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इंडिया टुडे से: तमिलनाडु में अम्मा का शायद आखिरी खैराती ब्रांड

सत्ता विरोधी माहौल और तीसरे मोर्चे के कारण तमिलनाडु में उठी बदलाव की हवा को रोकने के लिए जयललिता ने अम्मा ब्रांड और ताजा चेहरों पर जोर लगाया.

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भारत के दूसरे राष्ट्रपति के नाम से जानी जाने वाली चेन्नै की सड़क राधाकृष्णन सलै के आर-पार बमुश्किल एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने घरों में वे दोनों अपना ज्यादातर वक्त गुजारते हैं. केवल पांच साल में वे एक बार एक-दूसरे का रास्ता काटते हैं जब तमिलनाडु का विधानसभा चुनाव आता है. यह सिलसिला 1989 से जारी है और वे बदल-बदल कर मुख्यमंत्री बन रहे हैं.

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यह परंपरा हालांकि 50 साल पुरानी है जब राज्य की सत्ता को 1967 के बाद से द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्नाद्रमुक (एआइएडीएमके) आपस में बांटती आई हैं.

इस बार हालांकि यह दोतरफा जंग खतरे में है क्योंकि एआइएडीएमके की 68 वर्षीया नेता जे. जयललिता की तबीयत कुछ खास अच्छी नहीं है जबकि डीएमके के मुखिया 92 वर्षीय करुणानिधि की सेहत पर भी लगातार गंभीर खतरा बना हुआ है. दोनों के लिए यह जीवन और मरण की जंग है और इस बार उत्तेजना अपने चरम पर है. अब आगामी 16 मई को राज्य के मतदाताओं को तय करना है कि राज्य में इन दोनों पार्टियों की सत्ता जारी रखनी है या फिर किसी तीसरे विकल्प को मौका देना है.

तमिलनाडु के चुनावी क्षितिज पर तीसरा मोर्चा 2014 के लोकसभा चुनावों में भी उभरा था, लेकिन इस बार की तरह वह उतना ताकतवर नहीं दिख रहा था. अबकी इस गठबंधन की अगुआई देसीय मोरपोक्कु द्रविड़ कझगम (डीएमडीके) के नेता 63 वर्षीय कैप्टन विजयकांत कर रहे हैं. उनकी पार्टी ने चार छोटी पार्टियों के एक गठजोड़ के साथ पीपल्स वेलफेयर फ्रंट (पीडब्ल्यूएफ) नाम का गठबंधन कायम किया है. इन चारों पार्टियों का अपने-अपने क्षेत्र में वर्चस्व है. कैप्टन इस गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. अपनी नायकीय शख्सियत और पक्के रंग की वजह से कैप्टन को करुप्पु एमजीआर (सांवला एमजीआर) भी कहते हैं. एआइएडीएमके और डीएमके के खिलाफ  राज्य में इस बार जो गठबंधन मजबूती से खड़ा नजर आ रहा है, विजयकांत उसका नेतृत्व कर रहे हैं.

जयललिता के सामने कैप्टन की चुनौती है, भ्रष्टाचार के कुछ आरोप भी हैं और आय से अधिक संपत्ति का एक मामला भी उनके खिलाफ लंबे समय से चल रहा है, लेकिन इन सब का उनकी सेहत पर खास फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है. वे सत्ता विरोधी माहौल को तोडऩे में जुटी हुई हैं ताकि दूसरी बार लगातार जीत सकें. इसके लिए उन्होंने ब्रांड अम्मा के नाम से सब्सिडी योजनाओं की झड़ी लगा दी है जिसे राज्य में हर कहीं देखा जा सकता है.

अम्मा ब्रांड की सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं से उन्होंने तमिलनाडु का चेहरा ही बदल डाला है. एक के बाद एक योजनाओं की नई-नई रेवड़ियां बांटी जा रही हैं. कभी मुक्रत चावल, तो कभी सस्ती कैंटीनें, दवाएं, बोतलबंद पेयजल, औरतों के लिए मिक्सर-ग्राइंडर और लड़कियों के लिए साइकिल, लैपटॉप से लेकर चश्मे तक बांटे जा रहे हैं. उन्होंने बीते 1 मार्च को अपनी सबसे हालिया योजना का लोकार्पण किया- स्वास्थ्य सेवा पहलों की एक लंबी फेहरिस्त, जिसमें 10 करोड़ रु. की लागत वाली मास्टर हेल्थ चेक-अप योजना शामिल है.

जयललिता ने 2011 के चुनाव के बाद से ही राजकाज पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी. लोगों के साथ उनका सीधा संपर्क ही उनकी ताकत है, लेकिन कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं-अधिकतर मंत्रियों और अफसरों की जद से वे दूर ही रहती हैं, सिवाए तब के जब उन्हें खुद किसी की याद आती है. राजनैतिक विश्लेषक एन. सत्यमूर्ति कहते हैं, “वे निर्णयात्मक ढंग से फैसले सुनाती हैं और काफी प्रभावी संवाद करती हैं जिससे उनकी बात पार्टी के निचले स्तरों तक भी पहुंचती है.” वे बताते हैं कि विचारों और हरकतों में जो कोई उनके खिलाफ जाता है, उसे दंड मिलना तय है.

अपनी इसी निरंकुश शैली के चलते उन्होंने मनमर्जी से अपनी कैबिनेट के सदस्यों को बार-बार बदला है. यह बदलाव इतनी बार हुआ है कि एआइएडीएमके के 150 विधायकों के बीच हर तीन में से एक विधायक कुछ हफ्तों या महीनों के लिए मंत्री रह चुका है. सितंबर 2001 से मार्च 2002 के बीच और दूसरी बार सितंबर 2014 से मई 2015 के बीच (जब जयललिता जेल में थीं) उनकी जगह मुख्यमंत्री रह चुके ओ. पनीरसेल्वम भी इसमें कोई दखल नहीं दे सके. वास्तव में उन्हें पार्टी के भीतर दरकिनार कर दिया गया है और मई में होने वाले चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करने वाली प्रक्रिया का वे हिस्सा तक नहीं हैं. ताजा चेहरों को मैदान में उतारने के लिए अम्मा व्यक्तिगत रूप से उम्मीदवारों से मिल रही हैं-सत्ता विरोधी माहौल से निबटने की यह कुशल रणनीति हो सकती है.

पार्टी में शायद ही कभी कोई उनका विरोध करता है और कभी अगर ऐसा हुआ भी, तो ऐसा करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और वे चुपचाप निकल भी लेते हैं. इस मामले में चेन्नै के हार्बर विधानसभा क्षेत्र से विधायक पाला करुपैया एक अपवाद हैं, जो लेखक हैं और अपनी कठोर टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. उन्हें पार्टी से जनवरी 2016 में निष्कासित किया गया था. जाते-जाते उन्होंने कह दिया कि उनकी राजनीति को एक ऐसी पार्टी बर्दाश्त नहीं कर सकती जहां काडर को “भेड़ों के झुंड” की तरह बरता जाता है.

उनके निकाले जाने के पीछे की वजह एक साक्षात्कार था जो उन्होंने तमिल पत्रिका आनंद विकटन को दिया था, जिसमें उन्होंने जयललिता की उपस्थिति में एआइएडीएमके के नेताओं के “गुलाम जैसे व्यवहार” का मखौल उड़ाया था. उन्होंने राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में भी टिप्पणी की थी और यह पूछा था कि “अगर भ्रष्टाचार इतना फैल चुका है तो क्यों न जनता पर एक भ्रष्टाचार कर लगा दिया जाए? कम से कम लोगों को इतना तो पता होगा कि किसे कितना देना है.”

प्रतिद्वंद्वी डीएमके का दुर्भाग्य है कि वह इस बार भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बना पाने में नाकाम रही है. खासकर इसलिए भी क्योंकि पार्टी खुद 2जी घोटाले में लिप्त है. यह वही डीएमके है जिसने राज्य में पहली बार खैरातों की परंपरा शुरू की थी और इसे 2006 में नई ऊंचाई तक पहुंचाते हुए अपने वादे के मुताबिक रंगीन टीवी सेट बांटे थे. उसके बाद एक दशक के दौरान आई सरकारों ने खैरात पर करीब 11,500 करोड़ रु. फूंक दिए जिनमें मुख्यतः तीन योजनाएं शामिल थीं- रंगीन टीवी, लैपटॉप और घरेलू उपकरण. यह सब उस दौरान हुआ जब राज्य की वित्तीय स्थिति पर आरबीआइ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाल के वर्षों में शिक्षा और स्वास्थ्य पर तमिलनाडु का व्यय देश के बड़े राज्यों के औसत व्यय से नीचे खिसक चुका है.

इस बार अच्छी बात यह हुई है कि दूसरी छोटी पार्टियां और नागरिक समाज समूह असली मुद्दों को उठा रहे हैं-जैसे प्रशासनिक मुद्दे, जातिगत हिंसा, पानी और बिजली का संकट और कुल 234 विधानसभा क्षेत्रों के बीच हर पांच में से एक क्षेत्र में खनन माफिया की भूमिका.

छोटे और सीमांत किसान खेती नहीं करना चाहते क्योंकि पानी की कमी के कारण वे साल भर में एक से ज्यादा फसल नहीं उगा सकते. बड़ी काश्त वाले मजदूरों की कमी का रोना रोते हैं और किसान-हितैषी नीतियों के अभाव की बात उठाते हैं जो खेती को लाभ का सौदा बना सकती थीं. किसानों के मुद्दों को उठाने वाले एक अलाभकारी मंच ऑल फार्मर्स ऑर्गेनाइजेशन कमेटी, तमिलनाडु के प्रमुख पी.आर. पांडियन कहते हैं, “खेती का रकबा लगातार घट रहा है लेकिन सरकारों को इसकी कोई चिंता नहीं है. संवेदनहीनता इतनी तगड़ी है कि किसानों का उत्पीडऩ करने और कर्ज की वसूली के लिए पुलिस का सहारा लिया जाता है जबकि उनके हालात का कोई ख्याल नहीं किया जाता.”

चेन्नै वाझ कावेरी मइंदरगल के अध्यक्ष एस. राजशेखरन कहते हैं, “खेती से जुड़ी अदूरदर्शी नीतियां काफी तेजी से कावेरी डेल्टा को तमिलनाडु के चावल के कटोरे से धूल के कटोरे में तब्दील कर रही हैं.” लोकरंजक नीतियों ने राज्य में खेती और उद्योगों की तरक्की को रोक रखा है. नोकिया और फॉक्सकॉन जैसी कंपनियों ने यहां अपना उत्पादन बंद कर दिया है और वे पड़ोसी राज्यों आंध्र तथा महाराष्ट्र में चली गई हैं.

इंडिया टुडे ने 2003 में “राज्यों की दशा-दिशा सर्वे” शुरू किया था. इस बार के सर्वे में तमिलनाडु 2014-15 के पहले स्थान से गिरकर इस साल 20वें स्थान पर आ गया है. यह आज तक की सबसे तेज गिरावट है. यह गिरावट तीन श्रेणियों में राज्य की खराब नीतियों के चलते आई है- कृषि में यह पहले से गिरकर 21वें स्थान पर आया, शिक्षा में तीसरे से 13वें पर और बुनियादी ढांचे में 11 से 17वें स्थान पर आ गया.

डीएमके के प्रवक्ता टीकेएस इलंगोवन कहते हैं, “एआइएडीएमके 2011 में किए सारे वादे भूल गई. यहां तक कि वह इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्याएं भी रोक पाने में नाकाम रही.” उनकी पार्टी दिग्गज नेता करुणानिधि की अगुआई पर भरोसा कर रही है. साथ ही डीएमके को करुणानिधि के बेटे एम.के. स्टालिन द्वारा नए तरीके से संगठित किए गए कार्यकर्ताओं से भी ताकत मिल रही है जिन्होंने पार्टी का चुनावी घोषणापत्र बनाने के लिए जमीनी मुद्दों की पहचान के लिए शुरू किए गए अभियान “नमक्कु नामे” के अंतर्गत सभी 234 विधानसभा क्षेत्रों का बीते सितंबर से फरवरी के बीच दौरा किया है.

पर्यवेक्षकों को हालांकि संदेह है. मद्रास यूनिवर्सिटी के राजनीति और लोक प्रशासन विभाग में प्रोफेसर रामू मणिवक्कन कहते हैं, “डीएमके और एआइएडीएमके, दोनों ही तेजी से खत्म हो रही हैं लेकिन तीसरा विकल्प अभी नहीं उभरा है. डीएमडीके-पीडब्ल्यूएफ  का गठजोड़ बरसों से चले आ रहे द्रविड़ दलों से मोहभंग की हालत में एक राहत जरूर है, लेकिन परिवर्तन को दिशा देने के लिए वह पर्याप्त नहीं है.” वे मानते हैं कि “तमिलनाडु खंडित जनादेश की ओर बढ़ रहा है और यही अपने आप में एक बड़ा बदलाव होगा. दरअसल, कभी-कभार खंडित विधानसभा के परिणामस्वरुप ही लोग बदलाव में यकीन करना शुरू कर देते हैं.”

ऐसे में उम्मीदवारों का चयन काफी अहम हो जाता हैः चूंकि जाति और रसूख का नतीजों पर असर पडऩा लाजिमी है, खासकर बहुकोणीय मुकाबले की स्थिति में- तीन गठबंधनों के अलावा बीजेपी और पीएमके भी चुनावी दौड़ में हैं. मूर्ति कहते हैं, “नतीजों को छोड़ दें, तो यह करुणानिधि और जयललिता का आखिरी चुनाव साबित होगा. डीएमके तो फिर भी एक और चुनावी हार के बाद खुद को शायद बचा ले जाए लेकिन एआइएडीएमके के साथ ऐसा नहीं होगा, बावजूद इसके कि राजनीति और चुनावों को लेकर जयललिता की रणनीत काफी आक्रामक है.” चमत्कार न हो, तो अम्मा का यह चुनाव हारना तय है.

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