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बिहार में इस बार जातिगत मुद्दों के साथ ही होगा मॉडर्न स्टाइल चुनाव

इस बार बिहार में दुर्गा पूजा, दीपावली और छठ के साथ-साथ चुनावी त्योहार की भी रौनक रहने वाली है. यानी बिहार की राजनीतिक पार्टियों को अपनी रणनीति बनाने और उसको अमल में लाने के लिए कुछ और वक्त मिलता दिख रहा है. ऐसे में वहां के प्रमुख राजनीतिक दलों/गठबंधनों की ताकत और कमज़ोरी क्या हैं, समझने की कोशिश करते हैं.

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क्या कोई सवर्ण बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बन सकता?
क्या कोई सवर्ण बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बन सकता?

इस बार बिहार में दुर्गा पूजा, दीपावली और छठ के साथ-साथ चुनावी त्योहार की भी रौनक रहने वाली है. चुनाव आयोग ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि बिहार में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में ही होंगे. पहले सितंबर-अक्टूबर में चुनाव की बात सामने आई थी. इस तरह बिहार के राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति बनाने और उसको अमल में लाने के लिए कुछ और वक्त मिलता दिख रहा है. ऐसे में बिहार चुनाव में प्रमुख राजनीतिक दलों/गठबंधनों की ताकत और कमज़ोरी क्या हैं, एक-एक कर समझने की कोशिश करते हैं.

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1. आरजेडी
2005 में बिहार की सत्ता गंवा चुकी और 2010 में हाशिए पर पहुंची आरजेडी के लिए यह चुनाव बिहार की सियासत में अपनी पुरानी प्रासंगिकता और धमक वापस पाने का सुनहरा मौका है. नीतीश को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर स्वीकार करने का ‘ज़हर’ लालू को इसी मकसद से पीना पड़ा. हालांकि लालू के चुनाव नहीं लड़ पाने की कानूनी बंदिश ने पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. पार्टी कार्यकर्ताओं और दूसरे महत्वाकांत्क्षी नेताओं में लालू परिवार की दूसरी पीढ़ी- लालू के दोनों बेटों और बेटी मीसा- के प्रति वैसी वफादारी नहीं दिखाई दे रही जैसी 90 के दशक में लालू-राबड़ी के लिए थी. वैशाली ज़िले के महुआ में तेज प्रताप की उम्मीदवारी का विरोध इस बात को स्पष्ट करता है. लालू के लिए सबसे अनुकूल राजनीतिक हालात तब होंगे जब यह चुनाव 90 के दशक की तर्ज पर विशुद्ध रूप से अगड़े बनाम पिछड़े की जंग बन जाए. लालू को पता है कि गवर्नेंस या डिलिवरी उनकी ताकत नहीं है. लिहाजा उनके पास ‘सामाजिक न्याय’, जातीय समीकरण और ‘धर्मनिरपेक्षता’ ही सबसे बड़ा हथियार है. हालांकि कमंडल को मंडल से जोड़ने की बीजेपी की कोशिश लालू के रास्ते का कांटा बन सकती है. ओबीसी मतदाताओं के सबसे बड़े समूह यानी यादव मतदाताओं का रुख काफी हद तक चुनावी नतीजों पर असर डालने वाला है.

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2. जेडीयू
जून 2013 तक एनडीए का हिस्सा रही जेडीयू के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन उसके सामाजिक आधार को पुख्ता बनाता था. गठबंधन खत्म होने से अचानक जेडीयू बिहार की राजनीति में अकेली पड़ गई. समाज के एक बड़े तबके खासतौर से सवर्ण जातियों ने नीतीश का साथ छोड़ दिया. नीतीश इस बात को समझ चुके हैं कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद अगड़ी जातियां शायद जेडीयू को वोट ना करें लिहाजा उन्होंने अपनी ही पार्टी के विधायकों अनंत सिंह और सुनील पांडे को उनके हाल पर छोड़ दिया है. नीतीश ने गठबंधन उस वक्त तोड़ा जब उनका अपना वोट बैंक पूरी तरह से बनकर तैयार नहीं हुआ था. महादलित, अति पिछड़ी जातियों (ईबीसी) के जिस वोट बैंक को नीतीश अपने पाले में करने की जुगत में लगे थे वह प्रक्रिया तबतक पूरी नहीं हुई थी. इसी वजह से लोकसभा चुनाव में जेडीयू सिर्फ 2 सीटों तक सिमट गई. लोकसभा चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि कुर्मी और कोइरी को छोड़ दें तो बिहार की बाकी दूसरी दबंग जातियों ने जेडीयू के पक्ष में मतदान नहीं किया. इन सबके बावजूद ‘सुशासन’ और मुख्यमंत्री के तौर पर किए गए आर्थिक-सामाजिक विकास के काम और साफ छवि निश्चित ही नीतीश की सबसे बड़ी ताकत है. उनके मुकाबले एनडीए गठबंधन में किसी स्पष्ट नेतृत्व का ना होना नीतीश के पक्ष में जाता है.

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3. एनडीए
दिल्ली में मिली करारी हार से ब्रांड मोदी पर जो धब्बा लगा बीजेपी के लिए उसको साफ करने का सबसे प्रभावी अवसर बिहार चुनाव है. बिहार फतह के लिए पार्टी ‘साम दाम दंड भेद’ सबका सहारा लेने वाली है. बीजेपी अपने हिसाब से बिहार चुनाव का एजेंडा तय करना चाहती है. मोदी की विकासवादी राजनीति और जातीय समीकरणों की ज़मीनी सच्चाई के बीच तालमेल बनाने की कोशिश चल रही है. जनता परिवार के लिए सबसे आदर्श और आसान स्थिति तब होती अगर बीजेपी किसी नेता को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करती. लालू-नीतीश की दिली तमन्ना होगी की बीजेपी किसी सवर्ण को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए. ऐसे में बिहार चुनाव को मंडल बनाम कमंडल बनाने की उनकी चाहत सहज ही पूरी हो सकेगी. गिरिराज सिंह के इस बयान को, कि कोई सवर्ण बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बन सकता, इसी पृष्ठभूमि में देखने की ज़रूरत है. बीजेपी पूरी शिद्दत के साथ लालू के यादव मतदाताओं और नीतीश के महादलित और ईबीसी मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश में लगी है. लालू-नीतीश-कांग्रेस-एनसीपी के पक्ष में मुस्लिम वोटों की एकमुश्त गोलबंदी बीजेपी के लिए नुकसानदेह हो सकती है. लिहाजा बीजेपी को अपना मौजूदा आधार बरकरार रखते हुए कई दूसरे सामाजिक वर्गों को अपने पाले में लाने की चुनौती है. रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी का साथ बीजेपी को इसी चुनौती से निपटने के लिए ज़रूरी है.

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4. जीतनराम मांझी
मुख्यमंत्री के रूप में अपने 9 महीनों के कार्यकाल में मांझी ने अपने बयानों से अपना कद बढ़ाया. हालांकि उनके कामकाज को ‘सुशासन’ के सांचे में रखना मुश्किल है. मांझी का सामाजिक आधार सीमित है और चुनावी राजनीति में एक अलग इकाई के तौर पर उनकी ताकत का अबतक कोई टेस्ट नहीं हुआ है. कुछ जानकार तो उन्हें महादलितों के पूरे समूह का नेता तक मानने को तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि मांझी का नेतृत्व सिर्फ उनकी अपनी जाति तक सीमित है और उनको उनके वज़न से कहीं ज़्यादा महत्व मिल रहा है.

5. वाम दल
महागठबंधन से अलग अपना अस्तित्व बनाए रखने और अलग-अलग वामदलों की एकता के मकसद से लेफ्ट ने बिहार में एकला चलो रे की नीति अपनाई है. हालांकि लेफ्ट के अलग चुनाव लड़ने से एनडीए के मुकाबले महागठबंधन को ज़्यादा परेशानी हो सकती है.

6. पप्पू यादव
कोसी और सीमांचल के इलाके में पप्पू ने अपने दबंग अंदाज़ से अपना एक निश्चित आधार तैयार किया है. हालांकि एनडीए में शामिल होने की अबतक की कोशिशों में वह नाकाम होते दिख रहे हैं. बिहार बीजेपी के लिए पप्पू का साथ लेने का फैसला करना आसान नहीं होगा क्योंकि लालू के जंगलराज को चुनावी मुद्दा बनाने की बीजेपी की कोशिशों पर इसका निश्चित असर होगा. जात-पात से इतर विकास के मुद्दों पर वोट करने वाले प्रगतिवादी मतदाता इसे आसानी से हजम नहीं कर सकेंगे. पर बीजेपी के लिए पप्पू की अहमियत से इनकार भी नहीं किया जा सकता. लालू और उनके दोनों बेटों पर लगातार निशाना साधकर पप्पू बीजेपी की राह आसान कर रहे हैं. यादव मतदाताओं तक यह संदेश पहुंचाने की कोशिश हो रही है कि लालू अब पूरी जमात नहीं बल्कि सिर्फ अपने परिवार की चिंता करते हैं. ऐसे में अंतिम तौर पर चुनावों में पप्पू यादव की क्या भूमिका बनती है यह देखना दिलचस्प होगा.

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