शिकागो कम्यूनिटी हॉल में करीब पांच सौ भारतीयों के बीच एक शाम. शाम के केंद्र में भारतीय-कविता. लेकिन गुफ्तगू के बीच प्रवीण तोगड़िया और शाजिया इल्मी के शर्मनाक-बयान. सामने स्वामी विवेकानंद की आदमकद तस्वीर. जो अपने सुपरिचित अंदाज में हाथ बांधे खड़े थे. मानो अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से पूछ रहे हों- 'क्या हो गया है मेरे भारतीय भाइयों-बहनों को?' जी, 'भाइयो-बहनो'! पहली बार इसी शिकागो से गूंजा था- 'मेरे प्रिय भाइयो-बहनो.' यहीं से जन्मी थी भाषण से पहले 'भाइयो-बहनो' कहने की परंपरा. जन्मदाता थे हमारे-अपने स्वामी विवेकानंद. शिकागो में अपनी ओजस्वी-वाणी से भारतीय-संस्कृति का परचम लहराने वाले युवा-भारतीय विद्वान.
शिकागो, अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण नगरों में से एक. वही शिकागो जिसकी व्यस्ततम सड़क का नाम स्वामी विवेकानंद मार्ग है. वही शिकागो जहां भारत के एक संत ने पूरे विश्व को यह स्वीकार करा दिया था कि भारतीय धर्म-संस्कृति, विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है. वही शिकागो, जहां पूरा महासम्मेलन भारतीय-मूल्यों के सामने स्वीकृति और सहमति से नतमस्तक हुआ था. वही शिकागो जिसके इतिहास में वो यादगार-दिन भी शामिल है जब एक युवा भारतीय-संत के सम्मान में, महासम्मेलन में उपस्थित हजारों विद्वानों ने खड़े होकर लगातार दो मिनट तक तालियां बजाई थीं. वही शिकागो जहां के भारतीय आज भी स्वामी विवेकानंद को भारतीय-आदर्श मानते हैं.
यहां के मिलेनियम पार्क में लगे मिलेनियम ग्लोब को सीना-तान कर दिखाते हैं. मिलेनियम ग्लोब जो एक भारतीय कलाकार अमीष कपूर के हाथों का हुनर है. वही भारतीय आज तोगड़िया और शाजिया इल्मी जैसे नेताओं के बयान से आहत हैं. शर्मसार हैं. क्योंकि वे भारत से दूर हैं लेकिन भारतीय-सरोकारों से नहीं. संस्कृति और परंपराओं से नहीं.
इलाहबाद के डॉ. सुभाष पाण्डेय शिकागो में न्यूरोलॉजी के मशहूर साइंटिस्ट हैं. यहां उत्तरप्रदेश एसोसिएशन के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के चेयरमैन हैं. उन्हें लगने लगा है कि भारतीय राजनीति का नाम बदलकर 'सांप्रदायिक-राजनीति' रख देना चाहिए. वे कांग्रेस से नाराज हैं. वजह है उसका दस साला इतिहास. अनगिनत घोटाले. कांग्रेस में उनकी एक मात्र सद्भावना राहुल गांधी से है. वह भी राजीव गांधी की असमय-मृत्यु के कारण. मोदी का नाम लेते ही डॉ. पाण्डेय की बांछें खिल उठती हैं. कहते हैं- ‘फ़ॉर ए चेंज मोदी को मौका दिया जाना चाहिए. मोनोटोनस व्यवस्था लापरवाह हो जाती है.’
करीब दो लाख भारतीयों की आबादी वाले शिकागो में बड़ी-छोटी सब मिलाकर कुल 27 भारतीय-संस्थाएं हैं. हमारा धर्म-संस्कृति और साहित्य इन्हें एक धागे में पिरोए है. लेकिन आजकल साहित्यिक जमावड़ों में भी सिर्फ आम चुनाव-2014 की चर्चा है. हर निगाह दिल्ली में होने वाली ताजपोशी पर है. यहां बसे भारतीयों को नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच वन-टू-वन मुकाबला दिखता है. लेकिन लखनऊ की रानी त्रिपाठी अखिलेश यादव की ‘लैपटॉप-लालीपॉप’ पर मुग्ध हैं.
लखनऊ के ही विजय प्रकाश तीसरे मोर्चे के समर्थक हैं. कहते हैं- ‘मुलायम ही प्रधानमंत्री बनने चाहिए. रक्षामंत्री के रूप में उनका काम अच्छा था. वो हिंदी प्रेमी हैं, लिहाजा अप्रवासी भारतीयों के हिंदी प्रेम का खयाल रखने के साथ-साथ वे विश्वस्तर पर भी हिंदी का झंडा बुलंद रख सकते हैं.’ घनश्याम पाण्डेय कहते हैं - ‘सरकार किसी की बने चरम पर भारत का विकास होना चाहिए.’
शिकागो में उत्तर-भारतीय और विशेष रूप से उत्तर-प्रदेश के भारतीय अधिक मिले. लिहाजा इनकी पसंद के केंद्र में भी उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ही नजर आई. शायद इसीलिए अब तक की अमेरिका यात्रा में यहीं, तीसरे मोर्चे की बात मुखर होकर सामने आई. शिकागो, पूरा अमेरिका नहीं है. नाहीं एक जगह से पूरी भारतीय राजनीति का चेहरा बनता है. लेकिन तीसरे मोर्चे की बात ने चौंकाया. अबतक की यात्रा में मुलायम-अखिलेश का नाम पहली बार यहीं सामने आया.
(हमारे वरिष्ठ साथी आलोक श्रीवास्तव इन दिनों अमेरिका यात्रा पर हैं और अलग-अलग शहरों में बसे भारतीयों का सियासी रुख परख रहे हैं.)
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