झाड़ग्राम फुटबॉल मैदान में उतरने से पहले हेलिकॉप्टर आसमान में मंडराता है. नीचे जुटे लोगों का हो-हल्ला उसके घरघराते पंखों के शोर में डूब जाता है. लोग एक दूसरे से धक्कामुक्की करते हुए भरी दोपहरी की चिलचिलाती धूप में आसमान की ओर ताक रहे हैं. एक पल के लिए खामोशी पसर जाती है. और फिर तेज तालियों की गड़गड़ाहट. शोर-शराबा और जय-जयकार नारों में बदल जाती हैः “ममता बनर्जी स्वागतम्. मां-माटी-मानुष जिंदाबाद. तृणमूल कांग्रेस जिंदाबाद.”
हेलिकॉप्टर से तेज छलांग लगाने के बाद ममता बनर्जी अपने सुरक्षा दस्ते की गुजारिश के बावजूद मंच की तरफ नहीं बढ़तीं. इसके बजाए वे भीड़ से मिलना शुरू कर देती हैं. वे लोगों से हाथ मिलाती हैं, नमोश्कार करती हैं और अपनी दीदी को छूने को लालायित लोगों की इच्छा पूरी करती हैं. वे चुनाव प्रचार में उनके कदमों से कदम मिलाने की कोशिश करते पत्रकारों से मजाकिया लहजे में कहती हैं, “मैं भूतों की तरह खटती हूं (आमि भूतेर मतो खाटी).”
सरगर्मी उफान पर
उन्हें अगले चार घंटों में पश्चिम मिदनापुर के 40 किमी लंबे धूल भरे देहाती इलाकों में एक के बाद एक तीन सियासी रैलियों को संबोधित करना और छह किमी पैदल जुलूस में चलना है. पारा 40 डिग्री से ऊपर जा चुका है. ऐसे में उनके पास हेलिकॉप्टर का सहारा लेने के अलावा कोई चारा भी नहीं है. लेकिन घोषित तौर पर जड़ों से जुड़ी नेता को पैदल मील नापना बेशक अच्छा लगता है. ऊर्जा की खुराक के लिए वे टॉफी चूसती हैं, सड़क किनारे झोंपड़ियों में जाकर चाय की चुस्कियां लेती हैं, साड़ी के पल्लू से पसीने से लथपथ चेहरा पोंछती है. इस पूरे दौरान लोगों को गौर से सुनते, बात करते हुए मुस्कराते और उन्हें गले लगाते आगे बढ़ती जाती हैं.
लेकिन नजरें गड़ाए रखें. बंगाल में चुनावों के साथ ही सरगर्मी उफान पर है और तलवारें म्यान से बाहर निकल आई हैं. कद्दावर और रसूखदार सियासतदां एक-दूसरे को पटखनी देने के लिए कड़े मुकाबलों में उलझे हैं. कीचड़ उछालना, लांछन लगाना, तंज कसना और बेइज्जती करना रोजमर्रा की बात हो गई है. पश्चिम बंगाल की चुनावी जंग 294 निर्वाचन क्षेत्रों में लड़ी जा रही है. पिछले चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलाई थी और राज्य को वामपंथियों के 34 साल पुराने कब्जे से आजाद कराया था. 2016 में अब कौन राजा, या रानी, बनकर उभरेगा?
जुबानी गोलों की बरसात
यह मार्च की 26 तारीख का रविवार है. झाड़ग्राम से महज 46 किमी दूर, कार से 49 मिनट के फासले पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गरज रहे हैः “वह शहंशाह की तरह बर्ताव करती है.” वे “शारदा से नारद तक” अपनी पार्टी के घोटालों से घिरी होने के बावजूद ममता की दिलेरी पर हैरानी जताते हैं. खड़गपुर की यह रैली पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनावों के लिए उनकी पहली रैली है. प्रधानमंत्री नजदीक की एक मस्जिद से उठती अजान की आवाज को सुनकर भाषण थोड़ी-सी देर के लिए रोक देते हैं. फिर आगे कहते हैं, “वामपंथियों ने बंगाल की कमर तोड़ी दी और यह सरकार उसे दफनाने में लगी है.”
करीब दो घंटे और 125 किमी के फासले पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राज्य सचिव तथा पेशे से डॉक्टर कॉमरेड सूर्यकांत मिश्रा माइक्रोफोन में पूरी ताकत से दहाड़ रहे हैः “वे जब भी भाषण देती हैं, हमेशा वामपंथियों की 34 साल की हुकूमत की बात करती हैं. लेकिन कभी आपने देखा कि हमारे नेताओं को सीबीआइ ने गिरफ्तार किया हो?” “व्यापक हित” में कांग्रेस से हाथ मिलाने का आह्वान करने वाले विधानसभा में विपक्ष के नेता अब कसम खाते हैं कि वे बंगाल की “एक इंच जमीन भी” न तो ममता और न ही “गांधी के हत्यारों और गोडसे के उपासकों” की ओर जाने देंगे.
अगले ही दिन, 29 मार्च को गोले फिर बरसते हैं. मुख्यमंत्री देश के सबसे गरीब जिलों में से एक पुरुलिया की अपनी रैली में ऐलान करती हैं, “कोई बंगाल का अपमान करता है तो उसका मुझसे बड़ा दुश्मन दूसरा कोई नहीं होगा.” वे कहती हैं, “आज आप (बीजेपी) दिल्ली में सत्ता में हो, लेकिन कल सत्ता गंवा दोगे.” वे तेजी से एक के बाद एक प्रहार करती हैं. प्रधानमंत्री को घेरते हुए वे अपने श्रोताओं को 2001 के उस स्टिंग की याद दिलाती हैं जिसमें बंगारू लक्ष्मण को बीजेपी से जाना पड़ा था. कांग्रेस के साथ वामपंथियों के मेल-जोल को “नापाक गठबंधन” करार देते हुए वे मिश्रा पर हमला बोलती हैं.
भीड़ की ताकत
यह अंदाजे-बयां अब ममता बनर्जी की पहचान बन गया है. एक पल के लिए वे तुनकमिजाज-भावुक हो सकती हैं और दूसरे ही पल रौद्र रूप धारण करके आग उगल सकती है. मगर वे जिस भी अवतार में हों, भीड़ उन्हें हाथोहाथ लेती है. वे “सदाबहार दीदी” बन जाती हैं, जो अच्छे वक्त में और खराब वक्त में भी, उम्मीद और जरूरत के समय हमेशा आपके साथ होती हैं. वे लोगों के दिलों को छूती हैं और उनकी सामुदायिक भावना को पुचकारती हैं. 29 मार्च को उन्होंने अपने दुश्मनों की धज्जियां तो उड़ाईं ही, अपनी निजी अपील के धागों से अपने चुनावी भाषण का ताना-बाना बुना, “मेहरबानी करके हमें गलत मत समझना. अगर किसी ने कोई गड़बड़ी की है, तो मैं खुद उसे सही रास्ते पर लाऊंगी. लेकिन मेहरबानी करके हमसे मुंह मत फेरना.”
इस पर गौर कीजिएः जनवरी में बीरभूम जिले में एक सरकारी कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए मुख्यमंत्री ने बच्चों को नंगे पांव स्कूल जाते देखा. उसी पल उन्होंने शिक्षा मंत्री को जूते और साइकिल मुफ्त बांटने का हुक्म दे डाला, हालांकि सरकारी खजाने पर 754 करोड़ रु. का बोझ पड़ने वाला था. यही ममता का जादू है- लोगों की भावनाओं को छूना, उनकी तकलीफों को समझना और उनकी दिक्कतों को दूर करने की कोशिश करना.
दक्षिण कोलकाता के एक पुराने भद्र मुहल्ले की 30-बी हरीश चटर्जी स्ट्रीट पर एस्बेस्टस की छत से ढके उनके घर के बगल में रहने वाले एक पड़ोसी बताते हैं, “उस वक्त वे कॉलेज में थीं और तभी उस इलाके में एक अप्रिय घटना घटी.” बड़े लोग अभी कोई रास्ता तलाश ही रहे थे कि ममता ने आगे बढ़कर समस्या हल कर दी. वे कहते हैं, “फैसले लेते वक्त वे पूरी तरह निष्पक्ष होती हैं. इससे पास-पड़ोस में हर कोई उन्हें “दीदी” कहने लगा.” और यह मुंहबोला नाम तभी से उनके साथ जुड़ गया.
अपनेपन की सियासत
ममता ने अपनी सियासत 1970 के दशक में कांग्रेस के साथ शुरू की थी. उस वक्त वे हाजरा के कम बौद्धिक माने जाने वाले जोगमाया देवी कॉलेज में इतिहास की छात्रा थीं. पहले पहल वे तब रोशनी में आईं जब वे जोशोखरोश के साथ 1975 में इमरजेंसी से पहले इंदिरा गांधी के खिलाफ एक रैली के लिए कोलकाता आए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के काफिले के आगे तनकर खड़ी हो गई थीं.
1984 में जादवपुर लोकसभा सीट पर दिग्गज वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर वे रातोरात मशहूर हो गईं. ईमानदार और ओजस्वी, सीधी-साधी सूती धोती और रबर की चप्पलें पहने, अपने लंबे बालों को पीछे एक चोटी में गूंथे उन्होंने वामपंथियों के इस मजबूत गढ़ में खामोशी से घर-घर का दौरा किया और कइयों के साथ अपनापे भरी दोस्ती कायम कर ली. इस तरह उनकी मदद करते, उन्हें सुनते, रास्ता दिखाते, उनके साथ गप लड़ाते हुए उन्होंने उनके दिल, दिमाग और वोट जीत लिए.
अपनापे और आत्मीयता का सियासी अंदाज खालिस उनका अपना है. इसके सम्मोहन को रोक पाना मुश्किल हैः चाहे झाड़ग्राम के मैदान में ममता के ऊपर गेंदे के फूल बरसाने के लिए घंटों इंतजार कर रही भीड़ में शामिल 80 साल की चूड़ामोनि मुर्मू हों या 8 साल की मुनिया. दो आदिवासी लड़कियां झरना दोलुइ और सीतामोती भी अपनी सहेलियों के साथ वहां थीं, जो ऊपर से नीचे तक पीली पोशाकें पहने पारंपरिक धमसा-मादोल नगाड़ों की थाप से “दीदी” का मनोरंजन करने आई थीं. उन्हें खास मेहमानों की तरह इज्जत दी गई, ममता ने उन्हें अपने साथ मंच पर बैठाया और बाद में जोशीले नृत्य में खुद भी उनके साथ शामिल हो गईं.
ममता का जादू
क्या सत्ता ने ममता को बदल दिया है? क्या वे जनता से दूर हो गई हैं, जिसके बल पर वे यहां पहुंची है? “अरे, कतई नहीं.” पलटकर जवाब दिया एक दिग्गज राजनैतिक पत्रकार ने. अपना नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने कहा, “मुख्यमंत्री बनने के बाद जब हम उन्हें “माननीय मुख्यमंत्री” कहकर संबोधित करते थे, तो वे हमें बीच में ही टोक देती थीं. उन्होंने हमसे कहा था कि वे दीदी कहलाना ही पसंद करेंगी.”
इतना ही नहीं, एक नौकरशाह जो अपना नाम नहीं छपवाना चाहते, कहते हैं, “वे अकेली मुख्यमंत्री हैं जो अपने मुख्य सचिव को “दादा” कह सकती हैं, उनसे अपने साथ चाय पीने का आग्रह कर सकती हैं और खुद अपने कप से प्याली में चाय उड़ेलकर दे सकती हैं.” वे यह भी कहते हैं, “लेकिन याद रखें, वे ऐसी मुख्यमंत्री भी हैं जो नौकरशाहों से पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह बर्ताव कर सकती हैं, जब निबटना मुश्किल दिखाई दे तो उन्हें झिड़क भी सकती हैं और उन्हें अहम महकमों से बेदखल भी कर सकती हैं.”
आत्मीय, स्वेच्छाचारी सरीखे विशेषणों की इस फेहरिस्त में एक और विशेषण जोड़ लीजिए, जिसका चारों तरफ दबी जबान से जिक्र किया जाता हैः निरंकुश. सत्ता में आने के फौरन बाद वे मेयर सोवन चटर्जी से और तृणमूल के नियंत्रण वाले कोलकाता नगर निगम को चलाने के उनके तौर-तरीकों से नाराज थीं. लिहाजा एक स्विमिंग पूल का उद्घाटन करते समय उन्होंने कमर तक गहरे पानी में उन्हें धक्का दे दिया था. हैरान-परेशान चटर्जी मुस्कराते हुए तैरकर बाहर निकले, क्योंकि वे जानते थे कि उनका नाराज होना उन्हें रास नहीं आएगा. पार्टी के भीतरी लोगों के लिए यह संदेश थाः किसी ने अपने कद से ऊंचा उठने की कोशिश की तो वे उसे ठिकाने लगा सकती हैं.
हथकंडे या भलमनसाहत
उनके पड़ोसी याद करते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी जब उनका काफिला मुहल्ले की संकरी गलियों में खरामा-खरामा आगे बढ़ रहा होता था, वे पुराने जाने-पहचाने चेहरों के साथ दुआ-सलाम करने के लिए अक्सर कार से उतर आती थीं. उनके एक पड़ोसी कहते हैं, “वे तेलेभाजा (पकौड़ी) दुकान पर रुक जाती और उसके मालिक से पूछतीं कि धंधा कैसा चल रहा है. अलबत्ता अब सेहत की वजह से वे उसकी प्रमुख ग्राहक नहीं रह गई हैं.”
ममता के घर अक्सर आने-जाने वाले बताते हैं कि मूढ़ी और हरी मिर्च और तेलेभाजा शाम को उनकी मेज पर अखबार बिछाकर फैला दिया जाता और वे हर आने वाले से उसका स्वाद लेने को कहतीं. फुरसत में वे या तो अपना की-बोर्ड निकाल लेतीं और कोई धुन बजातीं या फिर ट्यूब रंगों में अपनी उंगलियां डुबोकर सधे हुए या अनाड़ी-से चित्र उकेरतीं. रबींद्र संगीत उनका पसंदीदा संगीत है. उन्होंने कोलकाता के हरेक ट्रैफिक सिग्नल पर रबींद्र संगीत बजवा दिया. अगर कोई उन पर हंसता भी है तो ममता परवाह नहीं करतीं, “ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं स्पेनिश अंग्रेजी बोलती हूं.”
ये सब सियासी हथकंडे हैं, लोगों का प्रिय बनने का हुनर या सीधी-सच्ची सादगी? ममता ने हरेक को अटकलें लगाने के लिए छोड़ दिया है. मसलन, सियासी मतभेदों के बावजूद वे ज्योति बसु की बेहद इज्जत करती थीं, विधानसभा सत्र के आखिरी दिन वे शानदार दावत देतीं और चारों तरफ घूम-घूमकर विपक्षी सदस्यों से कुछ और इलिश माछ और चिंगड़ी मलाइकरी लेने की गुजारिश करतीं, उनकी सादगी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दिल को छू लिया था जब वे उनकी मां के पैर छूने के लिए उनके घर आए थे, हर बार घर से बाहर निकलने पर उनकी मां गायत्री देवी उन्हें एक 10 रु. का नोट देतीं, जिसे वे कभी खर्च नहीं करतीं, और वे काफिला रोककर सड़क दुर्घटना में घायल लोगों को अपनी कार से अस्पताल भेजती हैं.
मैं ही हूं पार्टी
वे अपनी पार्टी की स्टार प्रचारक हैं और मानती हैं कि लोग तृणमूल कांग्रेस को उन्हीं की वजह से वोट देते हैं. जब मुकुल रॉय, सुब्रत मुखर्जी, फरहाद हकीम और सोवन चटर्जी सरीखे उनके भरोसेमंद सिपहसालार काम के बदले नकद लेन-देन के नारद स्टिंग की जद में आ गए (14 मार्च, 2016 को), तब उन्होंने वोटरों को भरोसा दिलाया कि उन्हें पार्टी को इसलिए वोट देना चाहिए क्योंकि तृणमूल का “चेहरा” वे खुद हैः “दुशो चुरा-नोबोई सीटे आमिई प्रार्थी (सभी 294 सीटों पर मैं ही प्रत्याशी हूं).”
ममता खुद अपने पर भरोसा करके चल रही हैं. उन्हें भीड़ खींचने वाली नेता होने की अपनी क्षमता पर भरोसा है और उस “अच्छे राजकाज” पर भी, जो वे मानती हैं कि उन्होंने पिछले पांच साल में बंगाल के लोगों को दिया है. एक के बाद एक रैली में वे अपनी सरकार की उपलब्धियां बताने वाले आंकड़ों की झड़ी लगा देती हैः उनकी खाद्य सुरक्षा योजना खाद्यसाथी के तहत 7.49 करोड़ लोगों को 2 रु. किलो की दर से प्रति परिवार 35 किलो अनाज मिल रहा है, उनकी कन्याश्री योजना की बदौलत 33 लाख लड़कियां कम उम्र में शादी कर दिए जाने की बजाए उच्च शिक्षा में दाखिला ले पाईं, उनकी युवाश्री योजना में पढ़े-लिखे बेरोजगारों को 1,500 रु. भत्ते के तौर पर मिल रहे हैं, प्राकृतिक आपदा के शिकार 15 लाख पीड़ितों को 2 रु. प्रति किलो की दर से सस्ता राशन मिल रहा है.
वाम मोर्चे के पूर्व भूमि मंत्री अब्दुर रज्जाक मुल्ला कहते हैं, “ममता वामपंथियों से भी ज्यादा वामपंथी साबित हो रही हैं.” उनके विरोधी अलबत्ता इससे इत्तेफाक नहीं रखते. जादवपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और कांग्रेसी ओ.पी. मिश्र कहते हैं, “6.5 करोड़ वोटरों में से 70 फीसदी बंगाल के गांव-देहात में हैं, इसलिए ममता ने योजनाएं शुरू की हो सकती हैं ताकि गांव-देहात का हर घर लाभ पा सके. मगर आखिर में टीएमसी का काडर ही इसकी अधिकतम फसल काटेगा.”
ममता 2016 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ रही है. वे हर रैली में भीड़ से गुजारिश करती हैं, “विकास को फलते-फूलते देखना चाहते हैं, तो हमारे निशान जोड़ा फूल को वोट दीजिए.”
बंगाल में सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री को दूसरा मौका देने का इतिहास रहा है. वाम मोर्चे को 1977 से लगातार सात मौके मिले. उससे पहले 1952 से 1967 तक कांग्रेस को तीन मौके दिए गए. इस सीधे-सादे अनुमान के हिसाब से चलें तो इस चुनाव में किसी भी दूसरे से ज्यादा फायदा उठाने की हालत में शायद ममता ही हैं.