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EXCLUSIVE: बॉस्टन के भारतीय बुद्धजीवियों की नजर में मोदी बनेंगे PM

डायोजनीज, यूनान का मशहूर दार्शनिक था. जिसे एक दिन किसी ने, दिन की भरी दोपहर में अपने साथ जलती हुई लालटेन लिए देखा. उस व्यक्ति को हैरत हुई. हैरत का बांध टूटा तो सवाल बह निकला - 'यह क्या है? दिन में लालटेल जलाए किसे खोज रहे हो?' डायोजनीज बड़ी संजीदगी से बोला - 'मैं मनुष्य की खोज कर रहा हूं.' बरस बीत गए. डायोजनीज बूढ़ा हो गया. ज़िंदगी के दोराहे पर वही व्यक्ति डायोजनीज को फिर मिला. और तंज़ करते हुए बोला - 'क्या मनुष्य मिला?' डायोजनीज बोला- 'नहीं.' 'तो क्या तुम्हारे अंदर मनुष्य खोजने की आशा अब भी जीवित है?' डायोजनीज ने उसी विश्वास के साथ जवाब दिया - 'हां बिलकुल, क्योंकि लालटेन अब भी जल रही है.'

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आलोक श्रीवास्तव
आलोक श्रीवास्तव

डायोजनीज, यूनान का मशहूर दार्शनिक था. जिसे एक दिन किसी ने, दिन की भरी दोपहर में अपने साथ जलती हुई लालटेन लिए देखा. उस व्यक्ति को हैरत हुई. हैरत का बांध टूटा तो सवाल बह निकला - 'यह क्या है? दिन में लालटेल जलाए किसे खोज रहे हो?' डायोजनीज बड़ी संजीदगी से बोला - 'मैं मनुष्य की खोज कर रहा हूं.' बरस बीत गए. डायोजनीज बूढ़ा हो गया. ज़िंदगी के दोराहे पर वही व्यक्ति डायोजनीज को फिर मिला. और तंज़ करते हुए बोला - 'क्या मनुष्य मिला?' डायोजनीज बोला- 'नहीं.' 'तो क्या तुम्हारे अंदर मनुष्य खोजने की आशा अब भी जीवित है?' डायोजनीज ने उसी विश्वास के साथ जवाब दिया - 'हां बिलकुल, क्योंकि लालटेन अब भी जल रही है.'

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यही होती है उम्मीद. यही आशा हमारे भीतर बैठे डायोजनीज में आज भी जीवित है. ख़ुद के अंदर श्रेष्ठ-मनुष्य को खोजने की जिज्ञासा आज भी मरी नहीं है. बेहतर कल का सपना आज भी हमारी आंखों में तैरता है. जो शिक्षा और ज्ञान के रास्ते, सपनों को सच में बदलने वाले पथ पर ले जाता है. इसी विश्वास की डोर थामे दुनिया भर से विद्यार्थी अमेरिका के बॉस्टन आते हैं. बॉस्टन, शिक्षा का बड़ा केंद्र कहलाता है. दुनिया भर में 'एजुकेशन-हब' के नाम से जाना जाता है. इस एक ही शहर में हारवर्ड से लेकर मेसेच्यूसेट्स जैसे नामी विश्वविद्यालयों का पता मिल जाता है. और मिल जाते हैं ऐसे हज़ारों भारतीय, जो उच्चशिक्षा की तलब लिए बरसों-बरस पहले यहां आए थे. लेकिन यहीं के होकर रह गए.

इनके मन में एक फांस आज भी चुभती है. अपनों से दूर होने की फांस, वतन से दूर आ जाने की फांस. इस फांस का दर्द इनमें अपनी मिट्टी की ख़ुशबू महकाए रहता है. इसी याद में यहां हर कोई अपने देश की छोटी से छोटी गतिविधि पर आंख गड़ाए रहता है. आप महफ़िल में हों या किसी मेज़बान के साथ. सुबह की सैर पर हों या कार की लंबी ड्राइव पर. सीट बेल्ट बांधते ही पहला सवाल आपकी तरफ़ यही आएगा - ...तो इस बार किसकी बनेगी सरकार?'

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कंप्यूटर इंजीनियर प्रतीक ने भी यही किया. उनके साथ ड्राइव पर था. कार स्टार्ट करते ही बातचीत चल निकली. उन्हें भारतीय राजनीति में हुए घोटालों से बहुत तकलीफ़ है. वो कहते हैं - 'भारत के पास ऐसा बहुत कुछ है जिस पर अमेरिका के साथ-साथ दूसरे देशों को भी रश्क होता है. बस घोटालों ने हमारी नाक कटाई है. मैं चाहूंगा कि अबकी बार मोदी सरकार में आएं, और सबसे पहले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएं.' प्रतीक आगे कहते हैं - 'हमें पहले लगा था, केजरीवाल कमाल करेंगे लेकिन धीरे-धीरे उनकी पार्टी और साथियों की सोच भी सामने आने लगी है. सबके सब मतलबी साबित हो रहे हैं.'

डॉ विनोद त्रिपाठी बॉस्टन के रईसों में शुमार किए जाते हैं. अपना ख़ुदका छोटा-सा हवाई जहाज़ उड़ाते हैं. फ़र्माते हैं - 'भारतीय राजनीति में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं. बीजेपी के अलावा जितनी पार्टियां हैं सबका जन्म कांग्रेस से ही हुआ है. उनकी मूल सोच भी कांग्रेसी है. लिहाज़ा, ऐसी तमाम पार्टियों को कांग्रेस के साथ मिल कर उसी को मज़बूत करना चाहिए. या छोटी पार्टियां ही समाप्त कर देनी चाहिए.'

कम्प्यूटर इंजीनियर आलोक मिश्रा अमेरिका में 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' के ट्रस्टी भी हैं. वे बीजेपी और कांग्रेस दोनों से ही ख़ासे नाराज़ हैं. बहुत सख़्त लहजे में कहते हैं कि - 'कांग्रेसी विकास के नाम पर देश की भोली जनता को मूर्ख बना रहे हैं तो मोदी झूठ की लॉलीपॉप पकड़ा रहे हैं.' मोदी के तख़्त को लेकर भी उनकी सोच सख़्त है - 'मोदी को देश की कमान सौंपना मतलब देश को गर्द में धकेलना है. मोदी अमेरिका को स्वीकार्य नहीं हैं, लिहाज़ा अमेरिका भी नहीं चाहेगा कि मोदी पीएम बनें.'

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आलोक मिश्रा को केजरीवाल के रूप में भारत के मुकम्मल बदलाव का चेहरा नज़र आता है. वे केजरीवाल को दूसरा जयप्रकाश नारायण मानने लगे हैं. इंजीनियर एस. गुहा मुलायम सिंह को अधिक दमदार मानते हैं और उनको प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं.

अमेरिका में बसे ज़्यादातर भारतीयों का केल्कुलेशन दोनों देशों के उम्दा आपसी-संबंधों की चाह के आसपास घूमता है. उन्हें इसी में देशहित भी दिखता है. 'हम किसी से कम नहीं' वाली सोच के साथ वे भारत को अमेरिका जैसा देखना चाहते हैं. या कहिए अमेरिका के शाना-ब-शाना देखना चाहते हैं.

(हमारे वरिष्ठ साथी आलोक श्रीवास्तव इन दिनों अमेरिका यात्रा पर हैं और अलग-अलग शहरों में बसे भारतीयों का सियासी रुख परख रहे हैं.)
वाशिंगटन से रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
पढ़ें, रिचमंड में लोकसभा चुनाव पर क्‍या राय रखते हैं भारतीय
 
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क्लीवलैंड में केजरीवाल का कितना असर?

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