चुनाव प्रचार के दौरान मेरे मोबाइल में बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय का एक एसएमएस बारबार पीं-पीं करता रहा- दिल्ली को 15 दिन में भ्रष्टाचार मुक्त और 3 महीने के भीतर अपराध मुक्त कर देंगे. भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी पार्टी के वादे भी कुछ कम नहीं हैं. इसके अलावा भी इस चुनाव में आपने इतने वादे और दावे सुने होंगे, जिनको देखते ही लगता है कि पार्टियों के पास कोई अल्लादीन का चराग है, जिसे कुर्सी पर बैठते ही सीएम जला देगा. हालांकि इस मामले में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह थोडी साफगोई दिखाते हुए कह चुके हैं कि बैंक एकाउंट में 15 लाख रुपये काला धन लाने का मोदी का वादा तो एक चुनावी जुमला था. तो बेहतर होगा कि चुनाव के बाद जब नेता आपको बताएं कि उनके वादे चुनावी जुमले थे, उससे पहले ही आप हकीकत पर नजर डाल लें-
निर्भया को नहीं बचा सकता सीएम-
दिल्ली की कानून व्यवस्था और पुलिस सीधे केंद्र सरकार के हाथ में होती है. इस मामले में दिल्ली का मुख्यमंत्री उतना ही कर सकता है, जितना कोई भी आम आदमी. जो भी पार्टी अपराध मिटाने का दावा कर रही है वह सोलह आने झूठ बोल रही है. लेकिन पार्टियां भी क्या करें दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध और अन्य अपराध अपने आप चुनावी मुद्दा बन जाते हैं ऐसे में पार्टियां इन पर दावे किए बिना नहीं रह सकतीं. इसलिए गांठ बांध लीजिए कि सीएम किसी पार्टी का बने, दिल्ली के अपराधों की जिम्मेदारी गृहमंत्री राजनाथ सिंह की होगी, किसी केजरीवाल, किरण बेदी या अजय माकन की नहीं होगी.
बिजली के वादे भी हवाई हैं-
प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री ने बार बार कहा कि बिजली की ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि आप जिस चाहे कंपनी से बिजली का कनेक्शन लेंगे. उन्होंने आसान शब्दों में बताया कि जैसे मोबाइल ऑपरेटर बदल सकते हैं वैसे ही बिजली कंपनी बदली जा सकेगी. यहां आपको बता दें कि सिद्धांतरूप में शीला दीक्षित की तत्कालीन सरकार इस व्यवस्था को पारित कर चुकी थी. लेकिन बिजली मोबाइल सिग्नल की तरह मोबाइल टावर से न आकर बिजली के तारों से आती है. इसके अलावा और भी बहुत सी ऑपरेशनल मजबूरियां हैं, जिनके कारण पांच साल पहले सिद्धांत रूप में सबके सहमत होने के बावजूद यह व्यवस्था लागू नहीं हो पाई. और इसी चुनाव अभियान में ऐसी कोई बुनियादी बात नहीं कही गई, जिसमें इन ऑपरेशनल मजबूरियों को बदलने की बात कही गई हो.
उधर आप आदमी पार्टी की सस्ती बिजली सिर्फ सब्सिडी से आ पाएगी. उसके कहने पर बिजली कंपनियां किसी सूरत में दाम कम नहीं करेंगी. उलटे अगर सरकार ने ज्यादा कोशिश की तो वे दिल्ली की बिजली सप्लाई गडबडा देंगी, वैसे भी एक महीने बाद गर्मियां आने वाली हैं. और अगर सरकार ने सब्सिडी दी तो इसके लिए पैसा कहां से आएगा. दिल्ली सरकार का निजाम केंद्र की मदद से चलता है. जाहिर है केजरीवाल सरकार बनी तो हार से बौखलाए मोदी कम से कम सब्सिडी के लिए तो उसे पैसा देने वाले नहीं हैं. इसलिए बिजली पर ज्यादा उत्साहित होने के आसार नहीं हैं.
हरियाणा पानी नहीं देगा-
पिछले 10 साल दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस सरकार थी, लेकिन हरियाणा ने दिल्ली को अतिरिक्त पानी नहीं दिया. अगर हरियाणा ऐसा करता है तो वहां के मुख्यमंत्री अपने किसानों को क्या जवाब देंगे. इसीलिए 10 जनवरी की प्रधानमंत्री की रैली में मौजूद होने के बावजूद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पानी के मुद्दे पर पूरी तरह खामोश रहे.
केंद्र, एमसीडी और डीडीए-
ऊपर बताया जा चुका है कि पुलिस केंद्र के पास है. इसके अलावा दिल्ली विधानसभा में कोई विधेयक रखने से पहले उसे केंद्र की मंजूरी लेनी होती है. यह व्यवस्था अन्य किसी राज्य में लागू नहीं होती, लेकिन आधा राज्य होने के कारण दिल्ली के मुख्यमंत्री को हर काम बडे दरबार से पूछकर करना होता है. पिछली बार लोकपाल को लेकर भी यही पेच फंसा था. केजरीवाल केंद्र की अनुमति के बिना बिल लाए थे और कांग्रेस ने नियमों का हवाला देकर उसका समर्थन नहीं किया था. यानी केंद्र से अच्छे रिश्ते के बिना विधानसभा में पत्ता नहीं हिलेगा.
दूसरा मुद्दा है एमसीडी और बाकी नगर निकायों का. दिल्ली की मुख्य सडकें और फ्लाई ओवर तो 15 साल में शीला दीक्षित इतने बनवा चुकी हैं कि अब बनवाने की जगह ही नहीं है। कॉलोनियों के अंदर की सडकें एमसीडी के पास आती हैं. शहर की साफ-सफाई भी इन्हीं निकायों के पास है. यानी दिल्ली की चौडी सडकों से हटते ही गलियों और बस्तियों की दुनिया पूरी तरह सीएम के हाथ से बाहर है. यानी यहां के बारे में भी आप मुख्यमंत्री से सवाल न करें. गरीबों के लिए मकान बनाने का मुद्दा है तो दिल्ली की जमीनों पर डीडीए का कब्जा है. जब तक डीडीए हां न करे, दिल्ली सरकार के पास नए निर्माण करने के लिए जगह नहीं होगी.
टकराव नहीं, रास्ता खोजें सीएम
तो क्या दिल्ली का मुख्यमंत्री कुछ नहीं कर सकता. ऐसा भी नहीं है, वह चाहे तो शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान दे सकता है. इसके अलावा दिल्ली जल बोर्ड के पास पहले से मौजूद पानी के बेहतर प्रबंधन पर ध्यान दे सकता है. शहर को खूबसूरत बनाने के भी उसके पास विकल्प हैं. लेकिन ये सारे काम विकास के होते हुए भी सनसनी या खबर बनाने वाले नहीं हैं. ऐसे में बेहतर होगा कि मुख्यमंत्री केंद्र, डीडीए या निकाय के कामों में दखल देने के बजाय अपने सीमित कार्यक्षेत्र में काम करे. दिल्ली का मुख्यमंत्री जितनी जल्दी यह स्वीकार कर लेगा कि वह अधूरे राज्य का अधूरा मुख्यमंत्री है, उतनी जल्दी वह दिल्लीवालों की बेहतर सेवा कर पाएगा. अगर उसने दूसरे मुख्यमंत्रियों से अपनी तुलना की तो दिल्ली वाले हाथ मलते रह जाएंगे. वैसे भी मुख्यमंत्री की कुर्सी दिल्ली में चले घमासान चुनाव प्रचार के लिहाज से कुछ ज्यादा ही छोटी है.