोग हैं जो आज भी फर्नांडीस का समर्थन करने को कमर कसे हुए हैं.

उन्होंने जद (यू)-जिस पार्टी की स्थापना उन्होंने की थी-के पाला बदलकर जय नारायण निषाद को मुजफ्फरपुर से अपना उम्मीदवार बनाने से लगी चोट को बिल्कुल भी जाहिर नहीं किया. लेकिन नीतीश कुमार और उनके विकास के बारे में पूछे जाने पर उनकी आंखों में चमक दौड़ जाती है. एकदम सधी हुई आवाज में वे कहते हैं, ''मैं उन्हें बिहार के किसी भी बाजार में ले जाऊंगा और कहूंगा कि दिखाएं विकास कहां हुआ है. मेरी ओर से आप भी पूछ सकते हैं.''

{mospagebreak}एक समय समाजवादी राजनीति, जो दशकों तक भारतीय राजनीति पर छाई रही, के चैंपियन रहे फर्नांडीस आज अपने वाहन की ओर जाने के लिए काफी छोटे-छोटे कदम उठाते हैं. वाकई यह उस शख्स के लिए किसी विडंबना से कम नहीं जो कभी ऑल इंडिया रेलवेमैंस फेडरेशन का अध्यक्ष था और उसने 1974 में एक अत्यधिक प्रभावित करने वाली रेलवे हड़ताल का नेतृत्व किया था, जिसमें 15 लाख कर्मचारियों ने हिस्सा लिया था.मुजफ्फरपुर के मतदाताओं में कुछ ऐसे भी हैं जो दो महीने में 79 साल के होने वाले फर्नांडीस को उनके दमदार अतीत की धूमिल पड़ती छवि मानते हैं. मुजफ्फरपुर के ओरई के उदय कुमार कहते हैं, ''उन पर अपना वोट खराब करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. उन्हें सुकून के साथ सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए.'' लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि फर्नांडीस का अपमान परिवार के किसी बड़े-बुजुर्ग के अपमान की तरह है.

इस बीच, फर्नांडीस को एक धुरी बनाकर नीतीश कुमार के विरोधियों-जगन्नाथ मिश्र, शंभू शरण श्रीवास्तव, उपेंद्र कुशवाहा और पी.के. सिन्हा-को घर में ही उन्हें घेरने के लिए मौका मिल गया है. और फर्नांडीस की बगावत नीतीश और शरद के लिए वाकई सिरदर्द सिद्ध हो रही है. जाहिर है फर्नांडीस की लड़ाई प्रतीकात्मकता से कहीं आगे की बात है. और उनकी मौजूदगी जातिगत समीकरणों को भी तोड़ देती है, यह ऐसी खास बात है जो उन्हें चुनावी दौड़ में काफी आगे तक बनाए रखती है.

शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ न होने, जोकि उनके कुछ समर्थकों को फैसले के दिन उनसे कुछ दूर रख सकती है, के बावजूद फर्नांडीस को अब भी नजरअंदाज किया जाना मुश्किल है क्योंकि उनके विरोधी निषाद विश्वास जगाने में सफल नहीं रहे हैं. अतीत में निषाद ने वैसे ही पार्टियां बदली हैं जैसे कि कॉलेज के छात्र शनिवार की रात को एक पार्टी खत्म कर दूसरी में चले जाते हैं. इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि अपनी पार्टी के उम्मीदवार के लिए प्रचार करने के लिए नीतीश कुमार को तीन बार मुजफ्फरपुर आना पड़ा है.

{mospagebreak}विडंबना यह है कि एक समय वह भी था जब फर्नांडीस ने लालू प्रसाद यादव का वर्चस्व तोड़ने के लिए नीतीश कुमार को प्रोजेक्ट किया था. वे समता पार्टी के संस्थापकों में से एक हैं जिसे उन्होंने और नीतीश ने लालू के साथ संबंध बिगड़ने के बाद स्थापित किया था. बाद में, नीतीश ने शरद से सांठगांठ करते हुए फर्नांडीस को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिया था.

बेशक फर्नांडीस चुनावी राजनीति की उठापटक से तारतम्य नहीं बिठा सकते. उनके विपक्षी यह तर्क दे रहे हैं कि इससे संसद में मुजफ्फरपुर को सिर्फ प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व ही मिल पाएगा. लेकिन क्या फर्नांडीस को टिकट न देने का यादव और नीतीश का फैसला सही था? यहां दो बातें हैं, जिसमें से एक यह है कि यादव ने फर्नांडीस को एक पत्र भेजा था जिसमें उन्हें राज्यसभा की सदस्यता का प्रस्ताव किया गया था, यानी जद (यू) के अध्यक्ष वास्तविकता में शायद फर्नांडीस का पत्ता ही साफ कर रहे थे.

संभवतः यादव और नीतीश को पत्र लिखने के बजाए फर्नांडीस से मिलकर यह बात करनी चाहिए थी कि वे चुनाव लड़ने की हालत में नहीं हैं. इस बीच मुजफ्फरपुर में फर्नांडीस पूरी तरह से चिंताओं से परे नजर आते हैं. उन्होंने हाथ जोड़ रखे हैं, लोगों की ओर देख रहे हैं और जैसे ही उनका काफिला आगे बढ़ता है उनका चेहरा मनोरथ से परिपूर्ण नजर आता है. जैसे ही एक गर्म हवा को झोंका तेजी से आता है, हल्की-सी मुस्कान उनके चेहरे पर दौड़ जाती है. वे मुट्ठी बनाते हैं और कांपते होंठों से कुछ बुदबुदाते हैं. .जायलो की गति बढ़ जाती है और कहीं क्षितिज में जाकर खो जाती है.

साभार: इंडिया टुडे

Advertisement
Advertisement