लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं-सतही तौर पर दोनों समाजवादी हैं, और मौलिक रूप से अपनी पद्धति और विचार शैली को लेकर बहुत ही अलग सोच रखते हैं. अब इनके राजनीतिक शब्दकोश में नई अभिव्यक्ति जुड़ गई हैः अगर शत्रु को नहीं हरा सकते तो उसके हथियारों को ही चुरा डालो.
भूमिका बदलने के दिलचस्प मामले में, दो धुर विरोधियों ने एक-दूसरे का चोला ओढ़ने के विकल्प को चुना है. नीतीश को हाजिरजवाबी या शायरी से प्रेम के लिए नहीं जाना जाता, लेकिन पिछले हफ्ते उन्होंने जय हो की तर्ज पर पैरॅडी बनाकर लोगों को हैरत में डाल दिया. जब अगले दिन लालू ने भी शायराना अंदाज में इसका जवाब दिया तो नीतीश ने दूसरा कविताई प्रहार किया. इस पर लालू ने कुछ हट कर कियाः वे गंभीर हो गए. उकसाने के भाव को दरकिनार करते हुए उन्होंने बड़े ही ठंडेपन से जवाब दिया, ''हम गंभीर किस्म की राजनीति कर रहे हैं. हम ओछेपन में समय जाया नहीं होने देंगे. अब समय बिहार के विकास की दिशा में काम करने का है.''
बिहार की राजनीति के अप्रत्याशित संसार में, कई मिथक टूटे हैं और कई नए सांचे गढ़े गए हैं. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब लालू नारों के बादशाह हुआ करते थे और अपनी बातों के तीरों से निशाना साधा करते थे और नीतीश धैर्य तथा ईमानदारी की मूरत हुआ करते थे. आज, लालू जहां गंभीर हो गए हैं, बेशक यह गंभीरता बनावटी ही है, वहीं नीतीश फब्तियां कसने सरीखे व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं. दोस्त से दुश्मन बने इन दोनों दिग्गजों ने अपने चेहरे बदल लिये हैं. {mospagebreak}
चुनावों के मौके पर शायद कोई दबा हुआ डर उभर आया है जिसने इन दोनों को एक-दूसरे की भूमिका अपनाने को मजबूर किया है. ऐसा लगता है, लालू ने नीतीश की धीर-गंभीर चारित्रिक विशेषताओं को आत्मसात कर लिया है, जबकि बिहार के मुख्यमंत्री ने आत्मविश्वास से लबरेज दिखने के लिए तुच्छ बातों और ठिठोली का सहारा लिया है. इस चुनाव में दांव पर बहुत कुछ लगा होने के चलते, दोनों ही नेता एक-दूसरे की सफलता की दास्तान में अगाध आस्था दिखाते नजर आ रहे हैं. राज्य में विधानसभा चुनाव 21 अक्तूबर से छह चरणों में होने हैं. इन्हें पिछले दो दशकों में सबसे अहम चुनाव माना जा रहा है.
इन चुनावों में जहां नीतीश और लालू का बोलबाला है तो दूसरी ओर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की विश्वसनीयता भी दांव पर लगी हुई है. उन्हें यह सिद्ध करना है कि उत्तर प्रदेश में उनकी सफलता की गाथा कोई अल्पकालिक या तुक्का भर नहीं है. अतीत में अपने सभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को तीखे परिहास से आहत करने वाले लालू को पूरी तरह गंभीरता के रंग में डूबे देखना वाकई हैरत भरा है. बेशक उनके तीखे व्यंग्य उन्हें बहस का विषय बनाते थे लेकिन वे जानते हैं कि इसकी कीमत उनकी छवि को चुकानी पड़ी है.
आज लालू का राजनीतिक व्याकरण पूरी तरह बदल चुका हैः यह आचरण और सामग्री में बहुत ही संयमित है. हास-परिहास से दूर, ऐसा लगता है कि इन दिनों, जिन्हें उनके सबसे खराब दिनों में से बताया जा रहा है, वे अपने सर्वश्रेष्ठ और वास्तविकता के करीब वाले भाषण दे रहे हैं. असामान्य रूप से शांत, वे सबकी बात कर रहे हैं, जिसमें सवर्ण भी शामिल हैं, जिन्हें राजद के 15 साल के शासन में सिर्फ उपेक्षा के सिवाय कुछ और हासिल नहीं हुआ था. लगता है, उनके विचारों ने भी गंभीरता हासिल कर ली है, क्योंकि उनकी पहचान हमेशा से हल्केपन और वाचालता से ही जुड़ी रही है. {mospagebreak}
एक समय ऐसा भी थी जब वे परवाह नहीं करते थे लेकिन आज जब उन्हें सीधी चोटी पर चढ़ाई करनी है तो उन्हें चेहरा बदलने की सख्त दरकार थी ताकि उनके विचारों को मजाक भर न समझ जाए. और इसके लिए शायद नीतीश की व्यवहार शैली ही उनके लिए सबसे बढ़िया विकल्प थी. दूसरी ओर, आलोचक नीतीश पर प्रचार अभियान में हल्कापन लाने और हमलों को निजी रंग देने के आरोप लगा रहे हैं, वहीं नीतीश इस सबसे बेपरवाह नजर आ रहे हैं और पूरी दिलेरी से इनका सामना कर रहे हैं.
यही नहीं, अतीत में एक समय था जब चुटीली टिप्पणियों पर लालू का कॉपीराइट माना जाता था, लेकिन इस बार ''लोग अपनी उम्र छिपाने के लिए अपने बाल रंग रहे हैं'' जैसे जुमले नीतीश की ओर से आने लगे हैं. शुरू में लालू ने प्रतिक्रिया की लेकिन अब वे ऐसा नहीं कर रहे. बेशक नीतीश इससे सहमत नहीं होंगे लेकिन ऐसा लगता है कि लालू को इतने सालों तक असहाय बनकर देखने से राजद प्रमुख का रंग अब उन पर हावी हो गया है. इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि नीतीश लालू को राजनीतिक रूप से एक से ज्यादा झटके दे चुके हैं, लेकिन आज जब वे अपने कॅरियर के सबसे बड़े चुनाव का सामना करने की तैयारी कर रहे हैं, हो सकता है कि मुख्यमंत्री अपने धुर विरोधी जैसा बनने की सख्त जरूरत महसूस कर रहे हों. {mospagebreak}
इस बीच, लालू किसी भी तीखे प्रहार का जवाब नहीं दे रहे और बहुत ही धैर्य के साथ उनका सामना कर रहे हैं, और यह सारी कवायद नवंबर 2005, जब राजद को सत्ता से बाहर होना पड़ा था, के बाद से साल रही पीड़ा को दूर करने के लिए है. आखिर क्यों इस चुनाव की घड़ी में नेता उन चेहरों को ओढ़ना चाहते हैं जिनको वे राजनीतिक रूप से दफनाना चाहते हैं? यहां उनका एक-दूसरे को नापसंद करना मायने नहीं रखता है. हर कोई उस चीज को अपनाने में लगा है जो उसके पास न होकर दूसरे के पास हुआ करती थी.
लालू के पास लगता था, वह सब कुछ है जो नीतीश के पास नहीं था जैसे-मौका पड़ने पर व्यंग्य, हाजिरजवाबी, सजग मस्तिष्क और स्थानीयता का रंग. दूसरी ओर नीतीश के पास हर वह चीज थी जो दूसरे को उनके बारे में यह सोचने के लिए मजबूर करे कि वे बहुत सोच-समझकर चलने वाले सयाने नेता हैं. उनकी छवि चातुर्य और जोड़-तोड़, विनम्रता और वाक्पटुता, और इन सबसे ऊपर विश्लेषण के कौशल से लैस एक गंभीर नेता की है. क्या ऊपर दी गई दो अलग-अलग विशेषताएं किसी एक शख्स में हो सकती हैं, अगर ऐसा होता है तो यह जानलेवा पैकेज सिद्ध होगा. {mospagebreak}
आज, लालू को नीतीश की पहचान की सख्त दरकार है, क्योंकि आज जब वे बिहार पर एक बार फिर अपना दावा ठोंकने जा रहे हैं तो ऐसे में उन्हें यह बखूबी पता है कि अपनी जड़ें दोबारा जमाने की रणनीति का मुख्य बिंदु नीतीश की छवि से उधार लेना जरूरी है. वहीं लालू के जोश-खरोश का नीतीश के पास कोई तोड़ नहीं है. आज वे इस बात से भी भलीभांति रू-ब-रू हैं कि लोकसभा चुनाव में राजग को बिहार की 40 में से 32 सीटें दिलाने वाले ''नीतीश फैक्टर'' का रंग फीका पड़ चुका है.
संभवतः वे लालू जैसे प्रचंड साहस के साथ चुनाव पर अपनी निजी छाप छोड़ना चाहते हैं. लगता है, उनकी रणनीति 2005 के समय में वापस पहुंच गई है जब उनका हमला लालू के ''जंगल राज'' पर था. और वे सोच-समझकर अपनी उपलब्धियों का बखान नहीं कर रहे हैं जो मुट्ठी भर ही हैं. चुनाव हमेशा से मुद्दों पर लड़े जाते रहे हैं, लेकिन पिछले दो दशकों से बिहार में चुनाव व्यक्ति केंद्रित होकर रह गए हैं. पहले कभी दोस्त रह चुके दो लोगों में अब कड़वाहट पूरी तरह घुल चुकी है और संधि की कोई राह नजर नहीं आ रही है. संभावना यही है कि आने वाली लड़ाई को देखते हुए शायद एक शख्स खुद को दूसरे के रंग में रंग डाले ताकि वह अपने भीतर मौजूद खामियों को कुछ हद तक दूर कर सके.