नरेंद्र मोदी की लहर से बीजेपी उत्तर प्रदेश और बिहार में करिश्माई आंकड़ों को छूने में कामयाब हुई, लेकिन इससे भी बड़ी बात ये रही कि इस लहर ने दोनों प्रदेशों में जातिवाद के घिनौने स्वरूप को जबर्दस्त चोट पहुंचाई है.
जात और जमात के नाम पर बंटे इन दोनों प्रदेश के लोग ऐसा करेंगे यह किसी ने नहीं सोचा था. बीजेपी को मिली सीटों के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि इन दोनों प्रदेशों में लगभग चार दशकों के बाद जाति की राजनीति को जबर्दस्त चोट पहुंची है. 1977 के चुनाव में हमने देखा था कि इन राज्यों से जाति की राजनीति हवा हो गई थी. लेकिन उसके बाद फिर वैसी ही स्थिति हो गई. अब इस बार दोनों राज्यों में जनता ने जातिवादी ताकतों पर जबर्दस्त प्रहार किया है और नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने में मदद की.
बिहार में एक ओर जहां लालू यादव को अपने एमवाई समीकरण पर भरोसा था वहीं नीतीश कुमार को भी जातिगत समीकरण से उम्मीदें थीं. लेकिन जिस तरह से नतीजे आए उससे सभी हैरान हो गए. बीजेपी को न केवल तमाम अगड़ी जातियों का मत मिला बल्कि पिछड़ी जातियों में से बड़ी तादाद में वोटरों ने उसका साथ निभाया. इसका एक ही कारण समझ में आता है कि नए युवा वोटर जाति से ऊपर उठकर सोच रहे हैं. वे रोजगार और आर्थिक विकास की बात सोच रहे हैं.
बिहार में जातियों के बीच कितना वैमनस्य है, यह सभी जानते हैं और राजनेता उसका अपने फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. यह बात उत्तर प्रदेश पर भी लागू होती है जहां जातिगत राजनीति का आधार दरक गया है. लालू प्रसाद की तरह मुलायम सिंह यादव भी अपने एमवाई समीकरण पर उम्मीदें लगाए बैठे थे. लेकिन उन्हें भी करारा झटका लगा है. लेकिन हैरान तो किया दलितों ने जिन्होंने भी बीजेपी को बड़े पैमाने पर वोट दिया जिसका नतीजा बीएसपी भुगत रही है.
मायावती की इस पार्टी का लोकसभा चुनाव में तो सूपड़ा ही साफ हो गया. ज़ाहिर है कि दलित युवक-युवतियों ने जाति के ऊपर विकास को तरजीह दी. उन्हें भी लगा कि मोदी को एक बार मौका देने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए. जाति की संकीर्ण राजनीति में डूबे हुए इन राज्यों से ये चुनाव परिणाम सावन के बयार की तरह हैं जो देश को एक दिशा देते दिख रहे हैं. अब देखना है कि मोदी और उनकी सरकार जाति की जंजीर तोड़ने वालों की उम्मीदों पर कितने खरे उतरते हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो जातिवाद का यह अजगर हमें फिर जकड़ लेगा.